Mulla Nasruddin ki kahaniya: मुल्ला नसरुद्दीन बाज़ार में पहुँचा तो शहर पर शाम की लालिमा बिखरी हुई थी।
थोड़ी ही देर में सारे बाज़ार में रोशनी होने लगी । अगले दिन बड़ा बाज़ार लगने वाला था। एक-एक कर ऊँटों के काफ़िले आ रहे थे। ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज़ें गूँज रही थीं।
मुल्ला नसरुद्दीन को लग रहा था कि वह जीवन भर इस संगीत को सुन सकता है। पड़ोस के एक कहवाख़ाने से तंबूरे की आवाज़ आ रही थी। कोई गायक अपनी साफ़ और तेज़ आवाज़ में सितारों तक पहुँच रहा था। वह अपनी प्रेमिका के बारे में गीत गा रहा था। उसकी बेवफ़ाई की शिकायत कर रहा था।
उस गीत को सुनते हुए मुल्ला नसरुद्दीन रात को सोने की जगह तलाश करने चल दिया।
उसने एक कहवाख़ाने के मालिक से कहा, ‘मेरे पास अपने और अपने गधे के लिए कुल आधा तंका है। ‘
‘आधे तंके में तुम यहाँ रात तो बिता सकते हो लेकिन तुम्हें कम्बल नहीं मिलेगा। ‘
‘मैं अपना गधा कहाँ बाँधू ?
‘तुम्हारे गधे के बारे में मैं सिरदर्द क्यों मोल लूँ?’
कहवाख़ाने में खूँटा कहीं नहीं था। ऊँचे फ़र्शवाली बरसाती से निकला हुआ एक कुंडा नसरुद्दीन को दिखाई दे गया । यह देखे बिना कि वह कुंडा किस चीज़ में लगा है, उसने गधे को बाँध दिया और कहवाखाने में जाकर लेट गया ।
वह बेहद थका हुआ था।
अचानक अपना नाम सुनकर उसने आँखें आधी खोल दीं।
पास में ही कुछ लोग घेरा बनाए चाय पी रहे थे। उनमें एक ऊँटवान था, एक चरवाहा था, दो दस्तकार थे। कोई धीमी आवाज़ में कह रहा था-
‘मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में कहा जाता है कि एक दिन जब वह बगदाद में था तो बाज़ार से गुज़र रहा था। अचानक एक सराय में उसे शोरगुल सुनाई दिया। तुम तो जानते ही हो कि हमारा मुल्ला नसरुद्दीन ऐसी बातें जानने के लिए कितना उतावला रहता है। वह सराय में पहुँच गया। वहाँ लाल मुँह वाला सराय का मोटा मालिक एक भिखारी की गर्दन पकड़े उसे झकझोर रहा था। वह दाम माँग रहा था और भिखारी के पास कुछ था नहीं। नसरुद्दीन ने पूछा, ‘क्यों झगड़ रहे हो तुम लोग?’ सराय का मालिक चीख़कर बोला, ‘यह आवारा, यह कमीना, धोखेबाज़, भिखमंगा, खुदा करे इसकी आँतों में कीड़े पड़ें, मेरी दुकान में घुस आया। अपने लबादे के दामन से इसने रोटी का एक टुकड़ा निकाला और देर तक उसी अँगीठी के ऊपर किए खड़ा रहा, जहाँ मैं बहुत ही जायकेदार सीख कबाब भून रहा था। यह तब तक वहाँ खड़ा रहा जब तक इसकी रोटी में भुने गोश्त की खुशबू न भर गई । और रोटी दुगनी मुलायम और जायकेदार न बन गई। फिर यह उस रोटी को निगल गया। अब यह उसकी क़ीमत देने से इन्कार कर रहा है। खुदा करे इसके दाँत गिर जाएँ। इसकी खाल उधड़कर अलग जा गिरे। ‘
‘क्या यह सच है?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने सख्ती से पूछा। भिखारी के मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकली।
‘तुम जानते हो कि दाम दिए बिना किसी की चीज़ इस्तेमाल करना गलत है?’
