main chup na rahoongi
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

“बाईजी! अब आप मत बोलिए। बोलने दीजिए इन्हें। ये सब एक सरीखे हैं। पूरी उमर हो गई। इन्होंने यही काम तो किया। आपस में लड़े और लड़-लड़कर धन और धरम सब खोया।”

नानकिया बाईजी को समझा रहा था, लेकिन बाईजी नहीं मान रही थीं। बीच-बीच में सुरेश भी बाईजी को कह रहा था- “बाईजी आप मत बोलिए।”

अब बाईजी चुप हो गईं। क्या करें? आखिर बाईजी भी थकीं। वे सब समझतीं। अपना-पराया, सुख-दुख, लेन-देन। परंतु इस घर की फूट-फजीती देख-देखकर उन्हें विचार आता था कि यहां कितना कोहराम मचा रहता है।

जन्म के बाद जब बाईजी की उम्र मात्र छः माह की थी और उनके पिताजी परलोक सिधार गये थे। अभावों के बावजूद उनकी माँ और भाइयों ने उनको बेहद लाड़-प्यार से पाला-पोसा। बहुत ही अरमान के साथ उन्होंने कनाजी के साथ बाईजी का ब्याह कराया। सुरेश उनका बड़ा और नानक्या छोटा बेटा है। शांतिलालजी बाईजी के जेठजी हैं।

कनाजी के काम-काज में बहुत उतार-चढ़ाव आए। उनके मन में पाप नहीं था, लेकिन बोलने में वे ध्यान नहीं रखते थे। किसी को कुछ भी कह देते थे। इससे लोग उनसे नाराज रहते थे। शांतिलालजी कनाजी की इस कमजोरी का फायदा उठाना चाहते थे। लेकिन बाईजी की सजगता की वजह से उनके दाँव निष्फल हो जाते थे। शांतिलालजी विपक्ष के नेता की तरह किसी-न-किसी मुद्दे की तलाश में रहते। वे सीधी-सादी बात को आड़ी-टेढ़ी कर देते तथा बात, बिना बात कलह का वातावरण बना देते थे।

बाईजी जब से ब्याह करके इस घर में आईं, उन्होंने यहां कभी भाई-भाई को प्रेम से रहते नहीं देखा। दोनों भाई ऐसे लड़ाई-झगड़े करते मानो जनम-जनम का वैर हो। पारिवारिक कलह देखकर उनका मन बहुत रोता था।

वैसे बाईजी मौन ही रहा करती थी। लेकिन उस दिन वे उन्हें कुछ समझाना चाहती थीं, लेकिन फिर चुप हो गईं। लेकिन कनाजी और शांतिलालजी का वाक्-युद्ध अभी तक चल रहा था। शांतिलालजी तरह-तरह की गालियाँ भी देते थे। उन्हें कभी अपना छोटा भाई फूटी आँख नहीं सुहाया। छोटे भाई का सहयोग नहीं किया सो ठीक, लेकिन आए दिन उसे कुछ-न-कुछ कहते हुए परेशान करते रहते थे। उनके न तो संतान थी और न ही संतोष!

इस लड़ा-लड़ी में कनाजी को जोरदार गुस्सा आया। गुस्सा आने के बाद उन्हें कोई सुध-बुध नहीं रही। उन्होंने अपने दुबले-पतले छोटे बेटे नानकिया को गुस्से में पकड़कर तीव्र वेग से धक्का दे दिया। नानकिया तीखे-तीखे पत्थरों वाले कच्चे फर्श पर जा गिरा। वह मरता-मरता बचा। शांतिलालजी बोले कि उनके सिर्फ एक बेटी भी यदि होती तो वे किसी की कोई फिक्र नहीं करते। कनाजी अपने बड़े भाई शांतिलालजी से डरते भी थे और जा-जाकर वापस बोलते भी थे।

शांतिलालजी अपने छोटे भाई कनाजी के लिए कहते थे कि कना अच्छा नहीं है। कभी यह कहते कि कना तो भोला है, लेकिन उसकी पत्नी बहुत होशियार है। कनाजी शांतिलालजी के मन के बाँकेपन को नहीं समझ पाते थे। वे बड़े भाई की बातों में आकर अपनी देवी जैसी पत्नी से बिना बात झगड़ा करते और पूरे घर में घमासान मचा देते थे। गुस्से में बरतन फेंक देते। रोटी नहीं खाते। लेकिन बाईजी सबकुछ समभाव से सहन कर लेती थीं। बाईजी सोचती थीं कि किसी को कुछ कहने से कोई सार नहीं है। जो है, उसे निभाना है।

