Trishanku by Mannu Bhandari
Trishanku by Mannu Bhandari


पर इन लड़कों के इस हल्ले-गुल्लेवाले व्यवहार ने मोहल्लेवालों की नींद ज़रूर हराम कर दी। हमारा मोहल्ला यानी हाथरस-खुरजा के लालाओं की बस्ती, जिनके घरों में किशोरी लड़कियाँ थीं वे बाँहें चढ़ा-चढ़ाकर दाँत और लात तोड़ने की धमकियाँ दे रहे थे, क्योंकि सबको अपनी लड़कियों का भविष्य खतरे में जो दिखाई दे रहा था। मोहल्ले में इतनी सरगर्मी और मेरे मम्मी-पापा को कुछ पता ही नहीं। बात असल में यह है कि इन लोगों ने अपनी स्थिति एक द्वीप जैसी बना रखी है। सबके बीच रहकर भी सबसे अलग।
एक दिन मैंने मम्मी से कहा, ‘मम्मी, ये जो सामने लड़के आए हैं, जब देखो मुझ पर रिमार्क पास करते हैं। मैं चुपचाप नहीं सुनूँगी, मैं भी यहाँ से जवाब दूंगी।’
‘कौन लड़के?’ मम्मी ने आश्चर्य से पूछा।कमाल है, मम्मी को कुछ पता ही नहीं। मैंने कुछ खीज और कुछ पलक के मिले-जुले स्वर में सारी बात बताई। पर मम्मी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई।‘बताना कौन हैं ये लड़के…’ बड़े ठंडे लहजे में उन्होंने कहा और फिर पढ़ने लगीं। अपना छेड़ा जाना मुझे जितना सनसनीखेज लग रहा था, उस पर माँ की ऐसी उदासीनता मुझे अच्छी नहीं लगी। कोई और माँ होती तो फेंटा कसकर निकल जाती और उनकी सात पुश्तों को तार देती। पर माँ पर जैसे कोई असर ही नहीं।
दोहपर ढले लड़कों की मजलिस छत पर जमी तो मैंने मम्मी को बताया :‘देखो, ये लड़के हैं, जो सारे समय इधर देखते रहते हैं और मैं कुछ भी करूँ उस पर फब्तियाँ कसते हैं।’ पता नहीं मेरे कहने में ऐसा क्या था कि माँ एकटक मेरी ओर देखती रहीं, फिर धीरे से मुस्कराईं। थोड़ी देर तक छतवाले लड़कों का मुआयना करने के बाद बोलीं :

‘कॉलेज के लड़के मालूम होते हैं, पर ये तो एकदम बच्चे हैं!’

मन हुआ, कहूँ कि मुझे बच्चे नहीं तो क्या बूढ़े छेड़ेंगे? पर तभी मम्मी बोलीं, ‘कल शाम को इन लोगों को चाय पर बुला लेते हैं और तुमसे दोस्ती करवा देते हैं।’मैं तो अवाक्!‘तुम इन्हें चाय पर बुलाओगी?’ मुझे जैसे मम्मी की बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।‘हाँ, क्यों, क्या हुआ? अरे, यह तो हमारे ज़माने में होता था कि मिल तो सकते नहीं, बस, दूर से ही फब्तियाँ कस-कसकर तसल्ली करो। अब तो ज़माना बदल गया।’मैं तो इस विचार मात्र से ही पलकित। लगा, माँ सचमुच कोई ऊँची चीज़ हैं। ये लोग हमारे घर आएँगे और मुझसे दोस्ती करेंगे। एकाएक मुझे लगने लगा कि मैं बहुत अकेली हूँ और मुझे किसी की दोस्ती की सख्त आवश्यकता है। इस मोहल्ले में मेरा किसी से विशेष मेल-जोल नहीं और घर में केवल मम्मी-पापा के दोस्त ही आते हैं।
दूसरा दिन मेरा बहुत ही संशय में बीता। पता नहीं मम्मी अपनी बात पूरी भी करती हैं या यों ही रौ में कह गईं और बात खतम! शाम को मैंने याद दिलाने के लिए ही कहा :
‘मम्मी, तुम सचमुच ही उन लड़कों को बुलाने जाओगी?’ शब्द मेरे यही थे, वरना भाव तो था कि मम्मी जाओ न-प्लीज!और मम्मी सचमुच ही चली गईं। मुझे याद नहीं, मम्मी दो-चार बार से अधिक मोहल्ले में किसी के घर गई हों। मैं साँस लेकर उसके लौटने की प्रतीक्षा करती रही। एक विचित्र-सी थिरकन मैं अंग-प्रत्यंग में महसूस कर रही थी। कहीं मम्मी उन्हें साथ ही लेती आईं तो? कहीं वे मम्मी से बदतमीजी से पेश आए तो? पर नहीं, वे ऐसे लगते तो नहीं हैं। कोई घंटे भर बाद मम्मी लौटीं। बेहद प्रसन्न!