यह सुनकर सराय का मालिक खुश हो गया, ‘सुना तूने बदमाश! तूने इस इज़्ज़तदार और क़ाबिल आदमी की बात सुनी ?”
मुल्ला नसरुद्दीन ने भिखारी से पूछा, ‘तुम्हारे पास पैसा है?’ भिखारी ने जेब से आख़िरी पैसे निकाले और मुल्ला नसरुद्दीन को दे दिए।
सराय के मालिक ने अपना चर्बीदार पंजा पैसे लेने के लिए आगे बढ़ाया। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘ठहरिए हजरत, पहले अपना कान मेरे पास लाइए । ‘ काफ़ी देर तक वह सराय के मालिक के कानों के पास पैसे खनखनाता रहा फिर पैसे भिखारी को लौटाते हुए बोला, ‘सलामवालेकुम मेरे ग़रीब दोस्त, अब तुम जा सकते हो।’ सराय का मालिक चिल्लाया, ‘क्या कहा? मेरी क़ीमत मुझे नहीं मिली । ‘
मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया, इसने पूरी कीमत चुकायी है। तुम्हारा हिसाब साफ़ हो गया। उसने तुम्हारा सीख़ कबाब सूँघा और तुमने उसके पैसों की खनखनाहट सुनी। ‘
सुनने वाले ज़ोर से हँस पड़े। उनमें से एक ने सबको सावधान किया, ‘इतनी ज़ोर से मत हँसो। वरना लोग समझेंगे कि हम मुल्ला नसरुद्दीन की बात कर रहे हैं। ‘
मुल्ला नसरुद्दीन मुस्कुराते हुए सोचने लगा- बात तो सच है किंतु यह बात बगदाद में नहीं इस्तम्बूल में हुई थी। इन्हें कैसे पता चला?
तभी चरवाहे की पोशाक पहने और रंगीन साफा बाँधे दूसरा आदमी बोल
उठा-
‘लोग कहते हैं कि एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन एक व्यक्ति के बगीचे के पास से गुज़र रहा था। वह व्यक्ति एक बोरी में कद्दू भर रहा था । लालच में उसने बोरी इतनी भर ली कि ढोना तो दूर, वह उसे उठा भी नहीं पा रहा था। वह खड़ा सोच रहा था कि बोरी को घर तक कैसे पहुँचाया जाए? तभी उसकी नज़र मुल्ला नसरुद्दीन पर गई। वह खुश हो गया। उसने कहा, ‘सुनो बेटे, क्या यह बोरी तुम मेरे घर तक पहुँचा सकते हो ?’ मुल्ला नसरुद्दीन के पास उस वक्त पैसे नहीं थे। उसने पूछा, ‘इसके लिए आप मुझे क्या देंगे ?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘बेटे, जब तुम बोरी लेकर चल रहे होगे, मैं तुम्हें अकलमंदी की तीन ऐसी बातें बताऊँगा, जिन से तुम्हारी जिंदगी खुशी से भर जाएगी।’ नसरुद्दीन ने सोचा- क्यों न अकलमंदी की तीन बातों को जान लिया जाए।’ उसने बोरी उठाकर कंधे पर रख ली और चल पड़ा। रास्ता ऊँचाई पर था और उसके एक ओर खाई थी। मुल्ला नसरुद्दीन एक जगह दम लेने के लिए रुका तो उस व्यक्ति ने रहस्य भरे अंदाज़ में कहा, ‘अकलमंदी की पहली बात सुनो। क्योंकि सबसे बड़ी अकलमंदी की बात आदम के ज़माने से आज तक नहीं हुई। अगर तुम पूरी गहराई से इसके मानी समझो तो यह उन अलिफ़, लाम, मीम हर्फी का असली मतलब समझने के बराबर होगा, जिनसे हमारे पैगंबर हज़रत मुहम्मद ने कुरान का दूसरा सूरा शुरू किया है। ध्यान से सुनो। अगर तुमसे कोई कहे कि सवारी करने से पैदल चलना ज़्यादा अच्छा है तो उसका यक़ीन मत करो। लेकिन यह बात अकलमंदी की उस दूसरी बात के मुकाबले कुछ भी नहीं है, जिसे मैं तुम्हें उस पेड़ के नीचे सुनाऊँगा । वह देख, वह आगे वाला पेड़ ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘अच्छी बात है।’ उसने बोरी उठाई और उस पेड़ तक पहुँच गया ।
