गुरु नानकदेव अकसर लोगों को प्यार, हमदर्दी और सच्ची ईश्वर-भक्ति का संदेश देते हुए, लंबी-लंबी यात्राएँ किया करते थे। उनके साथ उनके शिष्यों की छोटी सी मंडली भी होती थी। गुरुजी की बातें सुनकर उनके व्यवहार से वे भी बहुत कुछ सीखते थे।
एक बार की बात, गुरु नानकदेव घूमते-घूमते एक गाँव में पहुँचे। साथ में उनके शिष्यों की मंडली भी थी। उस गाँव के लोगों ने बड़े प्यार से गुरु नानक और उनकी शिष्य-मंडली का स्वागत-सत्कार किया। गाँव वालों का बातचीत करने का ढंग और व्यवहार भी बहुत सरल था।
गुरु नानकदेव भी बड़े प्रेम से गाँव वालों से बातें करते रहे। जब चलने लगे तो उन्होंने गाँव वालों से कहा, ”उजड़ जाओ!”
गुरु नानक के साथ जो शिष्य थे, उन्हें गुरु जी की बात बिल्कुल समझ में नहीं आई। वे गुरु जी से पूछना चाहते थे, पर झिझक के मारे चुप रहे।
फिर गुरु नानक चलते-चलते एक और गाँव में पहुँचे। पर यह गाँव पहले वाले गाँव से एकदम उलट था। लोग असभ्य थे। आपस में लडऩे-झगड़ने और तू-तड़ाक करने वाले। उन्होंने गुरु नानकदेव और उनके शिष्यों का भी ठीक से सत्कार नहीं किया। पर फिर भी गुरु नानकदेव ने उन्हें आशीर्वाद दिया, ”बस जाओ!”
अब तो गुरु नानक के साथ जो शिष्य थे, उनके लिए अपनी उधेड़बुन पर काबू पाना मुश्किल हो गया।
एक शिष्य ने पूछ ही लिया, ”गुरु जी, आपकी बात हमें समझ में नहीं आई।”
”कौन सी बात?” गुरु नानकदेव ने पूछा।
”गुरु जी, हमें यह समझ में नहीं आया कि जो लोग सभ्य और शालीन थे, उन्हें तो आपने कहा, उजड़ जाओ। जो झगड़ालू और बुरे थे, उनसे कहा, बस जाओ। यह तो उलटी बात हुई।”
इस पर गुरु नानक मन ही मन मुसकराए। बोले, ”मैंने अच्छे लोगों को उजड़ जाने के लिए कहा, ताकि वे दूर-दूर जाकर सभी में अपनी अच्छी बातों की सुगंध फैलाएँ। जो बुरे और झगड़ालू थे, उन्हें बस जाने के लिए इसलिए कहा, ताकि उनकी असभ्यता उस गाँव तक ही रहे। दूसरे लोगों तक उनकी बुराई न पहुँचे। बात का मर्म समझोगे तो पता चलेगा, मैंने उलटी नहीं, सीधी बात कही थी।”
सुनते ही गुरु नानक के शिष्यों के चेहरे खिल उठे। उन्हें गुरु जी की बात का गहरा अर्थ समझ में आ गया था।
