ek school moron vaala Motivational story
ek school moron vaala Motivational story

तान्या कंधे पर बस्ता टाँगे मम्मी के साथ स्कूल जा रही थी। अभी वे स्कूल के पिछवाड़े वाली दीवार के पास ही पहुँचे थे कि एकाएक मोर की प्रसन्न आवाज सुनाई दी, ‘केऊँ- केऊँ!’ और उसके बाद तो बार-बार हवा को गुँजाने लगी यह टेर, ‘केऊँ- केऊँ…केऊँ-केऊँ… केऊँ- केऊँ….केऊँ…!!’ तान्या अचानक चौंकी। बोली, “मम्मी-मम्मी, मोर…!” फिर जैसे अपनी बेकाबू हो चुकी उत्सुकता से उसने पूछा, “मम्मी-मम्मी, यह मोर की ही आवाज है न!” “हाँ बेटी!” मम्मी ने मुसकराते हुए कहा।

तब तक फिर ‘केऊँ- केऊँ’ का मीठा – सुरीला संगीत शुरू हो गया था। अब तान्या को समझ में आ गया कि मोर एक नहीं, कई हैं। “तो मम्मी, ये मोर हमारे में क्यों आए स्कूल हैं?” तान्या ने जानना चाह्रा। “ये भी तो पढ़ेंगे, जैसे तुम पढ़ती हो।” कहते-कहते मम्मी को हँसी आ गई। “हैं मम्मी? सच्ची!” अब तो मारे अचरज के तान्या की आँखें निकली पड़ रही थीं। “और क्या? मोर भी तो पढ़ सकते हैं।

मोर भला क्यों नहीं पढ़ सकते? वो कोई बुद्ध थोड़े ही ना होते हैं।” मम्मी ने कहा तो तान्या के भीतर पूरी फिल्म चल पड़ी। डिस्कवरी चैनल की तरह। यह कल्पना वाकई कितनी मजेदार थी कि जिस क्लास में वह पढ़े, उसी में बगल की चेयर पर कोई मोर भी किताब खोलकर बैठा, ध्यान से मैडम का लेक्चर सुनता हुआ लैसन पढ़ रहा हो। उसे सच्ची – मुच्ची अपने क्लासरूम में आगे की सीट पर बैठे मोर नजर आ गए। उनके पास तान्या की तरह ही स्कूल बैग था, बुक्स, कॉपियाँ, पेंसिल और कलर बॉक्स भी। तान्या सोचने लगी, “फिर तो मैं स्कूल जाते ही सबसे पहले उन्हें हैलो किया करूँगी।” “पर मम्मी, मैडम इन्हें मारेंगी तो नहीं?” अब तान्या को दूसरी चिंता सताने लगी। “तान्या बेटी, भला मोरों को कोई मारता है? वे तो इतने प्यारे होते हैं। मैडम जरूर उन्हें प्यार से पढ़ाएँगी।” “तो मम्मी, मोर पढ़ेंगे कैसे? उन्हें ए- बी-सी-डी बोलना आता है?” तान्या के सवाल खत्म होने में ही नहीं आ रहे थे। “आता नहीं है तो क्या सीख जाएँगे! शुरू-शुरू में तुम्हें भी तो कहाँ आती थी इंगलिश। तुम कितना परेशान होती थीं। पर फिर सीख गईं न!” मम्मी ने समझाया। “वाह मम्मी, फिर तो बड़ा मजा आएगा।” कहकर तान्या तालियाँ बजाकर हँसने लगी। फिर हँसते-हँसते बोली, “मालूम है मम्मी, हमारे स्कूल में लास्ट पीरियड में सारे बच्चे मिलकर पहाड़े याद करते हैं। फिर तो मोर भी हमारे साथ-साथ पहाड़े याद करेंगे! कितना मजा आएगा ना मम्मी।” “हाँ, मगर साथ-साथ क्यों? देखना, मैडम तो ऐसा करेंगी कि एक तरफ तुम सारे के सारे बच्चे बोलेंगे और दूसरी ओर