Mulla Nasruddin ki kahaniya: अक्लमंदी से भरे इस उसूल को याद करके कि उन लोगों से दूर रहना चाहिए, जो यह जानते हैं कि तुम्हारा रुपया कहाँ रखा है, मुल्ला नसरुद्दीन उस कहवाख़ाने पर नहीं रुका और फौरन बाज़ार की ओर बढ़ गया। बीच-बीच में वह मुड़कर यह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है, क्योंकि जुआरियों और कहवाख़ाने के मालिक के चेहरों पर उन्हें सज्जनता दिखाई नहीं दी थी। अब वह तीन-तीन कारखाने ख़रीद सकता था। उसने यही निश्चय कर लिया।
मैं चार दुकानें ख़रीदूँगा। एक कुम्हार की, एक जीनसाज़ की, एक दर्जी की और एक मोची की। हर दुकान में दो-दो कारीगर रखूँगा। मेरा काम केवल रुपया वसूल करना होगा। दो साल में मैं रईस बन जाऊँगा । ऐसा मकान खरीदूँगा, जिसके बाग़ में फव्वारे होंगे। हर जगह सोने के पिंजरे लटकाऊँगा । उनमें गाने वाली चिड़ियाँ रहा करेंगी। और दो-शायद तीन बीवियाँ भी रखूँगा; और मेरी हर बीवी के तीन-तीन बेटे होंगे।’
ऐसे ही सुनहरे विचारों की नदी में डूबता -उतराता वह गधे पर बैठा चला जा रहा था। अचानक गधे ने लगाम ढीली पाकर मालिक के विचारों में खोये रहने का लाभ उठाया। जैसे ही वह छोटे से पुल के पास पहुँचा, अन्य गधों की तरह सीधे पुल पर चलने की अपेक्षा उसने एक ओर को थोड़ा-सा दौड़कर खाई के पार छलाँग लगा दी।
और जब मेरे बेटे बड़े हो जाएँगे तो मैं उन्हें एक साथ बुलाकर उनसे कहूँगा – मुल्ला नसरुद्दीन के विचार दौड़ रहे थे कि अचानक वह सोचने लगा- मैं हवा में क्यों उड़ रहा हूँ? क्या अल्लाह ने मुझे फ़रिश्ता बनाकर मेरे पंख लगा दिए हैं?
दूसरे ही पल उसे इतने तारे दिखाई दिए कि वह समझ गया कि उसके एक भी पंख नहीं है। गुलेल के ढेले की तरह वह जीन से लगभग दस हाथ उछला और सड़क पर जा गिरा।
जब वह कराहते हुए उठा तो दोस्ताना ढंग से कान खड़े किए उसका गधा उसके पास आ खड़ा हुआ । उसके चेहरे पर भोलापन था। लगता था जैसे वह फिर से ज़ीन पर बैठने की दावत दे रहा हो।
क्रोध से काँपती आवाज़ में मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘अरे तू, तुझे मेरे ही नहीं, मेरे बाप-दादा के भी गुनाहों की सज़ा के बदले भेजा गया है। इस्लामी इन्साफ़ के अनुसार किसी भी इन्सान को केवल अपने गुनाहों के लिए इतनी सख्त सज़ा नहीं मिल सकती। अबे झींगुर और लकड़बग्घे की औलाद – ‘
लेकिन एक अधटूटी दीवार के साये में कुछ दूर बैठे लोगों की भीड़ को देखकर वह एकदम चुप हो गया।
गालियाँ उसके होंठों में ही रह गईं। उसे ख़याल आया कि जो आदमी ऐसे मज़ाकिया और बेइज़्ज़ती की हालत में ज़मीन पर जा पड़ा हो और लोग उसे देख रहे हों, उसे खुद हँसना चाहिए।
वह उन आदमियों की ओर आँख मारकर अपने सफ़ेद दाँत दिखाते हुए हँसने लगा-
