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Manto story in Hindi: चुनी लाल ने स्टाल के साथ अपनी मोटर साइकिल रोकी और बिना गद्दी से उतरे सुबह के ताजा अखबारों की सुर्खियों पर नजर डाली।

मोटर साइकिल रुकते ही स्टाल पर मौजूद दोनों नौकरों ने चुनी लाल ने नमस्कार की। चुनी लाल ने अपने सिर को थोड़ा सा हिला उनकी नमस्कार कुबूल की।

सुर्खियों पर सरसरी नजर डाल कर चुनी लाल ने एक बंधे हुए बंडल की तरफ हाथ बढ़ाया। बंडल हाथ में आते ही अपनी बी एस ए मोटर साइकिल स्टार्ट की और यह जा, वह जा।

चुनी लाल ने चार साल पहले माडर्न न्यूज एजेंसी कायम की थी। लेकिन इन चार वर्षों में वह एक दिन भी स्टाल पर नहीं बैठा था। वह हर रोज सुबह अपनी मोटर साईकिल पर आता। नौकरों की नमस्कार का जवाब सिर को थोड़ा हिलाकर देता। ताजा अखबारों की सुर्खियों पर एक नजर डालता। हाथ बढ़ा कर बंडल लेता और यह जा, वह जा।

चुनी लाल का स्टाल मामूली स्टाल नहीं था। हालांकि अमृतसर में लोगों को अंग्रेजी और अमेरिकी रिसालों और पर्चों में कोई इतनी दिलचस्पी नहीं थी लेकिन माडर्न न्यूज एजेंसी हर अच्छा अंग्रेजी और अमेरिकी रिसाला मंगवाती थी बल्कि यूं कहना चाहिए कि चुनी लाल मंगवाता था। बावजूद इसके कि उसे पढ़ने-वढ़ने का बिल्कुल शौक नहीं था।

वह हर बड़े अखबार का एजेंट था। हर हफ्ते विलायत की डाक से भी माडर्न न्यूज एजेंसी के नाम कई खूबसूरत बंडल और पैकेट आते ही रहते।

चुनी लाल ये पर्चे बेचने के लिए नहीं बल्कि मुफ्त बांटने के लिए मंगवाता था चुनांचे हर रोज सुबह-सवेरे वह इन्हीं पर्चों का बंडल लेने आता था जो उसके नौकरों ने बांध कर रख छोड़े होते थे।

शहर के जितने बड़े अफसर थे वे चुनी लाल के परिचित थे। कुछ का परिचय सिर्फ यहीं तक सीमित था कि हर हफ्ते उनके यहां जो अंग्रेजी और अमेरिकी पर्चे आते हैं, वे शहर की माडर्न न्यूज एजेंसी का मालिक चुनी लाल भेजता है लेकिन बिल कभी नहीं भेजता। कुछ ऐसे भी थे जो उसको बहुत अच्छी तरह जानते थे। मिसाल के तौर पर उनको मालूम था कि चुनी लाल का घर बहुत ही खूबसूरत है। है तो छोटा-सा मगर बहुत ही नफीस तरीके से सजा है। एक नौकर है रामा। बड़ा साफ सुथरा और सौ फीसदी नौकर।

चुनी लाल घर में मौजूद हो या न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके नौकर को मेहमान किस गर्ज से आया है यह उसकी शक्ल देखते ही मालूम हो जाता है। नौकर से सोडे, बर्फ या पानी के लिए कभी किसी मेहमान को कहना नहीं पड़ता। हर चीज खुद-ब-खुद वक्त पर मिल जाती है और फिर तांक-झांक का भी कोई डर कभी नहीं रहता। इस बात का भी कोई खटका नहीं कि बात कहीं बाहर निकल जाएगी। चुनी लाल और उसके नौकर रामा, दोनों के होंठ दरिया का दरिया पीने के बाद भी खुश्क रहने में समर्थ थे।