बाईजी बचपन से ही बहुत भद्र और समझदार थीं। अपने काम से काम करती थीं। पीहर में गरीबी भले ही थी, लेकिन खट-पट नहीं था। कम होता तो कम खा लेते, लेकिन तेरी-मेरी और लड़ाई-झगड़े नहीं करते थे। बचपन में माता-पिता और संतों के सान्निध्य से प्राप्त संस्कार जीवन में बहुत काम आ रहे थे। बाईजी ने बचपन में प्राप्त संस्कारों के बीजों को अपने हृदय में बोकर फूलों की खेती की।

बाईजी ने अपनी सासू माँ की भी बहुत मन लगाकर सेवा की। सेवा और प्रेम से उनका मन जीत लिया। कभी-कभी बाईजी बात-बात में अपनी सासू माँ को कहती कि आपने आपके बेटों को अच्छे संस्कार देने में कमी रखी। सासू माँ कहतीं- “क्या करतीं? ये छोरे मानते ही नहीं थे। फिर, नौ संतानों में से ये केवल दो ही जीवित रह पाए। सो लाड़-प्यार भी रहा।” इस प्रकार सास-बहू अपने मन की अनेक बातें करती थीं।

ससुराल में बाईजी का चमत्कारी प्रभाव पूरे कुटुम्ब पर छाने लगा था। बाईजी की विचारपूर्ण बातें, रहन-सहन के तौर-तरीके, मान-मर्यादा और परिश्रमी जीवन से सभी प्रभावित थे। सुबह जल्दी उठना, नित्य सामायिक करना, घट्टी पीसना, छाछ बिलोना, कुएँ पर जाकर पानी लाना, गाय-भैंस का कार्य करना, बाल-बच्चों का काम, अतिथि सत्कार आदि कार्यों में बंधी अति व्यस्त दिनचर्या थी बाईजी की। किसी व्यर्थ की बात के विचार की उन्हें फुरसत ही नहीं थी।

बाईजी किसी को कुछ नहीं कहतीं। कोई उन्हें या उनके लिए कड़वी बात भी कहता तो वे उसे गटागट पी जातीं। वे सबका मान रखतीं। आगे-पीछे का, अपना और पराया सब समझतीं। आर्थिक तंगी के बीच कुशल सारथी बनकर परिवार का रथ चलातीं। कनाजी के काम-धंधे में पग-पग पर अड़चनें आईं। उधारी बहुत हो गई और माथे पर कर्ज का भार हो गया। कई बार कुछ गहने गिरवी रखकर घर की गाड़ी चलानी पड़ी। घर संभालने के लिए बाईजी ने एक-एक पाई को संभाला। क्रम से ऋण चुकाते हुए गहने छुड़ाए। लेनदार घर आते। बाईजी उन्हें हाथ जोड़कर धीरज रखने की निवेदन करतीं। वे ऋण चुकाने की समयावधि का जो वादा करतीं, उस वादे को पूरा करने का हरसंभव प्रयास करतीं।

बाईजी घर पर ही सिलाई का कार्य करतीं। पाई-पाई बचातीं। इस भव का और पिछले भव का कर्ज चुकाने के लिए दिन-रात कार्य करतीं। वे देर रात तक भी सिलाई का कार्य करतीं तो कभी-कभी कनाजी गुस्सा करते। कभी-कभी पीछे वाले घर से शांतिलालजी भी सोते-सोते सिलाई मशीन बंद करने का गैर-जरूरी बयान देते। घर चलाने के लिए बाईजी मशीन चलाती थीं। अपने ही घर में काम-काज करती थीं। पर बाईजी का कार्य करना भी शांतिलालजी को अखरता था। बाईजी सब कुछ समभाव से सह लेती थीं।

बाईजी के साथ बाईजी के बेटे-बेटी भी बाईजी के कार्य में सहयोग करते थे। समय के साथ निष्ठा और परिश्रम का सुफल मिलता है। स्थिति में सुधार होने लगा। बाईजी धन और समय का बिलकुल अपव्यय नहीं करतीं। जहाँ आवश्यक होता, वहाँ बड़े मन से सब करतीं। सामाजिक रीत-रिवाज करतीं। घर आए अतिथि का बढ़िया पारंपरिक सत्कार करतीं। कहने वाले कहते थे कि कनाजी के पत्नी क्या आई, साक्षात लक्ष्मी आई है। उनके आने के बाद उन्होंने सब कुछ संभाल लिया। परिवार में एक नया उजास कर दिया।