उस व्यक्ति ने उँगली उठाकर कहा, ‘कान खोलकर सुन, क्योंकि अकलमंदी की इस बात में पूरा कुरान, आधी शरीयत और चौथाई तरीकत भरी हुई है। जो इस बात को समझ लेगा वह नेकी के रास्ते से कभी नहीं डिगेगा। हमेशा सच्चाई के रास्ते पर चलेगा। इसलिए ऐ मेरे बेटे, अगर तुझसे कोई कहे कि ग़रीब की जिंदगी अमीर की ज़िंदगी से ज़्यादा असान और आरामदेह है तो उसका यक़ीन मत करना। लेकिन यह दूसरी बात भी उस तीसरी बात के सामने कुछ भी नहीं है। यह तीसरी बात मैं तुझे अपने घर के फाटक पर पहुँचकर बताऊँगा । ‘
‘ठहरिए मुल्ला साहब, ‘ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘मुझे आपकी अकलमंदी की तीसरी बात पहले से ही मालूम है। अपने घर के दरवाज़े पर पहुँचकर आप बताएँगे कि चालाक आदमी बेवकूफ़ आदमी से कद्दुओं की बोरी मुफ्त दुलवा सकता है। ‘
वह व्यक्ति हैरान रह गया। मुल्ला नसरुद्दीन ने सच ही कहा था ।
‘अब जनाब अकलमंदी की एक बात मेरी भी सुनिए। यह अकेली बात आपकी तमाम बातों के बराबर है। इसमें कुरान, शरीयत, तरीकत ही नहीं, पूरे इस्लाम, बौद्ध, ईसाई और यहूदी धर्म की सारी बातें शामिल हैं। मुझे सच्चा ईमान बताने वाले मेरे उस्ताद, इससे ज़्यादा अकलमंदी की कोई बात कभी नहीं हुई, जो मैं बताने जा रहा हूँ। सुनिए, अगर आपसे कोई कहे कि ये कद्दू फूटे नहीं हैं तो उसके मुँह पर थूक दीजिएगा। उसे झूठा कह दीजिएगा और घर से निकाल बाहर कर दीजिएगा।’
यह कहकर मुल्ला नसरुद्दीन ने बोरी उठाई और खड्डे में फेंक दी। कद्दू बोरी से निकलकर पत्थरों से
टकराते हुए नीचे गिरकर चकनाचूर हो गए। वह व्यक्ति हाय-हाय करके रोने लगा, ‘हाय, कितना नुकसान हो गया ! हाय, मैं बर्बाद हो गया।’ चीखता- चिल्लाता और अपनी दाढ़ी नोचता हुआ वह पागलों की तरह अपने घर की ओर चलने लगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘देखा आपने! मैंने आपको पहले ही ख़बरदार कर दिया था कि मेरी अकलमंदी की बात सुनकर आप पागल हो सकते हैं। ‘
सुनने वाले हँसी से दोहरे हो गए।
धूल और खटमलों से भरे गद्दे पर पड़ा नसरुद्दीन सोचने लगा, तो इन्हें इस घटना का भी पता चल गया। लेकिन कैसे ? उस समय उस सड़क पर बस हम दो ही आदमी थे। मैंने तो इसके बारे में किसी से कुछ कहा नहीं। शायद उस व्यक्ति को जब यह पता चला कि उसके कद्दू कौन ढो रहा था, उसने यह किस्सा सुना दिया हो। ‘