चुनी लाल का मकान बहुत ही छोटा था। बंबई स्टाइल का। यह चुनी लाल ने खुद बनवाया था। बाप के मरने पर उसे दस हजार रुपये मिल थे। उनमें से पांच हजार रुपये और पुश्तैनी मकान उसने अपनी छोटी बहन रूपा को दे दिए थे। खुद अलग अपने बंबई स्टाइल के मकान में।

शुरू शुरू में मां-बहन ने बहुत कोशिश की कि वह उनके साथ रहे। साथ न रहे तो कम से कम उनसे मिलता ही रहे। मगर चुनी लाल को इन दोनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। दिलचस्पी न होने का यह मतलब कतई नहीं था कि उसे अपनी मां या बहन से नफरत थी। दरअसल उसे शुरू से ही इन दोनों से कोई लगाव नहीं था।

अलबत्ता बाप से जरूर था जो थानेदार था। लेकिन जब वह रिटायर हुआ तो चुनी लाल को उससे भी कोई लगाव न रहा। जब कभी उसे कॉलेज में किसी को यह बताना पड़ता था कि उसके पिता रिटायर्ड पुलिस इंस्पेक्टर हैं तो उसे बहुत कोफ्त होती थी।

चुनी लाल को अच्छी पोशाक और अच्छे खाने का बहुत शौक था। तबीयत में नफासत थी। चुनांचे वे लोग जो उसके मकान में एक बार भी गए, उसके सलीके की तारीफ अब तक करते हैं। एन. डब्ल्यू. आर. की एक नीलामी में उसने रेल के एक डिब्बे की एक सीट खरीदी थी। उसको उसने अपने दिमाग से बहुत ही उम्दा दीवान में बदलवा लिया था। चुनी लाल को वह इस कदर पसंद था कि उसे अपने सोने के कमरे में रखवाया हुआ था।

शराब उसने कभी छुई नहीं थीं लेकिन दूसरों को पिलाने का बहुत शौक था। ऐरे-गैरे को नहीं बल्कि खासुलखास लोगों को, जिनकी सोसायटी में ऊंची पोजीशन हो, जो कोई रुतबा रखते हों। चुनांचे ऐसे लोगों को वह अक्सर दावत देता। दावत किसी होटल या कहवाखाने में नहीं, अपने घर में जो उसने खास अपने लिए बनवाया था।

पीने के बाद डर के मारे कोई घर न जाना चाहे तो सजे-सजाए दो कमरे मौजूद थे, एक छोटा सा हाल भी था, जिसमें कभी-कभी सूअर भी विश्राम करते थे।

अक्सर ऐसा भी हुआ कि चुनी लाल के इस मकान में उसके दोस्त कई-कई दिन और कई-कई रातें अपनी सहेलियों समेत रहे लेकिन उसने किसी को उनके बारे में भनक तक नहीं लगने दी, न उन्हें ही कभी यह एहसास करवाया कि वह सब कुछ जानता है। वैसे जब उसका कोई दोस्त उसकी इन मेहरबानियों का शुक्रिया अदा करता तो चुनी लाल सामान्य रूप से बेतकल्लुफ होकर कहता, “क्या कहते हो यार, मकान तुम्हारा अपना है।”

चुनी लाल का पिता लाला गिरधारी लाल ठीक उसी वक्त रिटायर हुआ जब चुनी लाल थर्ड डिवीजन में एंट्रेंस पास करके कालेज में दाखिल हुआ। जब उसके पिता नौकरी में थे तब तो यह हाल था कि सुबह-शाम घर पर मिलने वालों का तांता बंधा रहता था। डालियों पर डालियों आ रही होती थीं। रिश्वत का बाजार गर्म रहता था। तनख्वाह तो बस सीधी बैंक में जाती थी। लेकिन रिटायर होने पर कुछ ऐसा पासा पलटा कि लाला गिरधारी लाल का नाम जैसे बड़े आदमियों के रजिस्टर से ही कट गया। यूं तो जमा-पूंजी काफी थी लेकिन लाला गिरधारी ने ‘बेकार न रह कुछ किया कर’ वाली सीख पर अमल करते हुए मकानों का सट्टा खेलना शुरू कर दिया। दो वर्षों में ही आधी से ज्यादा जायदाद गंवा दीं। फिर लंबी बीमारी ने आ घेरा। इन तमाम घटनाओं का चुनी लाल के ऊपर अजीबोगरीब असर हुआ। लाला गिरधारी लाल की हालत खस्ता होते जाने के साथ ही साथ चुनी लाल के दिल में अपने पुराने ठाठ और अपनी पुरानी साख कायम रखने की इच्छा बढ़ती गई।