से मोर…!” “वाह मम्मी, फिर तो कमाल हो जाएगा! हम प्रिंसिपल सर से कहेंगे, वे इसकी वीडियो फिल्म बनवा लें।” कहकर तान्या फिर से तालियाँ बजाने लगी। फिर बोली, “ऐसा हो सकता है न मम्मी…?” “हाँ-हाँ बेटी, क्यों नहीं? जरूर हो सकता है।” मम्मी ने भरोसा दिलाया। पर तान्या को शायद अब भी पूरा-पूरा यकीन नहीं था। सोच रही थी, कहीं मम्मी मजाक तो नहीं कर रहीं? थोड़ी देर में तान्या स्कूल पहुँची तो देखा, एक-दो नहीं, पूरे चार मोर एक पेड़ के नीचे खड़े हैं। बच्चे दूर से उन्हें देख रहे थे और खुश हो रहे थे। अभी प्रेयर का टाइम नहीं हुआ था, इसलिए कोई उन्हें टोक नहीं रहा था। पर आरती मैडम ने देखा तो पास आकर कहा, “अरे, यहाँ क्या हो रहा है। चलो सब, अपनी-अपनी क्लास में।” आरती मैडम की बात पूरी होने से पहले ही सारे बच्चे एक साथ चीखे, “मैडम मोर…!” “मैडम तो मोर नहीं हैं, मोर वो रहे सामने।”

कहकर आरती मैडम हँसने लगीं। तब तक रूपा मैडम, मालिनी मैडम, वंदना कौल मैडम, पीटी के देवा सर और कंप्यूटर वाले सक्सेना सर भी आ गए थे। एक साथ चार-चार मोरों को देखकर उन्हें भी बड़ी हैरानी हो रही थी। इतने में स्कूल के पीयून राधेलाल ने पास ही थोड़ा दाना लाकर बिखेर दिया। मोरों को शायद भूख लगी थी। उन्होंने देखा तो झट वहाँ आ गए और मजे में खाने लगे। “लगता है, अब ये रोज आएँगे!” मेघना बोली। “मुझे भी लगता है। जरूर इन्हें हमारा स्कूल पसंद आ गया है। फिर यहाँ ऊँचे-ऊँचे पेड़ भी कितने हैं, खूब हरियाली है।” नंदिनी बोली। “हैं? फिर तो बड़ा मजा आएगा।” तान्या खुश हो गई। सच तो यह है कि आज वह इतनी खुश थी कि खुशी उसके भीतर समा नहीं रही थी। उसे लग रहा था, असल में देख नहीं रही, कोई फिल्म चल रही है उसके सामने। “अच्छा, अब सब लोग चलो अपनी-अपनी क्लास में। इतनी भीड़ देखकर मोर कहीं भाग न जाएँ!” पीटी सर ने चेताया। “हाँ-हाँ, चलो!” बच्चों ने एक-दूसरे से कहा। पर क्लास में जाते हुए भी वे मुड़-मुड़कर मोरों को ही देख रहे थे। और जब वे क्लास में जाकर बैठे, तब भी सबके खयालों में बस मोर ही थे। * और सचमुच जो बच्चों ने सोचा था, वही हुआ। मोर जो उस दिन आए थे, तो रोज आने लगे। और ऐसा पिछले कोई पंद्रह-बीस दिनों से हो रहा था। यह इतनी अजब-निराली चीज थी कि इससे देखते ही देखते पूरे स्कूल का माहौल बदल गया। बच्चे इतने उत्साहित थे कि जैसे उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा खजाना मिल गया हो। प्रिंसिपल आनंद सर बच्चों से बहुत प्यार करते थे। जब बच्चे इतने खुश थे तो वे भला कैसे खुश न होते? उन्होंने राधेलाल से कहा, “देखो, मोरों के लिए दाना डाल दो और ध्यान रखना, कोई इन्हें नुकसान न पहुँचाए।” फिर जैसे कुछ याद आया, उन्होंने कहा, “और हाँ, बच्चों से कहना, भीड़ न लगाएँ। नहीं तो हो सकता है, फिर ये आना बंद कर दें।” इधर बच्चों के उत्साह का भी ठिकाना न था।