तभी तीसरे आदमी ने अपनी कहानी शुरू कर दी –
‘एक दिन तुर्की के एक शहर से मुल्ला नसरुद्दीन उस गाँव की ओर लौट रहा था, जहाँ उन दिनों वह रह रहा था। रास्ते में थककर वह एक नदी के किनारे लेट गया। पानी की दिलकश आवाज़ और बहार के मौसम की खुशबूदार हवा के झोंकों में उसे नींद आ गई। सोते-सोते उसने सपना देखा कि वह मर गया है। उसने सोचा, अगर मैं मर गया हूँ तो मुझे न तो आँखें खोलनी चाहिए और न हिलना चाहिए ।’ सो वह चुपचाप बिना हिले-डुले मुलायम घास पर लेटा रहा। उसे लगा, मरना इतनी बुरी चीज़ नहीं है। जब तक इन्सान जिंदा रहता है झंझट और परेशानियाँ बुरी तरह उसके पीछे लगी रहती हैं। मर जाने पर उन सबसे दूर आराम से पड़े रहना पड़ता है।
उधर से कुछ मुसाफ़िर जा रहे थे। उनकी नज़र उस पर पड़ी। उनमें से एक ने कहा, ‘यह कोई मुसलमान है।’ दूसरा बोला, ‘मर गया है। चलो इसे उठाकर पास के गाँव में ले चलें । ‘
पास का गाँव वही था, जहाँ नसरुद्दीन को जाना था। उन मुसाफ़िरों ने पेड़ों से कई डालियाँ काटीं। उनकी चारपाई बनाई और उस पर नसरुद्दीन को लिटाकर उसे गाँव की ओर लेकर चल दिए। वह आँखें मूँदे, बिना हिले-डुले चुपचाप लेटा रहा, मुर्दे की तरह ।
अचानक चारपाई रुक गई। मुसाफ़िर नदी पार करने के बारे में सोच-विचार करने लगे। एक कह रहा था – दाहिनी ओर मुड़ना है। दूसरा कह रहा था – बायीं ओर । तीसरा कह रहा था कि यहीं से सीधे नदी पार करनी चाहिए। नसरुद्दीन ने एक आँख खोलकर देखा-वे लोग उस जगह खड़े थे, जहाँ नदी सबसे ज़्यादा गहरी थी । वहाँ नदी की धारा सबसे ज़्यादा तेज़ और ख़तरनाक थी। वह सोचने लगा, मेरी तो कोई बात नहीं, क्योंकि मैं मर चुका हूँ। मुझे अपनी परवाह नहीं। भले ही मैं कब्र में लेदूँ या नदी की गोद में, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इन मुसाफ़िरों को सावधान कर देना चाहिए। वरना मुझ पर मेहरबानी करते-करते ये लोग अपनी जान से हाथ न धो बैठें।
वह चारपाई पर थोड़ा सा उठा और नदी की ओर इशारा करते हुए कमज़ोर आवाज़ में बोला, ‘मुसाफ़िरो, मैं जब जिंदा था तो हमेशा इस नदी को चिनार के उन पेड़ों के पास से पार किया करता था।’ इतना कहकर उसने फिर आँखें मूँद लीं और लेट गया। मुसाफ़िरों ने मुल्ला नसरुद्दीन को धन्यवाद दिया और ज़ोर-ज़ोर से उसकी रूह के सुकून के लिए दुआ माँगते चारपाई लेकर आगे बढ़ गए।’
कहानी कहने वाला और सुनने वाले एक-दूसरे को कुहनी मारकर हँस पड़े।