कोई बड़ा आदमी उससे मिल न मिले, यही काफी था कि वह उसके दिए हुए अमेरिकी और अंग्रेजी रिसाले एक नजर देख लेता हैं।

दंगे अभी शुरू नहीं हुए थे बल्कि यूं कहना चाहिए कि बंटवारे की बात भी अभी नहीं चली थी कि चुनी लाल की बहुत पुरानी मुराद पूरी होती नजर आई।

एक बड़े अफसर थे जिससे चुनी लाल की जान-पहचान नहीं हो सकी थी। एक दफा चुनी लाल के मकान पर शहर की सबसे खूबसूरत वेश्या का मुजरा हुआ। कुछ दोस्तों के साथ उस अफसर का शर्मीला बेटा हरबंस भी चला आया। चुनांचे जब चुनी लाल की उस युवक से दोस्ती हो गई तो उसने मान लिया कि एक न एक दिन उसके बाप से भी जान-पहचान हो ही जाएगी। हरबंस, जिसने ऐश की जिंदगी में नया-नया कदम रखा था, बहुत ही अल्हड़ था। चुनी लाल खुद तो शराब नहीं पीता था लेकिन हरबंस का शोक पूरा करने के लिए और उसे शराब पीने के सलीके सिखाने के लिए एक दो बार थोड़ी-बहुत मात्रा में उसे भी पीनी पड़ी।

लड़के को शराब पीनी आ गई तो उसका दिल किसी और चीज को चाहने लगा। चुनी लाल ने वह भी पेश कर दी और कुछ इस अंदाज से कि हरबंस को झेंपने का मौका न दिया।

जब कुछ दिन बीत गए तब चुनी लाल को महसूस हुआ कि हरबंस की ही दोस्ती काफी है। हरबंस के माध्यम से लोगों की सिफारिशें पूरी कराना चुनी लाल के लिए आसान हो गया। वैसे शहर में चुनी लाल के असर और रसूख को हर आदमी मानता था। लेकिन जब से हरबंस से उसकी जान-पहचान हुई थी उसकी धाक और भी ज्यादा बैठ गई थी।

अक्सर लोग कहने लगे थे कि….भई कमाल है। एक मामूली न्यूज एजेंसी का मालिक है लेकिन बड़े-बड़े हाकिमों तक उसकी पहुंच है…कुछ लोग यह समझते थे कि वह खुफिया पुलिस का आदमी है। जितने मुंह, उतनी बातें।

एक को खुश कीजिए तो बहुतों को नाराज करना पड़ता है। चुनांचे जहां चुनी लाल के कुछ एहसानमंद थे वहां दुश्मन भी थे जो इस ताक में रहते थे कि कब मौका मिले और कब वे उससे हिसाब बराबर करें।

दंगें शुरू होते ही चुनी लाल की व्यस्तताएं बढ़ गई। मुसलमानों और हिंदुओं दोनों के लिए उसने काम किया, लेकिन सिर्फ उन्हीं के लिए जिनका सोसायटी में कोई दर्जा था। उसके घर की रौनक भी बढ़ गई। करीब-करीब हर रोज कोई न कोई सिलसिला रहता। सीढ़ियों के नीचे बना स्टोर रूम बियर की खाली बोतलों से भर गया।