‘वाह, मैंने कितनी बढ़िया उड़ान भरी !’ उसने हँसी की आवाज़ में ज़ोर से कहा, ‘बताओ न, मैंने कितनी कलाबाज़ियाँ खाईं ? मुझे खुद तो गिनने का वक्त मिला नहीं। अरे शैतान -! हँसते हुए उसने गधे को थपथपाया। हालांकि जी चाह रहा था कि उसकी डटकर मरम्मत करे। लेकिन हँसते हुए कहने लगा, ‘यह जानवर ही ऐसा है, इसे ऐसी ही शरारतें सूझती रहती हैं। मेरी नज़रें दूसरी ओर घूमी नहीं कि इसे कोई-न-कोई शरारत सूझी। ‘
मुल्ला नसरुद्दीन खुलकर हँसने लगा। लेकिन उसे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि उसकी हँसी में कोई भी शामिल नहीं हुआ। वे लोग सिर झुकाए, ग़मगीन चेहरे लिए ख़ामोश बैठे रहे। उनकी औरतें गोद में बच्चे लिए चुपचाप रोती रहीं।
‘ज़रूर कुछ गड़बड़ है!’ उसने सोचा और उन लोगों की ओर चल दिया।
उसने सफ़ेद बालों और सूखे चेहरे वाले एक बूढ़े से पूछा, ‘क्या हुआ है बुजुर्गवार ! बताइए ना ? मुझे न मुस्कान दिखाई दे रही है और न हँसी ही सुनाई दे रही है। ये औरतें क्यों रो रही हैं? इस गर्मी में आप धूल भरी सड़क पर क्यों बैठे हैं? क्या यह अच्छा न होता कि आप लोग अपने घरों की ठंडी छाँह में आराम करते?’
‘घरों में बैठना उन्हीं के लिए अच्छा है जिनके पास घर हों।’ बूढ़े ने दुःख भरी आवाज़ में कहा, ‘ऐ मुसाफ़िर, मुझसे मत पूछ । हमारी तकलीफें बहुत ज़्यादा हैं। तू किसी भी तरह हमारी मदद नहीं कर सकता। रही मेरी बात, सौ मैं बूढ़ा हूँ । अल्लाह से दुआ माँग रहा हूँ कि मुझे जल्द उठा ले । ‘
‘आप ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने झिड़कते हुए कहा, ‘मर्दों को इस तरह नहीं सोचना चाहिए। अपनी परेशानी मुझे बताइए । मेरी ग़रीबों जैसी शक्ल पर मत जाइए। कौन जानता है कि मैं आपकी कोई मदद कर सकूँ।
मेरी कहानी बहुत छोटी है। अभी सिर्फ एक घंटे पहले सूदखोर जाफ़र अमीर दो सिपाहियों के साथ हमारी गली से गुज़रा। मुझ पर उसका क़र्ज़ है । रकम चुकाने की कल आखिरी तारीख़ है। उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया। कल वह मेरी सारी जायदाद, घर, बगीचा, ढोर डंगर, अंगूर की बेलें – सब कुछ बेच देगा । ‘ बूढ़े की आँखें आँसुओं से तर हो गईं। उसकी आवाज़ काँपने लगी ।
‘क्या आप पर बहुत क़र्ज़ है?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछा ।
‘मुझे उसे ढाई सौ तंके देने हैं। ‘
‘ढाई सौ तंके?’ मुल्ला नसरुद्दीन के मुँह से निकला, ‘ढाई सौ तके की मामूली सी रक़म के लिए भी भला कोई इन्सान मरना चाहेगा? आप ज़्यादा अफ़सोस न करें।’
यह कहकर वह गधे की ओर पलटा और ज़ीन से थैले खोलने लगा।
‘मेरे बुजुर्ग दोस्त, ये रहे ढाई सौ तंके। उस सूदखोर को वापस कर दीजिए और लात मारकर घर से निकाल दीजिए। और फिर ज़िंदगी के बाकी दिन चैन से गुज़ारिए । ‘