यह तो कुछ ऐसा हो गया था, जिसकी उन्होंने सपने में भी कल्पना न की थी। बच्चे घर से दाना लाकर राधेलाल को दे देते, और राधेलाल मोरों के आगे उन्हें डालता तो वे खुशी के मारे किलकारी भरने लगते। फिर एक दिन प्रिंसिपल सर ने प्रेयर में कहा, “यह हमारी खुशकिस्मती है कि जैसे तुम सारे के सारे बच्चों को हमारा स्कूल अच्छा लगता है, वैसे ही मोरों को भी यह स्कूल पसंद है। लगता है, मोर घूमते-घूमते निकल आए होंगे और उन्होंने हमारे स्कूल को इसलिए चुना, क्योंकि उन्हें यहाँ के बच्चे अच्छे लगे। ऐसे प्यारे बच्चे भला उन्हें कहाँ मिलेंगे? अब आप लोग कोई ऐसा काम न करें, जिससे इन्हें दुख हो। कहीं ये ऐसा न सोचें कि हम तो यह समझकर आए थे कि यहाँ के बच्चे अच्छे हैं, पर ये तो बड़े गंदे हैं। तो बताइए आप लोग, कोई बच्चा इन्हें तंग तो नहीं करेगा ना!” “नहीं!” सब बच्चों की एक साथ आवाज गूँजी। अब तो हर दिन प्रेयर में प्रिंसिपल सर मोरों को लेकर कुछ न कुछ जरूर कहते। सुनकर बच्चों को अच्छा लगता। कुछ बच्चे कविता लिखकर लाते और मंच पर जाकर सुनाते। कुछ बच्चों ने चित्र भी बनाए। प्रिंसिपल सर ने एसेंबली में सब बच्चों को वे चित्र दिखाए। हर कोई उन्हें देखकर ‘वाह वाह’ कह उठा। इससे उत्साहित होकर प्रिंसिपल सर ने स्कूल में एक चित्रकला प्रतियोगिता कराई। सब बच्चों ने वहीं बैठकर मोरों के एक से एक सुंदर चित्र बनाए। कुछ बच्चों ने तो मोर और बच्चों की दोस्ती की सुंदर झाँकी ही पेश कर दी। किस्म-किस्म के चित्र, जिनमें हर बच्चे का कुछ अलग अंदाज था। तान्या का बनाया चित्र सबको बहुत पसंद आया। उसने एक मोर को गले में बस्ता टाँगकर स्कूल जाते हुए दिखाया। पर इससे भी अच्छा चित्र एक नन्हे बच्चे कर्ण ने बनाया था। उसमें सारे मोर मिलकर एक उदास बच्चे को खुश करने की कोशिश कर रहे थे। बीच में बच्चा था और आसपास गोला बनाकर नाचते ढेर सारे मोर। उसे देखते ही सब बच्चों ने तालियाँ बजानी शुरू कर दीं। उसी चित्र को पहला इनाम मिला। वाकई स्कूल के हर बच्चे के दिल में मोरों के लिए प्यार था। सब चाहते थे, “काश, मोर रोज हमारे स्कूल में आएँ!” शायद बच्चों के दिल की बात मोरों ने भी समझ ली। उन्हें अच्छा लगा तो उनके साथ-साथ कुछ और मोर भी आने लगे। काफी देर तक वे स्कूल में हरे-भरे पेड़ों के बीच घूमते, फिर उड़कर कहीं चले जाते। अब तो आसपास के लोगों का भी इन पर ध्यान गया। वे कहने लगे, “अरे भई, यह तो मोरों वाला स्कूल है।” यहाँ तक कि धीरे-धीरे स्कूल का नाम ‘मोरों वाला स्कूल’ पड़ गया। मोर अब डरते नहीं थे। प्रिसिपल सर ने उनके लिए मैदान में एक तरफ मिट्टी का एक ऊँचा टीला बनवा दिया था। वहाँ हरी हरी घास और खूब सारे पौधे भी लगवा दिए। मोर वहाँ आकर बैठ जाते और गरदन ऊँची करके पुकारते, ‘केॐ-केऊँ!’ स्कूल में सभी बच्चे मोरों से बहुत प्यार करते थे। पर एक बार अनहोनी हो गई। एक शरारती बच्चे सुनील ने एक मोर को गुलेल मारी। मोर के पैर में पत्थर इतने जोर से लगी कि वह उसी समय जमीन पर बैठ गया। आँखों में दर्द और करुणा। देर तक हवा में मोरों की दुख भरी आवाजें गूँजती रहीं, जो उस मोर के आसपास घिर आए थे। प्रिंसिपल पास ही राउंड ले रहे थे। वे उसी समय दौड़कर आए और घायल मोर को गोद में उठा लिया। बहुत से बच्चे भी वहाँ इकट्ठा हो गए। सबको पता चल गया कि किसी बच्चे ने मोर को गुलेल मारकर घायल कर दिया है। सबका कहना था कि उस बच्चे का पता लगाकर उसे स्कूल से निकाल दिया जाए। जल्दी ही प्रिंसिपल सर को पता चल गया कि यह हरकत सुनील ने की है। अगले दिन एसेंबली में उन्होंने सुनील को स्टेज पर बुलाया। कहा, “देखो सुनील, मोर को बहुत चोट आई है, उसे अभी ठीक होने में हफ्ता भर लगेगा। इस बीच उसकी देखभाल का जिम्मा तुम्हारा होगा।” सुनील की आँखों में आँसू थे। उसे लगा, प्रेयर में जितने भी छात्र हैं, सबकी आँखों में उसके लिए गुस्सा है। घायल मोर के चारों ओर बाकी मोर हर वक्त घेरा बनाकर खड़े रहते, जैसे वे शोकमग्न हों। सुनील घर से मोरों के लिए दाना लेकर आता। उन्हें प्यार से खिलाने की कोशिश करता, पर मोर उसकी ओर देखते भी नहीं थे। वह घायल मोर के जख्मों पर दवा लगाता, उसे बीच-बीच में थोड़ा पानी पिलाता। कुछ दिन बाद घायल मोर उड़ने लायक हुआ, तो उसके साथ-साथ सभी मोर उड़ गए। इसके बाद चार दिनों तक वे मोर नहीं लौटे। स्कूल में जैसे सन्नाटा-सा छा गया। सबका यही कहना था कि मोर नाराज होकर चले गए हैं और अब वे कभी नहीं लौटेंगे। पर पाँचवें दिन मोर फिर दिखाई दिए। इनमें वह मोर भी था, जिसके पैर में गुलेल का पत्थर लगा था। वह अब ठीक था और दूसरे मोरों के साथ पेड़ों के झुरमुट में घूम रहा था। अब सबसे ज्यादा सुनील ही मोरों के आससास दिखाई देता, जैसे मन ही मन उनसे माफी माँग रहा हो। अगले दिन वह दाना लेकर आया और राधेलाल को देकर बोला, “अंकल, मेरे हाथ से तो ये नहीं खाएँगे, आप इन्हें दाना खिला दो।” उसके बाद तो सुनील रोज उनके लिए दाना लेकर आने लगा। फिर एक दिन ऐसा भी आया, जब मोरों ने सुनील के हाथों से दाना लेकर खाना शुरू कर दिया। सुनील इतना खुश था, कि उसका मन हो रहा था, वह खुशी के मारे नाचने लगे। अब तो जब भी उसे समय मिलता, वह मोरों के पास जाकर खड़ा हो जाता। मोर केॐ – केऊँ कहकर उसका स्वागत करते, तो वह प्यार से उन्हें पुचकार देता। सब लोग कहने लगे कि सुनील तो बहुत बदल गया है। एक दिन खुद प्रिंसिपल साहब ने देखा।