मुल्ला नसरुद्दीन कराह उठा। इन्होंने पूरा किस्सा ही गलत सुना। पहली बात तो यह है कि मैंने सपना ही नहीं देखा कि मैं मर चुका हूँ। मैं इतना बेवकूफ़ नहीं हूँ कि अपनी मौत और जिंदगी में फ़र्क़ न कर सकूँ। मुझे तो यह याद है कि उस वक्त मुझे पिस्सू काट रहे थे और जी चाह रहा था कि अपना बदन खुजा लूँ। ज़िंदा होने का यह सबसे बड़ा सबूत था। हाँ, मैं बेहद थका हुआ था और चलना नहीं चाहता था। मुसाफ़िर तगड़े थे। उन्हें ज़रा सा रास्ता बदलकर मुझे गाँव तक पहुँचाने में कोई तकलीफ न होती। लेकिन जब वे नदी को उस जगह से पार करने के बारे में सोचने लगे, जहाँ नदी की गहराई तीन आदमियों के बराबर थी तो मैंने उन्हें रोक दिया। हालांकि उस वक्त भी मैं उनके बाल-बच्चों के बारे में ही सोच रहा था। मेरा तो कोई बाल-बच्चा था ही नहीं, जो मैं अपने बारे में सोचता लेकिन उनके नाशुक्रेपन का बड़ा कड़वा फल मिला। वक्त पर सावधान कर देने के बदले मेरा शुक्रिया अदा करना तो दूर उन्होंने मुझे चारपाई से गिरा दिया और पीटने लगे। अगर मैं तेज़ी से न दौड़ता तो वे मेरी और भी ठुकाई करते। लोग सच्चाई को किस तरह तोड़-मरोड़ डालते हैं, इसी बात पर हैरानी होती है।
चौथे आदमी ने अपना किस्सा शुरू कर दिया-
मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में यह किस्सा भी मशहूर है – ‘एक बार वह गाँव में लगभग छः महीने तक रहा और अपने मसखरेपन तथा अपनी हाजिरजवाबी के लिए मशहूर हो गया। ‘
मुल्ला नसरुद्दीन के कान खड़े हो गए। यह आवाज़ कहाँ सुनी थी उसने? ज़्यादा ज़ोर की नहीं थी फिर भी बिल्कुल साफ़ और कुछ-कुछ भर्रायी हुई सी थी । सुनी थी बिल्कुल हाल ही में। शायद आज ही; लेकिन याद करने की कोशिश करने पर भी याद नहीं आया।
वह आदमी कह रहा था-
‘एक दिन उस सूबे के हाकिम ने उस गाँव में अपना हाथी भेज दिया, जहाँ मुल्ला नसरुद्दीन रहता था। हाथी को खिलाने-पिलाने और देखभाल की जिम्मेदारी गाँववालों की थी। हाथी बड़ा खाऊ था। एक दिन में पचास गट्ठर चरी, पचास गट्ठर मक्का और सौ बोझ चना खा जाता था। बस एक पखवाड़े में ही गाँववालों के खलिहान खाली हो गए। बिल्कुल बर्बाद हो गए बेचारे । अंत में उन्होंने तय किया कि मुल्ला नसरुद्दीन को हाकिम के पास भेजा जाए और प्रार्थना की जाए कि वह अपना हाथी वापस बुला लें।
उन्होंने मुल्ला नसरुद्दीन को खोजा । वह उनका काम करने के लिए राज़ी हो गया। उसने अपने गधे पर ज़ीन कसी और जैसा कि सारी दुनिया जानती है ज़िद्दी, बदमिजाजी और काहिली में उसका गधा साँप, सियार और मेढक की मिली-जुली औलाद से भी गया- बीता है। ज़ीन कसकर वह हाकिम की तलाश में चल पड़ा। लेकिन जाने से पहले वह गाँववालों से अपना मेहनताना तय करना नहीं भूला। उसने इस काम के लिए इतनी रकम वसूल की कि बहुत से लोगों को अपने घर बेचने पड़े और वे फ़क़ीर हो गए। यह सब हुआ मुल्ला नसरुद्दीन की बदौलत ।
जिस कोने में मुल्ला नसरुद्दीन गद्दे पर पड़ा अपने दमघोटू गुस्से पर काबू पाने की कोशिश में करवटें बदल रहा था, उधर से आवाज़ आई – ‘हूँ।’
आदमी कहता चला गया-