‘मुझे देखते ही उनकी तो सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई। उन्हें लगा, अभी तक तो लोग अपने-अपने घरों से ही उसके लात-दाँत तोड़ने की धमकी दे रहे थे, मैं जैसे सीधे घर ही पहुँच गई उनकी हड्डी-पसली एक करने। पर फिर तो इतनी खातिर की बेचारों ने कि बस! बड़े ही स्वीट बच्चे हैं। बाहर से आए हैं-हॉस्टल में जगह नहीं मिली इसलिए कमरा लेकर रह रहे हैं। शाम को जब पापा आएँगे, तब बुलवा लेंगे!’
प्रतीक्षा में समय इतना बोझिल हो जाता है, यह भी मेरा पहला अनुभव था। पापा आए तो मम्मी ने बड़े उमगकर सारी बात बताई। सबसे कुछ अलग करने का संतोष और गर्व उसके हर शब्द में जैसे छलका पड़ रहा था। पापा ही कौन पीछे रहनेवाले थे। उन्होंने सुना तो वे भी प्रसन्न।

‘बुलाओ लड़कों को! अरे खेलने-खाने दो और मस्ती करने दो बच्चों को।’ मम्मी-पापा को अपनी आधुनिकता तुष्ट करने का एक ज़ोरदार अवसर मिल रहा था। नौकर को भेजकर उन्हें बुलवाया गया तो अगले ही क्षण सब हाज़िर! मम्मी ने बड़े कायदे से परिचय करवाया और ‘हलो–हाई का आदान-प्रदान हुआ।‘तनु बेटे, अपने दोस्तों के लिए चाय बनाओ!’धत्तेरे की! मम्मी के दोस्त आएँ तब भी तनु बेटा चाय बनाए और उसके दोस्त आएँ तब भी! पर मन मारकर उठी।चाय-पानी होता रहा। खूब हँसी-मज़ाक भी चला। वे सफाई पेश करते रहे कि मोहल्लेवाले झूठ-मूठ ही उनके पीछे पड़े रहते हैं…वे तो ऐसा कुछ भी नहीं करते। ‘जस्ट फार फन’ कुछ कर दिया वरना इस सबका कोई मतलब नहीं।पापा ने बढ़ावा देते हुए कहा, ‘अरे, इस उमर में तो यह सब करना ही चाहिए। हमें मौका मिले तो आज भी करने से बाज न आएँ।’हँसी की एक लहर यहाँ से वहाँ तक दौड़ गई। कोई दो घंटे बाद वे चलने लगे तो मम्मी ने कहा, ‘देखो, इसे अपना ही घर समझो। जब इच्छा हो, चले आया करो। हमारी तनु बिटिया को अच्छी कंपनी मिल जाएगी… कभी तुम लोगों से कुछ पढ़ भी लिया करेगी और देखो, कुछ खाने-पीने का मन हुआ करे तो बता दिया करना, तुम्हारे लिए बनवा दिया करूँगी…’ और वे लोग पापा के खुलेपन और मम्मी की आत्मीयता और स्नेह पर मुग्ध होते हुए चले गए। बस, जिससे दोस्ती करवाने के लिए उन्हें बुलाया गया था, वह बेचारी इस तमाशे की मात्र दर्शक-भर ही बनी रही।

