shaap bana varadaan - mahabharat story
shaap bana varadaan - mahabharat story

अर्जुन ने भगवान शिव से पाशुपत अस्त्र प्राप्त कर लिया। इसलिए अपने वचन के अनुसार इंद्र उन्हें दिव्यास्त्र देने के लिए स्वर्ग ले गए। वहां देवताओं ने उनका स्वागत किया। अर्जुन को सभी दिव्यास्त्र मिल चुके थे, इसलिए उन्होंने लौटने का विचार किया, परंतु इंद्र ने उन्हें स्वर्ग में कुछ दिन और रहने के लिए मना लिया। तत्पश्चात् उन्होंने चित्रसेन नामक गंधर्वराज को अर्जुन को नृत्य और संगीत सिखाने के लिए नियुक्त कर दिया।

चित्रसेन ने कुछ ही दिनों में उन्हें नृत्य और संगीत के सभी रहस्य सीखा दिए। अर्जुन भी इन कलाओं का ज्ञान अर्जित कर अत्यंत प्रसन्न हुए।

एक दिन की बात है। इंद्रसभा में अनेक अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। इंद्र एक-एक कर उनका परिचय देते और अर्जुन सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करते। इंद्र यह जानना चाहते थे कि उनका आकर्षण किसकी ओर है, जिससे उन्हें प्रसन्न किया जा सके, किंतु अर्जुन अपने परिजन के ध्यान में मग्न थे। वे बहुत दिनों से उनसे नहीं मिले थे। उन्हें उनकी याद सता रही थी।

तभी उर्वशी ने दरबार में प्रवेश किया। सहसा अर्जुन ने उसकी ओर देखा। अर्जुन को उर्वशी की ओर निहारते देख इंद्र ने सोचा कि शायद उनकी रुचि उर्वशी में है। अतः सभा समाप्ति के बाद उन्होंने गंधर्वराज चित्रसेन को आदेश दिया कि आज की रात उर्वशी अर्जुन की सेवा करे।

उर्वशी को जब यह आदेश मिला तो वह प्रसन्नता से फूली नहीं समाई। वह स्वयं भी अर्जुन पर मोहित हो गई थी। रात में शृंगार कर वह अर्जुन के कक्ष में पहुंची। उस समय अर्जुन विश्राम कर रहे थे। आहट सुनकर वे शय्या से उठ गए और उर्वशी को देखकर बोले‒ “माते! इतनी रात्रि में आप यहां! मुझे बुलवा लिया होता।”

माता शब्द सुनकर उर्वशी आश्चर्यचकित रह गई। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था। वह बोली‒ “वीरवर! देवराज इंद्र ने मुझे आपकी सेवा में उपस्थित होने का आदेश दिया है। मैं स्वयं भी आप पर मोहित हूं। इसलिए यहां आई हूं। कृपया मुझे सेवा का अवसर प्रदान करें।”

अर्जुन ने गंभीरता से उसकी बात सुनी, फिर बोले‒ “कृपया इस प्रकार के अनुचित शब्द न दोहराएं। आप कुरु-कुल की जननी हैं। इस नाते आप मेरी माता हैं। दरबार में मैंने इसी भाव से आपको देखा था और माता के रूप में ही आपके दर्शन किए थे।”

उर्वशी अर्जुन की बात को अनसुना करते हुए बोली‒ “वीरवर! स्वर्ग में जितनी भी अप्सराएं हैं, वे न किसी की माता हैं, न किसी की बहन और न किसी की पत्नी। स्वर्ग में आने वाला प्रत्येक प्राणी अपने पुण्यकर्मों के अनुसार हमारा उपभोग करता है। यहां का यही नियम है। इसलिए आप मुझे देवेंद्र की आज्ञा का पालन करने दें।”

अर्जुन बोले‒ “जिस प्रकार कुंती, इंद्राणी, माद्री आदि मेरी माताएं हैं, उसी प्रकार आप भी हैं। इसलिए मुझे अपना पुत्र समझकर उसी प्रकार अनुसरण करें।”

उर्वशी ने अनेक यत्न किए, लेकिन अर्जुन अपने वचन पर अडिग रहे। इस अपमान से वह क्रोधित हो उठी और शाप देते हुए बोली‒”अर्जुन! तुमने एक नपुंसक की भांति मेरा अपमान किया है। जाओ, मैं शाप देती हूं कि एक वर्ष तक तुम किन्नर की भांति नृत्य-गान करते हुए गुजारोगे।”

यह कहकर क्रोधित उर्वशी प्रस्थान कर गई। अर्जुन ने माता का आशीर्वाद समझकर शाप को ग्रहण कर लिया।

यह घटना जब इंद्र को ज्ञात हुई तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए और अर्जुन से बोले‒”वत्स! तुम जैसे धर्म का पालन करने वाले को कोई भी विपत्ति कष्ट नहीं पहुंचा सकती, अपितु शाप भी आशीर्वाद बन जाता है। जब तुम अज्ञातवास का एक वर्ष व्यतीत करोगे, तब यह शाप तुम्हारे लिए वरदान सिद्ध होगा। उर्वशी द्वारा एक वर्ष का शाप तुम्हारे लिए पृथ्वी पर भी एक वर्ष के बराबर ही होगा।”

अर्जुन ने एक वर्ष का अज्ञातवास किन्नर के रूप में व्यतीत किया था और इस वेष में उन्हें कोई पहचान नहीं सका। इस प्रकार शाप ही उनके लिए वरदान बन गया।