‘ इस तरह मुल्ला नसरुद्दीन हाकिम के महल तक पहुँच गया। बहुत देर तक वह हाकिम के नौकरों और हाकिम की मेहरबानियों पर पलनेवाले लोगों की भीड़ में खड़ा इंतज़ार करता रहा कि हाकिम अपनी कृपादृष्टि उस पर भी डाले – वह दृष्टि जो कुछ लोगों को खुशी देती है और कुछ को बर्बादी । हाकिम ने मुल्ला नसरुद्दीन की ओर मुड़कर देखा तो उस शानदार चेहरे को देखकर वह इतना डर गया और इतना हैरान हुआ कि उसकी टाँगें सियार की पूँछ की तरह काँपने लगीं । बदन में खून की रफ्तार कम हो गई। बेचारा पसीने से लथपथ हो गया और खड़िया से भी ज़्यादा सफ़ेद पड़ गया । ‘
कोने से फिर ‘हूँ-हूँ,’ की आवाज़ आई। लेकिन क़िस्सा कहनेवाला इस रुकावट की परवाह किए बिना कहता रहा-
‘हाँ, किसी ने शेर की दहाड़ से मिलती-जुलती अपनी गरजती शानदार आवाज़ में पूछा, ‘तू क्या चाहता है?’ डर के मारे मुल्ला नसरुद्दीन के मुँह से आवाज़ नहीं निकली। बदबूदार लकड़बग्घे जैसी मिमियाती आवाज़ में बोला, ‘ऐ मेरे शान वाले मालिक, ऐ सूबे की रोशनी, ऐ इस सूबे के चाँद सूरज, हमारे सूबे के हर बाशिंदे को खुशी बख़्शने वाले, अपने इस नाचीज़ गुलाम की बात सुनिए जो आपके महल के दरवाज़े को अपनी दाढ़ी से साफ़ करने के काबिल भी नहीं है। ऐ महरबानों के मेहरबान, आपने अपना एक हाथी हमारे गाँव में भेजकर बड़ी मेहरबानी की है और उसे खिलाने-पिलाने और देखभाल करने का मौका गाँववालों को दिया है। हम लोगों को इससे कुछ फ़िक्र हो चली है। ‘
हाकिम की त्योरियाँ चढ़ गईं। मुल्ला नसरुद्दीन उसके सामने बिल्कुल उसी तरह झुक गया जिस तरह आँधी में सरकंडे झुक जाते हैं। हाकिम ने पूछा, ‘किस बात की फ़िक्र ? बोलता क्यों नहीं? क्या तेरी गंदी जुबान तालू से चिपक गई है?’ नसरुद्दीन डर का दिखावा करते हुए घिघियाया, ‘मैं – ऐ ऐ आका हमें फ़िक्र है कि हाथी को अकेलापन महसूस होता है। बहुत ही दुखी है बेचारा । उसका दुख देखकर गाँववाले भी दुखी हो गए हैं और शोक मना रहे हैं। ऐ महान अमीर, अपनी शख्सियत से दुनिया को रोशन करनेवाले हुजूर, गाँववालों ने मुझे आपके पास भेजा है। उन्होंने मुझसे यह दरख्वास्त करने के लिए कहा है कि हाथी के साथ रहने के लिए एक हथिनी भी भेज दी जाए।’ इस दरख्वास्त पर हाकिम बहुत खुश हुआ और उसे तत्काल पूरा करने का हुक्म दे दिया। खुश होकर उसने नसरुद्दीन को अपना जूता चूमने की इजाजत दे दी। नसरुद्दीन ने यह काम ऐसी लगन और मेहनत से किया कि हाकिम के जूते का रंग उड़ गया और नसरुद्दीन के होंठ काले पड़ गए।
तभी नसरुद्दीन की कड़कती हुई ऊची आवाज़ ने किस्सा सुनानेवाले की बात बीच ही में काट दी-
‘तू झूठ बोलता है बे’, नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘गंदे मरियल कुत्ते, तेरे ये होंठ, तेरी ये जुबान और तेरा पेट, बड़े लोगों की जूतियाँ चाटने से ही काले पड़ गए हैं। नसरुद्दीन कभी किसी बड़े आदमी के आगे नहीं झुका । तू उसे बदनाम कर रहा है । ऐ मुसलमानो, तुम इसकी बात मत सुनो और इसे यहाँ से भगा दो।’