उसके जाने के बाद बड़ी देर तक उनको लेकर ही चर्चा होती रही। अपने घर की किशोरी लड़की को छेड़नेवाले लड़कों को घर बुलाकर चाय पिलाई जाए और लड़की से दोस्ती करवाई जाए, यह सारी बात ही बड़ी थ्रिलिंग और रोमांचक लग रही थी। दूसरे दिन से मम्मी हर आनेवाले से इस घटना का उल्लेख करतीं। वर्णन करने में पटु मम्मी नीरस से नीरस बात को भी ऐसा दिलचस्प बना देती हैं, फिर यह तो बात ही बड़ी दिलचस्प थी। जो सुनता वही कहता-वाह, यह हुई न कुछ बात! आपका बड़ा स्वस्थ दृष्टिकोण है चीज़ों के प्रति, वरना लोग बातें तो बड़ी-बड़ी करेंगे पर बच्चों को घोटकर रखेंगे और ज़रा-सा शक-सुबह हो जाए तो बाकायदा जासूसी करेंगे। और मम्मी इस प्रशंसा से निहाल होती हुई कहती- और नहीं तो क्या! मुक्त रहो और बच्चों को मुक्त रखो। हम लोगों को बचपन में ‘यह मत करो…यहाँ मत जाओ’ कह-कहकर कितना बाँधा गया था! हमारे बच्चे तो कम-से-कम इस घुटन के शिकार न हों!’पर मम्मी का बच्चा उस समय एक दूसरी ही घुटन का शिकार हो रहा था और वह यह कि जिस नाटक की हीरोइन उसे बनना था, उसकी हीरोइन मम्मी बन बैठीं।
खैर, इस सारी घटना का परिणाम यह हुआ कि उन लड़कों का व्यवहार एकदम ही बदल गया। जिस शराफ़त को मम्मी ने उन पर लाद दिया, उसके अनुरूप व्यवहार करना उनकी मजबूरी बन गया। अब जब भी वे अपनी छत पर मम्मी-पापा को देखते तो अदब में लपेटकर एक नमस्कार और मुझे देखते तो मुस्कान में लपेटकर एक ‘हाՏइ’ उछाल देते। फब्तियों की जगह बाकायदा हमारा वार्तालाप शुरू हो गया…बड़ा खुला और बेझिझक वार्तालाप। हमारे बरामदे और छत में इतना ही फ़ासला था कि ज़ोर से बोलने पर बातचीत की जा सकती थी। हाँ, यह बात ज़रूर थी कि हमारी बातचीत सारा मोहल्ला सुनता था और काफी दिलचस्पी से सुनता था। जैसे ही हम लोग चालू होते, पास-पड़ोस की खिड़कियों में चार-छह सिर और धड़ आकर चिपक जाते। मोहल्ले में लड़कियों के प्रेम- प्रसंग न हों, ऐसी बात तो थी नहीं, बाकायदा लड़कियों के भागने तक की घटनाएँ घट चुकी थीं; पर वह सब-कुछ बड़े गुप्त और छिपे ढंग से होता था। और मोहल्लेवाले जब अपनी पैनी नज़रों से ऐसे किसी रहस्य को जान लेते थे तो बड़ा संतोष उन्हें होता था। पुरुष मूंछों पर ताव देकर और स्त्रियाँ हाथ नचा-नचाकर, खूब नमक-मिर्च लगाकर इन घटनाओं का यहाँ से वहाँ तक प्रचार करतीं। कुछ इस भाव से कि अरे, हमने दुनिया देखी है…हमारी आँखों में कोई नहीं धूल झोंक सकता है। पर यहाँ स्थिति ही उलट गई थी। हमारा वार्तालाप इतने खुलेआम होता था कि लोगों को खिड़कियों की ओट में छिप-छिपकर देखना-सुनना पड़ता था और सुनकर भी ऐसा कुछ उसके हाथ नहीं लगता था, जिससे वे कुछ आत्मिक संतोष पाते।
पर बात को बढ़ना था और बात बढ़ी। हुआ यह कि धीरे-धीरे छत की मजलिस मेरे अपने कमरे में जमने लगी। रोज़ ही कभी दो, तो कभी तीन या चार लड़के आकर जम जाते और दुनिया भर के हँसी-मज़ाकों और गपशप का दौर चलता। गाना-बजाना भी होता और चाय-पानी भी। शाम को मम्मी-पापा के मित्र आते तो इन लोगों में से कोई न कोई बैठा ही होता। शुरू में जिन लोगों ने ‘मुक्त रहो और मुक्त रखो’ की बड़ी प्रशंसा की थी, उन्होंने मुक्त रहने का जो रूप देखा तो उनकी आँखों में भी कुछ अजीब-सी शंकाएँ तैरने लगीं। मम्मी की एकाध मित्र ने दबी ज़बान में कहा भी ‘तनु तो बड़ी फास्ट चल रही है।’ मम्मी का अपना सारा उत्साह मंद पड़ गया था और लीक से हटकर कुछ करने की थ्रिल पूरी तरह झड़ चुकी थी। अब तो उन्हें इस नंगी सच्चाई को झेलना था कि उनकी निहायत ही कच्ची और नाजुक उम्र की लड़की तीन-चार लड़कों के बीच घिरी रहती है। और ममी की स्थिति यह थी कि वे न इस स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर पा रही थीं और न अपने ही द्वारा बड़े जोश में शुरू किए इस सिलसिले को नकार ही पा रही थीं। आखिर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बिठाकर कहा, ‘तनु बेटे, ये लोग रोज़-रोज़ यहाँ आकर जम जाते हैं। आखिर तुझको पढ़ना-लिखना भी तो है। मैं तो देख रही हूँ कि इस दोस्ती के चक्कर में तेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट हुई जा रही है। इस तरह तो यह सब चलेगा नहीं।’