हरबंस का अल्हड़पन अब काफी हद तक दूर हो चुका था। लिहाजा अब उसे चुनी लाल की मदद की जरूरत नहीं रह गई थी।

बड़े आदमी का लड़का था। दंगों ने दस्तरखान बिछाकर नित नई चीजें उसके आगे परोस दी थीं। चुनांचे करीब-करीब हर रोज वह चुनी लाल के मकान पर मौजूद होता।

रात के बारह बजे होंगे। चुनी लाल अपने कमरे में रेलगाड़ी की सीट से बनाए हुए दीवान पर बैठा अपनी पिस्तौल को अंगुली में घुमा रहा था कि दरवाजे पर जोर की दस्तक हुई।

चुनी लाल चौंका। बलवाई….नहीं। …रामा….नहीं….वह तो कई दिनों से कर्फ्यू! के कारण काम पर आ ही नहीं पा रहा था।

दरवाजे पर फिर दस्तक हुई और हरबंस की सहमी हुई, डरी हुई आवाज आई। चुनी लाल ने दरवाजा खोला। हरबंस का रंग हल्दी के गोले की तरह जर्द था। होंठ तक पीले थे।

चुनी लाल ने पूछा, ‘क्या हुआ?’

‘वह …वह…’ हरबंस के सूखे हुए गले में आवाज तक अटक गई।

चुनी लाल ने उसको दिलासा दिया, घबराइए मत, बताइए क्या हुआ है?’

हरबंस ने अपने खुश्क होंठों पर जबान फेरी, ‘वह…वह…लहू…बंद हो नहीं होता लहू।’

चुनी लाल ने समझा था कि शायद लड़की मर गई है। चुनांचे यह सुनकर उसे निराशा सी हुई क्योंकि वह लाश को ठिकाने लगाने की पूरी स्कीम अपने होशियार दिमाग में तैयार कर चुका था। ऐसे मौकों पर वह बहुत चौकस हो जाता था। मुस्करा कर उसने हरबंस की तरफ देखा जो कि कांप रहा था।

‘मैं सब कुछ ठीक कर देता हूं। आप घबराइए नहीं।’

यह कहकर उसने उस कमरे का रुख किया जिसमें हरबंस लगभग सात बजे से एक लड़की के साथ जाने क्या करता रहा था। चुनी लाल ने एकदम बहुत सी बातें सोची। डॉक्टर….नहीं बात बाहर निकल जाएगी। एक बहुत बड़े आदमी की इज्जत का सवाल है। और यह सोचते हुए एक अजीबोगरीब सा संतोष उसे महसूस हुआ कि वह एक बहुत बड़े आदमी की आबरू का रक्षक है।

बर्फ…..हां बर्फ ठीक है, रेफ्रिजरेटर मौजूद था, लेकिन चुनीलाल की सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि वह लड़कियों और औरतें के ऐसे मामलों से बिल्कुल बेखबर था। लेकिन उसने सोचा, कुछ भी हो, कोई न कोई उपाय निकालना ही पड़ेगा।

चुनी लाल ने कमरे का दरवाजा खोला और अंदर दाखिल हुआ। सागवान के स्प्रिंग वाले पलंग पर एक लड़की लेटी थी और सफेद चादर खून से लिपटी हुई थी।

चुनी लाल को बहुत घिन आई। लेकिन वह आगे बढ़ा। लड़की ने एक करवट बदली और एक चीख उसके गले से निकली, ‘भैया।’

चुनी लाल ने मिंची हुई आवाज में कहा, ‘रूपा..’ और उसके दिमाग में ऊपर-नीचे सैकड़ों बातों का अंबार लग गया। इनमें सबसे जरूरी बात यही थी कि हरबंस को पता न चले कि रूपा उसकी बहन है। चुनांचे उसने मुंह पर उंगली रखकर रूपा को खामोश रहने का इशारा किया और बाहर निकल कर मामले पर गौर करने के लिए दरवाजे की तरफ बढ़ा।