उन्होंने पास आकर उसकी पीठ थपथपाई और चले गए। सुनील की आँखों में आँसू छलछला आए। पर वे खुशी के आँसू थे। अगले साल प्रिंसिपल सर ने अखबारों में स्कूल का विज्ञापन निकलवाया- “नन्हे बच्चो के लिए प्यारा मोरों वाला स्कूल! … यह नाम सुनने में कुछ अजीब लग सकता है। पर सच में हमारा स्कूल ऐसा ही है, मोरों वाला स्कूल। जो बच्चे पशु-पक्षियों से प्यार करते हैं और जिन्हें पेड़-पौधों और प्रकृति की हरियाली से प्यार है, हमारा स्कूल उन्हीं के लिए है। हमें उनका इंतजार है।” इस पर बहुत-से नए बच्चों के मम्मी-पापा स्कूल में उनका नाम लिखाने के लिए आए। दूसरे स्कूलों के बच्चे और अध्यापक भी उत्सुकता से भरकर देखने आते थे कि भला कैसा है यह स्कूल। फिर बारिशों में ‘मोर सप्ताह’ मनाया गया। उसमें नृत्य और गायन की प्रतियोगिताओं के साथ-साथ खेलकूद के भी रंग थे। शहर के सब स्कूलों के बच्चों ने इसमें हिस्सा लिया। मोरों को देखकर हर किसी का मन नाच रहा था। “मेरी समझ में नहीं आता, मोर यहीं क्यों आते हैं। हमारे स्कूल में क्यों नहीं आते?” एक गोलू-मोलू बच्चे ने पूछ लिया। इस पर पास ही खड़े प्रिंसिपल सर ने मुसकराकर कहा, “यह तो मैं भी नहीं बता सकता। पर हाँ, इतना जरूर कह सकता हूँ कि यहाँ बच्चे भोले और प्यारे हैं और मोरों को अच्छे प्यारे बच्चों से दोस्ती करना बड़ा अच्छा लगता है। फिर यहाँ पेड़-पौधे और हरियाली भी बहुत है, जो सभी को पसंद है, मोरों को भी!” तब से कई बरस बीत गए। मोर अब भी इस स्कूल में वैसे ही झूम-झूमकर नाचते हैं। अब तो मॉडर्न स्कूल को शहर में सभी ‘मोरों वाला स्कूल’ कहने लगे थे। पेड़ों के झुरमुट के बीच मोरों ने यहाँ अपना स्थायी डेरा बना लिया था। दिल खुश होने पर वे मस्ती से भरकर नाचते। और बारिशों में तो हर रोज ही उनका नाच स्कूल के बच्चों को रोमांचित कर देता। इस पर नन्ही तान्या ने भी एक कहानी लिखी है, जिसका नाम उसने रखा है, ‘एक स्कूल मोरों वाला’। उसने यह कहानी प्रिंसिपल सर को दी, तो पढ़कर उनके चेहरे पर बड़ी मीठी मुसकान आ गई। उन्होंने मुसकराते हुए कहा, “तान्या, तुम्हारी यह कहानी हम सुंदर लिखाई में लिखवाकर वहाँ टाँगेंगे, जहाँ झुरमुट के बीच मोर रहते हैं। ताकि जो भी इन मोरों को पढ़ने आए, वह तुम्हारी कहानी भी पढ़े।” सुनकर तान्या खुश थी। इतनी खुश, इतनी खुश कि मारे खुशी के वह नाचने लगी, बिल्कुल मोरों की तरह।