बदनाम करनेवाले आदमी से निबटने के लिए वह आगे बढ़ा ही था कि चेचक के दागों से भरे चपटे चेहरेवाले आदमी की पीली काइयाँ आँखों को पहचानकर एकदम रुक गया। यह वही नौकर था, जिसने उससे बहिश्त के पुल पर बाढ़ लगाने के सिलसिले में गली में झगड़ा किया था।
नसरुद्दीन चिल्ला उठा, ‘मैं तुझे जानता हूँ। ऐ जासूस, जासूसी करके ख़बर देने का तुझे क्या मिलता है ? किनके साथ तू दगा करता है? अबे अमीर के जासूस, मैं तुझे अच्छी तरह पहचानता हूँ । ‘
अब तक ख़ामोश खड़े जासूस ने जल्दी से तालियाँ बजाईं और ऊँची आवाज़ में चिल्लाया, ‘सिपाही ! सिपाही ! यहाँ । ‘
नसरुद्दीन ने सिपाही के दौड़ते कदमों की आहट, भालों की खनखनाहट और ढालों की खटाखट सुनी। एक भी पल खोये बिना वह एक ओर को उछला और रास्ता रोकनेवाले चेचक के दागों से भरे चेहरे वाले जासूस को गिराकर बाहर निकल गया।
तभी उसे चौराहे की दूसरी ओर से पहरेदारों के क़दमों की आहटें सुनाई दीं। वह जिस ओर भी जाता सामने से सिपाही आते दिखाई देते। एक पल के लिए उसे लगा, अब बच निकलना असंभव है।
वह ज़ोर से बोला, ‘लानत है मुझ पर। मैं फँस गया ऐ मेरे वफ़ादार गधे, कहाँ है तू, अलविदा। ‘
तभी आश्चर्य भरी एक ऐसी घटना हुई, जिसकी कोई आशा नहीं थी और जिसे बुखारा निवासी आज तक याद करते हैं। ऐसी घटनाएँ कभी भी भुलाई न जा सकेंगी। बड़ा हो- हुल्लड़ और नुकसान हुआ था उस घटना से ।
अपने मालिक की निराशा भरी आवाज़ सुनकर गधा उसकी ओर बढ़ा। उसके साथ ही बरसाती से टकराता हुआ एक बहुत बड़ा ढोल भी उसके साथ लुढ़कने लगा। अँधेरे में बिना जाने हुए ही नसरुद्दीन ने अपने गधे को उस बड़े ढोल के कुंडे में बाँध दिया था, जिसे बजाकर कहवाखाने का मालिक बड़े-बड़े त्यौहारों पर ग्राहकों को अपनी दुकान पर बुलाया करता था। ढोल एक पत्थर से जा टकराया, बहुत ज़ोर की आवाज़ हुई। गधे ने पीछे मुड़कर देखा तो ढोल फिर बज उठा। यह समझकर कि उसके मालिक से निबटकर शैतान अब उसके पीछे आ रहा है और अब उसकी चमड़ी की खैरियत नहीं है, भयभीत होकर गधा अपनी दुम उठाकर ज़ोर-ज़ोर से रैंकता हुआ बाज़ार की ओर भाग छूटा।
पचास ऊँटों का एक काफिला उसी समय बाज़ार की ओर आ रहा था। ऊँटों पर चीनी के बर्तन और ताँबे की चादरें लदी हुई थीं। इस तरह ज़ोर-ज़ोर से रैंकने, गमकने, बमकने वाले जानवर को अपनी ओर बढ़ते देख ऊँट घबराकर इधर-उधर भागने लगे। उन पर लदे चीनी मिट्टी के बर्तन और ताँबे की चादरें खनखनाती हुई ज़मीन पर गिरने लगीं।