‘रात को पढ़ती तो हूँ।’ लापरवाही से मैंने कहा।

‘खाक पढ़ती है रात को, समय ही कितना मिलता है? और फिर यह रोज़-रोज़ की धमा-चौकड़ी मुझे वैसे भी पसंद नहीं। ठीक है, चार-छह दिन में कभी आ गए, गप-शप कर ली, पर यहाँ तो एक न एक रोज़ ही डटा रहता है।’ ममी के स्वर में आक्रोश का पुट गहराता जा रहा था।ममी की यह टोन मुझे अच्छी नहीं लगी, पर मैं चुप।‘तू तो उनमें बहुत खुल गई है, कह दे कि वे लोग भी बैठकर पढ़ें और तुझे भी पढ़ने दें और तुझसे न कहा जाए तो मैं कह दूँगी।’

पर किसी के भी कहने की नौबत नहीं आई। कुछ तो पढ़ाई की मार से, कुछ दिल्ली के दूसरे आकर्षणों से खिंचकर हॉस्टलवाले लड़कों का आना कम हो गया। पर सामने के कमरे से शेखर रोज़ ही आ जाता… कभी दोपहर में, तो कभी शाम को! तीन-चार लोगों की उपस्थिति में उसकी जिस बात पर मैंने ध्यान नहीं दिया, वही बात अकेले में सबसे अधिक उजागर होकर आई। वह बोलता कम था, पर शब्दों के परे बहुत कुछ कहने की कोशिश करता था। और एकाएक मैं उसकी अनकही भाषा समझने लगी थी… केवल समझने ही नहीं लगी थी, प्रत्युत्तर भी देने लगी थी। जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि शेखर और मेरे बीच प्रेम जैसी कोई चीज़ पनपने लगी है। यों तो शायद मैं समझ ही नहीं पाती पर हिंदी-फ़िल्में देखने के बाद इसको समझने में खास मुश्किल नहीं हुई।जब तक मन में कहीं कुछ नहीं था, सब-कुछ बड़ा खुला था, पर जैसे ही ‘कुछ’ हुआ तो उसे औरों की नजर से बचाने की इच्छा भी साथ ही आई। जब कभी दूसरे लड़के आते तो सीढ़ियों से ही शोर करते आते… ज़ोर-ज़ोर से बोलते। लेकिन शेखर जब भी आता, रेंगता हुआ आता और फुसफुसाकर हम बातें करते। वैसे बातें बहुत ही साधारण होती थीं… स्कूल की, कॉलेज की। पर फुसफुसाकर करने में ही वे कुछ विशेष लगती थीं। प्रेम को कुछ रहस्यमय, कुछ गुपचुप बना दो तो वह बड़ा थ्रिलिंग हो जाता है वरना तो एकदम सीधा-सपाट! पर ममी के पास घर और घरवालों के हर रहस्य को जान लेने की एक छठी इंद्री है, जिससे पापा भी काफ़ी त्रस्त रहते हैं… उससे उन्हें सब समझने में ज़रा भी देर नहीं लगी। शेखर कितना ही दब-छिपकर आता और ममी घर के किसी भी कोने में होती… फट् से प्रकट हो जातीं या फिर वहीं से पूछती-तनु, कौन है तुम्हारे कमरे में?’