चाँदी के सिक्कों की खनखनाहट सुनकर उस पूरे झुंड में जान सी पड़ गई। बूढ़ा आँखों में हैरानी, अहसान और आँसू लिए मुल्ला नसरुद्दीन की ओर देखता रह गया।
‘देखा आपने? इस पर भी आप अपनी परेशानी मुझे बता नहीं रहे थे । ‘ मुल्ला नसरुद्दीन ने आखिरी सिक्का गिनते हुए कहा । वह सोचता जा रहा था, ‘कोई हर्ज नहीं। न सही आठ कारीगर, सात ही रख लूँगा। ये भी कुल काफ़ी हैं। ‘
अचानक बूढ़े की बगल में बैठी एक औरत मुल्ला नसरुद्दीन के पैरों पर जा गिरी और ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए उसने अपना बच्चा उसकी ओर बढ़ा दिया ।
‘देखिए, यह बीमार है? इसके होठ सूख रहे हैं। चेहरा जल रहा है, बेचारा बच्चा, नन्हा-सा बच्चा सड़क पर ही दम तोड़ देगा। हाय, मुझे भी घर से निकाल दिया है।’ उसने सुबकियाँ भरते हुए बताया ।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बच्चे के सूखे खुले-पतले चेहरे को देखा। उसने पतले हाथ देखे, जिनसे रोशनी गुज़र रही थी। फिर उसने आसपास बैठे लोगों के चेहरों को देखा। दुःख की लकीरों और झुर्रियों से भरे चेहरों और लगातार रोने के कारण धुँधली पड़ी आँखों को देखकर उसे लगा जैसे किसी ने उसके सीने में छुरा भोंक दिया हो । उसका गला भर आया। क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठा।
‘मैं विधवा हूँ। छह महीने बीते मेरा शौहर चल बसा। उसे सूदखोर के दो सौ तके देने थे। क़ानून के मुताबिक अब वह क़र्ज़ मुझे चुकाना है ।’ औरत ने कहा । ‘लो, ये दो सौ तंके और घर जाओ। बच्चे के सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखो। और सुनो ये पचास तंके और लेती जाओ। किसी हकीम को बुलाकर इसे दवा दिलवाओ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा और सोचने लगा, ‘छह कारीगरों से भी मैं अच्छी तरह काम चला लूँगा । ‘
तभी एक भारी-भरकम संगतराश उसके पैरों में आ गिरा। अगले ही दिन उसका पूरा परिवार गुलामों की तरह बेचा जाने वाला था। उसे जाफ़र को चार सौ के देने थे।
‘चलो पाँच कारीगर ही सही ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उन्हें काफ़ी रकम दी । उसे कोई हिचक नहीं हुई ।
उसके थैले में अब कुल पाँच सौ तके बचे थे। तभी उसकी नज़र एक आदमी पर पड़ी, जो अकेला एक ओर बैठा था। उसने मदद नहीं माँगी थी। लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी और दुःख स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।
मुल्ला नसरुद्दीन ने पुकारकर कहा, ‘सुनो भाई, अगर तुम्हें सूदखोर का क़र्ज़ नहीं देना तो तुम वहाँ क्यों बैठे हो ?’
‘क़र्ज़ मुझ पर भी है।’ उस आदमी ने भर्राए गले से कहा, ‘कल मुझे ज़ंजीरों में जकड़कर गुलामों के बाज़ार में बेचने के लिए ले जाया जाएगा।’
‘लेकिन तुम चुपचाप क्यों बैठे रहे?’