दहलीज में हरबंस खड़ा था और उसका रंग पहले से भी ज्यादा जर्द था। होंठ बिल्कुल बेजान हो गए थे। आंखों में दहशत थी। चुनी लाल को रूबरू देख कर वह पीछे हट गया।

चुनी लाल ने दरवाजा भेड़ दिया। हरबंस की टांगे कांपने लगीं।

चुनी लाल खामोश था। उसके चेहरे का कोई खत बिगड़ा हुआ नहीं था। असल में वह सारे मामले पर गौर कर रहा था। इतने गहरे मन से गौर कर था कि वह हरबंस की मौजूदगी से भी गाफिल था। मगर हरबंस को चुनी लाल की असाधारण खामोशी में अपनी मौत दिखाई दे रही थी।

चुनीलाल अपने कमरे की तरफ बढ़ा तो हरबंस जोर से चीख और दौड़ कर चुनीलाल को एक धक्का देकर खुद उसमें दाखिल हो गया। बहुत ही जोर से कांपते हुए हाथों से रेलगाड़ी की सीट पर से पिस्तौल उठाया और बाहर निकल कर चुनी लाल की तरफ तान दी।

चुनी लाल फिर भी कुछ न बोला। वह अभी तक मामला सुलझाने में डूबा हुआ था। सवाल एक बहुत बड़े आदमी की इज्जत का था।

पिस्तौल हरबंस के हाथ में कंपकंपाने लगा। वह चाहता था कि जल्दी फैसला हो जाए लेकिन वह अपनी पोजीशन साफ करना चाहता था। चुनी लाल और हरबंस दोनों कुछ देर खामोश रहे। लेकिन हरबंस ज्यादा देर तक चुप न रह सका। उसके दिलोदिमाग में बड़ी हलचल मची हुई थी।

चुनांचे एकदम उसने बोलना शुरू किया, ‘मैं.. मैं….मुझे कुछ मालूम नहीं….मुझे बिल्कुल मालूम नहीं था कि यह…कि यह तुम्हारी बहन है…यह सारी शरारत उस मुसलमान की है…उस मुसलमान सब इंस्पेक्टर की….क्या नाम है उसका…क्या नाम है उसका…मुहम्मद तुफैल…..नहीं नहीं….बशीर अहमद…..नहीं-नहीं। बशीर अहमद….नहीं-नहीं मुहम्मद तुफैल….वही…वही मुहम्मद तुफैल जिसकी तरक्की तुमने रुकवाई थी….उसने मुझे यह लड़की लाकर दी…और कहा कि मुसलमान है…मुझे मालूम होता तुम्हारी बहन है तो क्या मैं उसे यहां लेकर आता…तुम….तुम बोलते क्यों नहीं…तुम बोलते क्यों नहीं? तुम मुझसे बदला लेना चाहते हो….लेकिन मैं कहता हूं मुझे कुछ मालूम नहीं…मुझे कुछ मालूम नहीं था…मुझे कुछ मालूम नहीं था।’

चुनी लाल ने आहिस्ता से कहा, ‘घबराइए नहीं….आपके पिता जी की इज्जत का सवाल हैं।’

लेकिन हरबंस चीख-चिल्ला रहा था। उसने कुछ नहीं सुना और कांपते हुए हाथों से पिस्तौल दाग दिया।

तीसरे दिन कर्फ्यू आर्डर हटने पर चुनी लाल के दोनों नौकरों ने माडर्न न्यूज एजेंसी का स्टाल खोला। ताजा अखबार अपनी-अपनी जगह पर रखे। चुनी लाल के लिए अखबारों और रिसालों का एक बंडल बांध कर अलग रख दिया, मगर वह नहीं आया।

कई राह चलते आदमियों ने ताजा अखबारों की सुर्खियों पर नजर डालते हुए यह जानकारी पाई कि माडर्न न्यूज एजेंसी के मालिक चुनी लाल ने अपनी सगी बहन के साथ मुंह काला किया और बाद में गोली मार कर आत्महत्या कर ली।