मैंने देखा शेखर के इस रवैये से ममी के चेहरे पर अजीब-सी परेशानी झलकने लगी है। पर ममी इस बात को लेकर यों परेशान हो उठेगी, यह तो मैं सोच भी नहीं सकती थी। जिस घर में रात-दिन तरह-तरह के प्रेम-प्रसंग ही पीसे जाते रहे हों-कुँआरों के प्रेम-प्रसंग, विवाहितों के प्रेम-प्रसंग, दो-तीन प्रेमियों से एकसाथ चलने वाले प्रेम-प्रसंग-उस घर के लिए तो यह बात बहुत ही मामूली होनी चाहिए। जब लड़कों से दोस्ती की है तो एकाध से प्रेम भी हो ही सकता है। ममी ने शायद समझ लिया था कि यह सारी स्थिति आजकल की कलात्मक फिल्मों की तरह चलेगी-जिनकी वे बड़ी प्रशंसक और समर्थक हैं-पर जिनमें शुरू से लेकर आखिर तक कुछ भी सनसनीखेज घटता ही नहीं।जो भी हो, ममी की इस परेशानी ने मुझे भी कहीं हलके-से विचलित ज़रूर कर दिया। ममी मेरी माँ ही नहीं, मित्र और साथिन भी हैं। दो घनिष्ठ मित्रों की तरह ही हम दुनिया-जहान की बातें करते हैं-हँसी-मज़ाक करते हैं। मैं चाहती थी कि वे इस बारे में भी कोई बात करें, पर उन्होंने कोई बात नहीं की। बस, जब शेखर आता तो वे अपनी स्वभावगत लापरवाही छोड़कर बड़े सजग भाव से मेरे कमरे के इर्द-गिर्द ही मँडराती रहतीं।

एक दिन ममी के साथ बाहर जाने के लिए मैं नीचे उतरी तो दरवाज़े पर ही पड़ोस की एक भद्र महिला टकरा गईं। नमस्कार और कुशलक्षेम के आदान-प्रदान के बाद वे बात के असली मुद्दे पर आईं।
‘ये सामने की छतवाले लड़के आपके रिश्तेदार हैं क्या?’ ‘नहीं तो।’‘अच्छा? शाम को रोज़ ही आपके घर बैठे रहते हैं तो सोचा, आपके ज़रूर कुछ लगते होंगे।’
‘तनु के दोस्त हैं।’ ममी ने कुछ ऐसी लापरवाही और नि:संकोच भाव से यह वाक्य उछाला कि बेचारी तीर निशाने पर न लगने का गम लिए ही लौट गईं।।

वे तो लौट गईं पर मुझे लगा कि इस बात का सूत्र पकड़कर मेरा कुछ बिगाड़ने का हथियार तो ममी के हाथ में आ ही गया। बहुत दिनों से उसके अपने मन में भी कुछ उमड़-उमड़ तो रहा ही है, पर मम्मी ने इतना ही कहा :

‘लगता है, इनके अपने घर में कोई धंधा नहीं है… जब देखो, दूसरे के घर में चोंच गड़ाए बैठे रहते हैं।’

मैं आश्वस्त ही नहीं हुई बल्कि ममी की ओर से इसे हरा सिग्नल समझकर मैंने अपनी रफ़्तार कुछ और तेज़ कर दी। पर इतना ज़रूर किया कि शेखर के साथ तीन घंटों में से एक घंटा ज़रूर पढ़ाई में गुज़ारती। वह बहुत मन लगाकर पढ़ाता और बहुत मन लगाकर पढ़ती। हाँ, बीच-बीच में वह काग़ज़ की छोटी-छोटी पर्चियों पर कुछ ऐसी पक्तियाँ लिखकर थमा देता कि मैं भीतर तक झनझना जाती। उसके जाने के बाद भी उन पंक्तियों के वे शब्द… शब्दों के पीछे के भाव मेरी रग-रग में सनसनाते रहते और मैं उन्हीं में डूबी रहती।
मेरे भीतर अपनी ही एक दुनिया बनती चली जा रही थी-बड़ी भरी-पूरी और रंगीन। आजकल मुझे किसी की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। लगता जैसे मैं अपने में ही पूरी हूँ। हमेशा साथ रहनेवाली ममी भी आउट होती जा रही हैं और शायद यही कारण है कि इधर मैंने ममी पर ध्यान देना ही छोड़ दिया। रोज़मर्रा की बातें तो होती हैं, पर केवल बातें ही होती हैं-उसके परे कहीं कुछ नहीं।
दिन गुज़रते जा रहे थे और मैं अपने में ही डूबी, अपनी दुनिया में और गहरे धँसती जा रही थी-बाहर की दुनिया से एक तरह से बेखबर-सी!एक दिन स्कूल से लौटी, कपड़े बदले। शोर-शराबे के साथ खाना माँगा, मीनमेख के साथ खाया और जब कमरे में घुसी तो ममी ने लेटे-लेटे ही बुलाया :