पलक झपकते पूरे बाज़ार और आसपास की गलियों में भय और घबराहट फैल गई। रैंकने, भौंकने, बर्तनों के गिरने, ताँबे की चादरों के खनखनाने, चीख-पुकार – बिल्कुल दोजख जैसा शोरगुल । सैकड़ों ऊँट, घोड़े और गधे रस्सियाँ तुड़ा – तुड़ाकर अँधेरे में भागने लगे। ताँबे की चादरों के आपस में टकराकर गिरने पर गरज पैदा हो गई। जानवरों के मालिक मशालें लिए चिल्लाते हुए इधर-उधर दौड़ने – भागने लगे ।
दोजख जैसा शोर सुनकर सोनेवाले जाग गए और अधनंगे ही इधर-उधर भागने लगे। कभी एक-दूसरे से जा टकराते और कभी दर्द के कारण चीखने-चिल्लाने लगे। वे समझ बैठे थे कि कयामत का दिन आ गया है। मुर्गे पंख फड़फड़ाकर बाँग देने लगे। बढ़ते-बढ़ते यह हंगामा शहर की बाहरी आबादी तक फैलं गया।
उस शोर को सुनते ही चारदीवारी पर लगी तोपें गरज उठीं। पहरेदारों ने समझा कि दुश्मन बुखारा में घुस आया है। तभी शाही महल की तोपें भी गरजने लगीं। शाही महल के पहरेदारों ने समझा – इन्कलाब हो गया। अजान देनेवाले शहर. की अनगिनत मीनारों से सहमी हुई गमगीन आवाज़ों में दुआ माँगने लगे। कोई भी . समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे, कहाँ भागकर जाए !
इसी हो – हुल्लड़ के बीच नसरुद्दीन पगलाए हुए ऊँटों और घोड़ों से फुर्ती से बचता हुआ ढोल की आवाज़ के सहारे अपने गधे का पीछा कर रहा था। वह गधे को तब तक नहीं पकड़ पाया, जब तक गधे और ढोल को जोड़ने वाली रस्सी न टूट गई। ढोल लुढ़ककर ऊँटों के पैरों के नीचे पहुँच गया। वे उससे बचने की हड़बड़ी में शामियानों, छप्परों, चंदोवों और कहवाख़ानों में गिरने लगे।
गधे को खोजने में नसरुद्दीन को न जाने कितना समय लग जाता, अचानक वे एक-दूसरे के सामने न आ जाते।
‘चल इधर आ, यहाँ ज़रूरत से ज़्यादा शोरगुल हो रहा है।’ ख़ून से लथपथ काँपते गधे को अपने पीछे खींचते हुए नसरुद्दीन बोला, ‘यह देखकर अचंभा हो रहा है कि अगर गधे के पीछे ढोल बाँध दिया जाए तो यह छोटा सा जानवर किस हद तक बर्बादी कर सकता है। देखा तूने क्या कर डाला है? खुशी है कि मुझे तूने पहरेदारों से बचा लिया लेकिन बुखारा के गरीब निवासियों के लिए मुझे अफसोस है। सारा मलबा साफ़ करने में उन्हें सवेरा हो जाएगा। अब हमें कोई ऐसी जगह कहाँ मिल सकती है, जहाँ हम रात गुज़ार सकें । ‘
नसरुद्दीन ने निश्चय किया कि वह किसी कब्रिस्तान में रात गुज़ारेगा। उसने ठीक ही सोचा था। क्योंकि कितना भी बड़ा हंगामा क्यों न हो, मुर्दे तो कब्रों से उठकर मशालें हाथों में लेकर न तो चीख़ – चिल्ला सकते हैं, न इधर-उधर भाग-दौड़ सकते हैं।
शांति भंग करनेवाले और फूट के बीज बोनेवाले नसरुद्दीन ने इस प्रकार अपने वतन में वापसी का पहला दिन अपनी प्रसिद्धि के अनुसार ही बिताया। उसने गधा एक पत्थर से बाँध दिया और दूसरी कब्र पर लेटकर इत्मीनान से सो गया ।
इस बीच शहर में काफ़ी देर तक शोरगुल, चीख-पुकार, घंटियों के बजने और तोपों के गरजने की आवाज़ों के बीच हंगामा जारी रहा।