बाईजी ने अपनी बचत से बड़ी बेटी रूपा का अच्छा विवाह किया। अब सुरेश बड़ा हो गया था। वह अपने पिताजी कनाजी के साथ कपड़े की दुकान में सहभागी बन गया। सुरेश सहभागी क्या बड़भागी ही है कि उसके जुड़ने के प्रतिष्ठान की प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ती ही गई। जितनी चादर उतना विस्तार, उसका स्वभाव था। उसके काम-काज और मधुर व्यवहार की सभी मुक्त मन से सराहना करते।

अब सुरेश का विवाह हो गया था। माता-पिता ने सोचा कि मकान बहुत छोटा है, यदि एक कमरा और बनवा लेंगे तो ठीक रहेगा। इसी विचार के साथ उन्होंने पैसे का बंदोबस्त करके एक कमरा निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। अपने ही मकान के रिक्त हिस्से में कमरा बनाना भी शांतिलालजी को नागवार गुजरा। वे बाईजी के जेठ क्या मानो जेठ का तावड़ा (धूप) ही थे, जो परिवार को झुलसा देना चाहते थे। वे घूमते-घामते गाली-गलौज करते और कार्य में बाधा पैदा करते। एक दिन उन्होंने साँप की तरह गुस्सा किया। गुस्से में वे उनके बेटे सरेश की बह के लिए भी अशोभनीय शब्द बोल गये। इसी बात पर उस दिन बाईजी के सब्र का बांध टूट गया था। आँखों में गंगा-जमना बह रही थी और हाथ जोड़े बाईजी कह रही थी कि यह सब क्या है? क्या इस घर में काण-कायदों का ध्यान भी नहीं रखा जाता है? बाईजी के ऐसे वाजिब सवालों पर भी नानकिया और सुरेश ने उन्हें नहीं बोलने की प्रार्थना की थी।

लेकिन आज बाई जी स्वयं को शांत न कर पायीं। नयी आयी बहु के लिए अपशब्द? आखिर वह भी तो किसी की बहिन-बेटी है। किसी के कलेजे का टुकड़ा है, घर के बड़ों के भरोसे ही तो उसके माता-पिता ने स्वयं के घर से उसकी विदाई कर दी है। अब बाई जी का घर ही उसका घर है।

आज बाई जी शांत बाईजी न रह कर तीव्र वेग से बहती गंगा बन चुकी थी जो शायद परिवार का मल साफ करने का फैसला कर चुकी थीं।

“यदि मुझे अपशब्द कहे होते तो मैं सहन कर भी लेती, किन्तु इस मासूम नव-ब्याहता के लिए भला-बुरा कहना उचित नहीं। यदि हमारे घर में पुराना कलह-कलेश है तो भला इसका क्या दोष? आज मैं चुप न रहूँगी” बाई जी शांतिलाल जी के समक्ष आ खड़ी हुई थीं।

बरसों बूंघट-परदे में रही बाईजी ने आज बड़ी ही हिम्मत से शन्तिलाल जी का सामना किया।

नानकिया एवं सरेश ने उन्हें शांत कराने की बहत कोशिश की किन्त बाईजी तो आज सूनामी की तरह उफान मार रही थी “क्या अब इस घर में महिलाओं के लिए भी कोई मान-सम्मान शेष न रहा? क्यूँ रे सुरेश तू अपनी पत्नी का अपमान कैसे सहन कर रहा है?”

बाई जी से प्राप्त आशीर्वाद से आज सुरेश ने पूरी हिम्मत से अपने ताऊ शांतिलाल जी का सामना किया।

शांतिलाल जी के पैरों के तले से जमीन खिसकने लगी थी। वे कांपने लगे और लड़खड़ाते हुए वहां से रवाना हो गए। मुंह से एक शब्द न निकला, बल्कि चेहरे को गमछे से छुपाते हुए वहां से नदारद हो गए।

वे तो चले गए किन्त बाई जी की आँखों से अश्र धारा निरंतर बह रही थी। मन ही मन व्यथित भी थीं कि इतने बरसों घर की शांति और मान-मर्यादा के लिए मुंह सिल कर सब दुःख सहती रही, कभी उफ तक न की पर आज उन्हें ऊंची आवाज में अपने जेठ को धमकाना पड़ा।

उनके बेटे सुरेश की पत्नी बाईजी के गले लग कर रो रही थी। एक तरफ अपनी सास के लिए श्रद्धा के आंसू थे तो दूसरी तरफ मायके से विछोह का दर्द कम हो गया था। वह समझ गयी थी कि उसे सास के रूप में माँ मिल गयी है जो अपनी बेटी पर जरा भी आंच आये तो हर मजबूत दीवार से लोहा लेने को तैयार रहेगी।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’