‘तनु, इधर आओ।’

पास आई तो पहली बार ध्यान गया कि ममी का चेहरा तमतमा रहा है। मेरा माथा ठनका। उन्होंने साइड-टेबल पर से एक किताब उठाई और उसमें से काग़ज़ की पाँच-छ: पर्चियाँ सामने कर दीं। ‘तौबा!’ ममी से कुछ पढ़ना था सो जाते समय उन्हें अपनी किताब दे गई थी। ग़लती से शेखर की लिखी पर्चियाँ उसी में रह गईं।
‘तो इस तरह चल रही है शेखर और तुम्हारी दोस्ती? यही पढ़ाई होती है यहाँ बैठकर… यही सब करने के लिए आता है वह यहाँ?’ मैं चुप! जानती हूँ, गुस्से में ममी को जवाब देने से बढ़कर मूर्खता और कोई नहीं।
‘तुमको छूट दी… आज़ादी दी, पर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम उसका नाजायज फायदा उठाओ!’-मैं फिर भी चुप। ‘बित्ते-भर की लड़की और करतब देखो इनके! जितनी छूट दो उतने ही पैर पसरते जा रहे हैं इनके! झापड़ दूँगी तो सारा रोमांस झड़ जाएगा दो मिनट में…’

इस वाक्य पर मैं एकाएक तिलमिला उठी। तमककर नज़र उठाई और ममी की तरफ देखा पर यह क्या, यह तो मेरी ममी नहीं हैं। न यह तेवर ममी का है, न यह भाषा। फिर भी ये सारे वाक्य बहुत परिचित से लगे। लगा, यह सब मैंने कहीं सुना है और खटाक् से मेरे मन में कौंधा-नाना! पर नाना को मरे तो कितने साल हो गए, ये फिर जिंदा कैसे हो गए? और वह भी ममी के भीतर… जो होश सँभालने के बाद हमेशा उनसे झगड़ा ही करती रही… उनकी हर बात का विरोध ही करती रहीं। ममी का ‘नानई’ लहजेवाला भाषण काफी देर तक चालू रहा, पर वह सब मुझे कहीं से भी छू नहीं रहा था… बस, कोई बात झकझोर रही थी तो यही कि ममी के भीतर नाना कैसे आ बैठे?और फिर घर में एक विचित्र-सा तनावपूर्ण मौन छा गया-खास कर मेरे और ममी के बीच। नहीं, ममी तो घर में रही ही नहीं, मेरे और नाना के बीच। मैं ममी को अपनी बात समझा भी सकती हूँ, उनकी बात समझ भी सकती हूँ-पर नाना? मैं तो इस भाषा से भी अपरिचित हूँ और इस तेवर से भी बात करने का प्रश्न ही कैसे उठता? पापा ज़रूर मेरे दोस्त हैं, पर बिल्कुल दूसरी तरह के। शतरंज खेलना, पंजा लड़ाना और जो फ़रमाइश ममी पूरी न करें, उनसे पूरी करवा लेना। बचपन में उनकी पीठ पर लदी रहती थी और आज भी बिना किसी झिझक के उनकी पीठ पर लदकर अपनी हर इच्छा पूरी करवा लेती हूँ। पर इतने ‘माई डियर दोस्त’ होने के बावजूद अपनी निजी बातें मैं ममी के साथ ही करती आई हूँ। और वहाँ एकदम सन्नाटा-ममी को पटखनी देकर नाना पूरी तरह उन पर सवार जो हैं। शेखर को मैंने इशारे से ही लाल झंडी दिखा दी थी सो वह भी नहीं आ रहा और शाम का समय है कि मुझसे काटे नहीं कटता!