‘ऐ मेहरबान और दानी मुसाफिर, मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो ? हो सकता है तुम फ़क़ीर बहाउद्दीन हो और ग़रीबों की मदद करने के लिए अपनी से उठकर आ गए हो। या फिर ख़लीफ़ा हारून रशीद हो। मैंने तुमसे इसलिए मदद नहीं माँगी कि तुम काफ़ी रुपया खर्च कर चुके हो। मेरा क़र्ज़ सबसे ज़्यादा है। पाँच सौ तंके। मुझे डर था कि अगर तुमने इतनी बड़ी रकम मुझे दे दी तो इन औरतों की मदद के लिए कहीं तुम्हारे पास रुपया न बचे । ‘”
‘तुम बहुत ही भले आदमी हो। लेकिन मैं भी मामूली भला आदमी नहीं हूँ। मेरी भी है। मैं कसम खाता हूँ कि तुम कल गुलामों के बाज़ार में नहीं बिकोगे। फैलाओ अपना दामन ।’
और उसने अपने थैले का अंतिम सिक्का तक उसके दामन में उलट दिया। उस आदमी ने मुल्ला नसरुद्दीन को गले से लगाया और आँसूओं से भरा चेहरा उसके सीने पर रख दिया।
अचानक लंबी दाढ़ीवाला भारी भरकम संगतराश ज़ोर से हँस पड़ा- ‘सचमुच आप गधे से बड़े मजे से उछले थे। ‘
सभी लोग हँसने लगे।
‘हो, हो, हो, हो ।’ मुल्ला नसरुद्दीन हँसी के मारे दोहरा हुआ जा रहा था, ‘आप लोग नहीं जानते कि यह गधा है किस किस्म का यह बड़ा पाजी गधा है। ‘
‘नहीं नहीं, अपने गधे के बारे में ऐसा मत कहिए।’ बीमार बच्चे की माँ बोल उठी, ‘यह दुनिया का सबसे बेशक़ीमती, होशियार और नेक गधा है। इस जैसा न तो कोई गधा हुआ है और न होगा। खाई पार करते समय अगर यह उछला न होता और जीन पर से आपको फेंक न दिया होता तो आप हमारी ओर देखे बिना ही चुपचाप चले जाते। हमें आपको रोकने की हिम्मत ही न होती । ‘
‘ठीक कहती है यह ।’ बूढ़े ने कहा, ‘हम सब इस गधे के अहसानमंद हैं, जिसकी वजह से हमारे दुख दूर हो गए। समचुच यह गधों का ज़ेवर है। यह गधों के बीच हीरे की तरह चमकता है। ‘
सब लोग गधे की प्रशंसा करने लगे।
दिन डूबने वाला था। साये लंबे होते चले जा रहे थे।
मुल्ला नसरुद्दीन ने उन लोगों से जाने की इजाजत ली।
‘आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने हमारी मुसीबतों को समझा।’ सबने झुककर कहा।
‘कैसे न समझता। आज ही मेरे चार कारखाने छिन गए हैं, जिनमें आठ होशियार कारीगर काम करते थे। मकान छिन गया है, जिसके बीच में फव्वारे थे। पेड़ों से लटकते सोने के पिंजरों में चिड़िया गाती थीं । आपकी मुसीबत भला मैं कैसे न समझता ? ‘ ऐ मुसाफ़िर, शुक्रिया के तौर पर भेंट देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।
। जब मैंने अपना घर छोड़ा था, एक चीज़ अपने साथ लेता आया था। यह है कुरान शरीफ़ । इसे तुम ले लो। खुदा करे इस दुनिया में यह तुम्हें रास्ता दिखाने वाली रोशनी बने।’ बूढ़े ने भावुक स्वर में कहा ।
मुल्ला नसरुद्दीन के लिए धर्मिक किताबें बेकार थीं। लेकिन बूढ़े के दिल को ठेस न पहुँचे, इसलिए उसने किताब ले ली। किताब को उसने जीन से लगे थैले में रखा और गधे पर सवार हो गया।
‘तुम्हारा नाम ? तुम्हारा नाम क्या है?’ कई लोग एक साथ पूछने लगे, ‘अपना नाम तो बताते जाओ। ताकि नमाज पढ़ते वक्त तुम्हारे लिए दुआ माँग सकें।’