कई बार मन हुआ कि ममी से जाकर बात करूँ और साफ-साफ पूछूँ कि तुम इतना बिगड़ क्यों रही हो? मेरी और शेखर की दोस्ती के बारे में तुम जानती तो हो। मैंने तो कभी कुछ छिपाया नहीं। और दोस्ती है तो यह सब तो होगा ही। तुम क्या समझ रही थीं कि हम भाई-बहन की तरह; पर तभी ख्याल आता कि ममी हैं ही नहीं, जिनसे जाकर यह सब कहूँ।चार दिन हो गए, मैंने शेखर की सूरत नहीं देखी। मेरे हलके से इशारे से ही उस बेचारे ने तो घर क्या, छत पर आना भी छोड़ दिया। हॉस्टल में रहनेवाले उसके साथी भी छत पर न दिखाई दिए, न घर ही आए। कोई आता तो कम-से-कम उसका हालचाल ही पूछ लेती। मैं जानती हूँ वह बेवकूफी की हद तक भावुक है। उसे तो ठीक से यह भी नहीं मालूम कि आख़िर यहाँ हुआ क्या है? लगता है ममी के गुस्से की आशंका मात्र ही सबके हौसले पस्त हो गए थे?वैसे कल से ममी के चेहरे का तनाव कुछ ढीला जरूर हुआ है। तीन दिन से जमी हुई सख्ती जैसे पिघल गई हो। पर मैंने तय कर लिया है कि बात अब ममी ही करेंगी।सवेरे नहा-धोकर मैं दरवाजे के पीछे अपनी यूनिफार्म प्रेस कर रही थी। बाहर मेज़ पर ममी चाय बना रही थीं और पापा अखबार में सिर गड़ाए बैठे थे। ममी को शायद मालूम ही नहीं पड़ा कि मैं कब नहाकर बाहर निकल आई। वे पापा से बोली :

‘जानते हो, कल रात को क्या हुआ? पता नहीं, तबसे मन बहुत ख़राब हो गया, उसके बाद मैं तो सो ही नहीं पाई।’ममी के स्वर की कोमलता से मेरा हाथ जहाँ का तहाँ थम गया और कान बाहर लग गए।‘आधी रात के करीब मैं बाथरूम जाने के लिए उठी। सामने छत पर घुप्प अँधेरा छाया हुआ था। अचानक एक लाल सितारा-सा चमक उठा। मैं चौंकी। गौर से देखा तो धीरे-धीरे एक आकृति उभर आई। शेखर छत पर खड़ा सिगरेट पी रहा था। मैं चुपचाप लौट आई। कोई दो घंटे बाद फिर गई तो देखा, वह उसी तरह छत पर टहल रहा था। बेचारा… मेरा मन जाने कैसा हो आया। तनु भी कैसी बुझी-बुझी रहती है…’ फिर जैसे अपने को ही धिक्कारती-सी बोलीं, ‘पहले तो छूट दो और फिर जब आगे बढ़े तो खींचकर चारों खाने चित कर दो। यह भी कोई बात हुई भला!’राहत का एक गहरा निःश्वास मेरे भीतर से निकल पड़ा। जाने कैसा आवेग मन में उमड़ा कि इच्छा हुई, दौड़कर ममी के गले से लग जाऊँ। लगा, जैसे अरसे के बाद मेरी ममी लौटकर आई हों। पर मैंने कुछ नहीं कहा। बस, अब खुलकर बात करूंगी। चार दिन से न जाने कितने प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे। अब क्या, अब तो ममी हैं, और उनसे तो कम-से-कम सब कहा-पूछा जा सकता है।पर घर पहुँचकर जो देखा तो अवाक्! शेखर हथेलियों में सिर थामे कुर्सी पर बैठा है और ममी उसी कुर्सी के हत्थे उसकी पीठ और माथा सहला रही हैं। मुझे देखते ही बड़े सहज-स्वाभाविक स्वर में बोली :
‘देखा इस पगले को! चार दिन से ये साहब कॉलेज नहीं गए हैं। न ही कुछ खाया-पीया है। अपने साथ इसका भी खाना लगवाना।’

और फिर ममी ने खुद बैठकर बड़े स्नेह से मनुहार कर-करके उसे खाना खिलाया। खाने के बाद कहने पर भी शेखर ठहरा नहीं। ममी के प्रति कृतज्ञता के बोझ से झुका-झुका ही वह लौट गया और मेरे भीतर खुशी का ऐसा ज्वार उमड़ा कि अब तक के सोचे सारे प्रश्न उसी में बिला गए।सारी स्थिति को सम पर आने में समय तो लगा, पर आ गई। शेखर ने भी अब एक-दो दिन छोड़कर आना शुरू किया और आता भी तो अधिकतर हम लिखाई-पढ़ाई की ही बात करते। अपने किए पर शर्मिंदगी प्रकट करते हुए उसने ममी से वायदा किया कि वह अब कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिससे ममी को शिकायत हो। जिस दिन वह नहीं आता, मैं दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर के लिए अपने बरामदे से ही बात कर लिया करती। घर की अनुमति और सहयोग से यों सरेआम चलनेवाले इस प्रेम-प्रसंग में मोहल्लेवालों के लिए भी कुछ नहीं रह गया था और उन्होंने इस जानलेवा ज़माने के नाम पर दो-चार लानतें भेजकर, किसी गुल और खिलने तक के लिए अपनी दिलचस्पी को स्थगित कर दिया। लेकिन एक बात मैंने ज़रूर देखी। जब भी शेखर शाम को कुछ ज़्यादा देर बैठ जाता या दोपहर में भी आता तो ममी के भीतर नाना कसमसाने लगते और उसकी प्रतिक्रिया ममी के चेहरे पर झलकने लगती। ममी भरसक कोशिश करके नाना को बोलने तो नहीं देती, पर उन्हें पूरी तरह हटा देना भी शायद ममी के बस की बात नहीं रह गई थी।

हाँ, यह प्रसंग मेरे और ममी के बीच में अब रोज़मर्रा की बातचीत का विषय ज़रूर बन गया था। कभी वे मज़ाक में कहतीं, ‘यह जो तेरा शेखर है न, बड़ा लिजलिजा-सा लड़का है। अरे, इस उम्र में लड़कों को चाहिए घूमें, फिरें… मस्ती मारें। क्या मुहर्रमी-सी सूरत बनाए मजनूँ की तरह छत पर टॅगा सारे समय इधर ही ताकता रहता है।’मैं केवल हँस देती।कभी बड़ी भावुक होकर कहतीं, ‘तू क्यों नहीं समझती बेटे, कि तुझे लेकर कितनी महत्त्वकांक्षाएँ हैं मेरे मन में! तेरे भविष्य को लेकर कितने सपने सँजो रखे हैं मैंने।’मैं हँसकर कहती, ‘ममी तुम भी कमाल करती हो। अपनी जिंदगी को लेकर भी तुम सपने देखो और मेरी जिंदगी के सपने भी तुम्हीं देख डालो… कुछ सपने मेरे लिए भी छोड़ दो!’कभी वे समझाने के लहजे में कहतीं, ‘देखो तनु, अभी तुम बहुत छोटी हो। अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने में लगाओ और दिमाग से ये उल्टे-सीधे फितूर निकाल डालो। ठीक है, बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढ़नेवाली नहीं हूँ-अपने-आप ही ढूँढ़ना, पर इतनी अक्ल तो आ जाए कि ढंग का चुनाव कर सको।’अपने चुनाव के रिजेक्शन को मैं समझ जाती और पूछती, ‘अच्छा ममी, बताओ, जब तुमने पापा को चुना था तो वह नाना को पसंद था?’‘मेरा चुनाव! अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई खत्म करके पच्चीस साल की उमर में चुनाव किया था मैंने खूब सोचकर समझकर और अक्ल के साथ, समझी!’
ममी अपनी बौखलाहट को गुस्से में छिपाकर कहतीं। उम्र और पढ़ाई-लिखाई-ये दो ही तो ऐसे मुद्दे हैं, जिस पर ममी मुझे जब तब धाँसती रहती हैं। पढ़ने-लिखने में मैं अच्छी थी और रहा उम्र का सवाल, सो उसके लिए मन होता कि कहूँ-‘मम्मी तुम्हारी पीढ़ी जो काम पच्चीस साल की उम्र में करती थी, हमारी उसे पंद्रह साल की उम्र में ही करेगी, इसे तुम क्यों नहीं समझती? पर चुप रह जाती। नाना का ज़िक्र तो चल ही पड़ा है, कहीं वे ही जाग उठे तो?

छमाही परीक्षाएँ पास आ गई थीं और मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ने में लगा दिया था। सबका आना और गाना-बजाना एकदम बंद! इन दिनों मैंने इतनी जमकर पढ़ाई की कि ममी का मन प्रसन्न हो गया। शायद कुछ आश्वस्त भी। आखिरी पेपर देने के पश्चात् लग रहा था कि एक बोझ था, जो हट गया है। मन बेहद हलका होकर कुछ मस्ती मारने को कर रहा था। मैंने ममी से पूछा :

‘ममी, कल शेखर और दीपक पिक्चर जा रहे हैं, मैं भी उसके साथ चली जाऊँ?’ आज तक मैं इन लोगों के साथ कभी घूमने नहीं गई थी-पर इतनी पढ़ाई करने के बाद अब इतनी छूट तो मिलनी ही थी।

ममी एक क्षण मेरा चेहरा देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘इधर आ, यहाँ बैठ! तुझसे कुछ बात करनी है।’