आप लोगों को मेरा नाम जानने की कोई ज़रूरत नहीं। सच्ची नेकी के लिए शोहरत की ज़रूरत नहीं होती। रहा दुआ माँगने का सवाल, सो अल्लाह के बहुत से फ़रिश्ते हैं, जो लोगों के नेक कामों की ख़बर उसे देते रहते हैं। अगर फ़रिश्ते आलसी और लापरवाह हुए और नर्म बादलों में सोते रहे, उन्होंने इस दुनिया के पाक और नापाक कामों का हिसाब न रखा तो आपकी इबादत का कोई असर नहीं होगा। ‘
बूढ़ा चौंककर मुल्ला नसरुद्दीन को घूरने लगा।
अलविदा ! ख़ुदा करे तुम अमन-चैन से रहो।’ इस दुआ के साथ मुल्ला नसरुद्दीन सड़क के मोड़ पर पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया।
अंत में बूढ़े ने ख़ामोशी भंग करते हुए गंभीर आवाज़ में कहा, ‘सारी दुनिया में केवल एक ही आदमी ऐसा है, जो यह काम कर सकता है। जिसकी रूह की रोशनी और गर्मी से गरीबों और मजलूमों को राहत मिलती है। और वह इन्सान है हमारा……।’
‘ख़बरदार, जुबान बंद करो,’ दूसरे आदमी ने उसे जल्दी से डाँटा, ‘क्या तुम भूल गए हो कि दीवारों के भी कान होते हैं? पत्थरों के भी आँखें होती हैं? और सैकड़ों कुत्ते सूँघते – सूँघते उसे तलाश कर सकते हैं। ‘
‘तुम सच कहते हो,’ तीसरे आदमी ने कहा, ‘हमें अपना मुँह बंद रखना चाहिए। ऐसा वक्त है जब कि वह तलवार की धार पर चल रहा है। ज़रा सा भी धक्का उसके लिए ख़तरनाक बन सकता है।’
बीमार बच्चे की माँ बोली, ‘भले ही लोग मेरी जुबान खींच लें लेकिन मैं उसका नाम नहीं लूँगी। ‘
‘मैं भी चुप रहूँगी।’ दूसरी औरत ने कहा, ‘मैं भले ही मर जाऊँ लेकिन ऐसी गलती नहीं करूँगी, जो उसके गले का फंदा बन जाए। ‘
संगतराश चुप रहा। उसकी अकल कुछ मोटी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यदि वह मुसाफ़िर कसाई या गोश्त बेचने वाला नहीं है तो कुत्ते उसे सूँघकर कैसे तलाश कर लेंगे? अगर वह रस्से पर चलने वाला नट है तो उसका नाम लेने में क्या हर्ज है? उसने ज़ोर से नथुने फटकारे, गहरी साँस भरी और निश्चय किया कि इस मामले में वह और ज़्यादा नहीं सोचेगा। वरना वह पागल हो जाएगा।
इस बीच मुल्ला नसरुद्दीन काफ़ी दूर जा चुका था। लेकिन उसकी आँखों के आगे अब भी उन ग़रीबों के मुरझाए चेहरे नाच रहे थे। बीमार बच्चे की ओर उसके सूखे होठों तथा तमतमाए गालों की उसे बराबर याद आ रही थी। उसकी आँखों के आगे उस सफ़ेद बालों वाले बूढ़े की तस्वीर नाच रही थी, जिसे उसके घर से निकाल दिया गया था।
वह क्रोध से भर उठा और गधे पर अधिक देर तक बैठा न रह सका । कूदकर नीचे आ गया
और गधे के साथ-साथ चलते हुए ठोकरों से रास्ते के पत्थरों को हटाने लगा।
‘सूदखोरों के सरदार ठहर जा, मैं तुझे देख लूँगा ।’ वह बड़बड़ा रहा था। उसकी आँखों में शैतानी चमक थी। ‘एक न एक दिन तेरी मेरी मुलाक़ात ज़रूर होगी, तब तेरी शामत आएगी। अमीर, तू काँप और थर्रा, क्योंकि मैं मुल्ला नसरुद्दीन बुखारा में आ पहुँचा हूँ । मक्कार और शैतान जोको, तुमने दुखी जनता का खून चूसा है। लालची लकड़बग्घो, घिनौने गीदड़ो, तुम्हारी दाल हमेशा नहीं गलेगी। सूदखोर जाफ़र, तेरे नाम पर लानत बरसे। मैं तुझसे उन तमाम दुखों और मुसीबतों का हिसाब ज़रूर चुकाऊँगा, जो तू ग़रीबों पर लादता रहा है।’
