Madam Ji
Madam Ji

Hindi Social Story: ऑफिस का दरवाज़ा खुलते ही सबकी आवाज़ें धीमी हो जाती थीं।“मैडम जी आ गईं,” किसी ने धीरे से कहा। हर फ़ाइल करीने से सजी रहती, हर कर्मचारी सीधा बैठा होता। वजह थी – मानिनि।
वरिष्ठ अफ़सर, तेज़ दिमाग़, सख़्त मिज़ाज। कम बोलतीं, पर उनके शब्द आदेश जैसे होते। लोग उन्हें पीछे से “मैडम जी” कहते।
मानिनि का घर पर भी वही अंदाज़, वही तेवर थे। सब कुछ समय पर—सोना, उठना, नाश्ता। मजाल थी कि बच्चे या पति कोई भी खाने के टेबल पर देर से आए। पति राकेश और बच्चे, दोनों मां के अनुशासन से बंधे रहते। एक बार रात के खाने पर पति राकेश ने हिम्मत जुटाई—
“आज अगर खाने में भिंडी की सब्जी होती तो अच्छा लगता…”
मानिनि ने बस एक नज़र डाली। राकेश चुप हो गए।
बच्चे भी समझ गए—मां की मेज़ पर कुछ खाने की फरमाइश या हंसी-ठिठोली की जगह नहीं है।
घर में न तो बच्चों की खिलखिलाहट सुनाई देती, न पति-पत्नी की हल्की नोक-झोंक। बस सब कुछ अनुशासन मे ही बंधा होता था । दांपत्य की गाड़ी बिना खटर पटर के चल भी रही थी। कम से कम आवाज़ तो बिलकुल नहीं करती थी। विवाह के पश्चात दो बच्चे हुवे। बच्चों का पालन पोषण और घर की देख भाल के लिए नौकर चाकर की फ़ौज थी। किंतु बिचारे पतिदेव तरसते रह गए की पत्नी कभी उनकी पसंद का कुछ बना कर या नौकरों से ही बनवा कर उनका खाने पर इंतजार करे। या कभी बन सवर कर पति के सामने मधुरता से पेश आए। पति बस उसके हर आदेश का पालन करते थे। बच्चों ने भी पिता को देखा और उनका अनुसरण करते हुए मां की हर बात को बस माना|
मानिनि कभी कभी सोचती तो थी इस बारे में कि उसका घर अन्य लोगों के घर से कुछ अलग है पर दिमाग पर ज्यादा ज़ोर देने की बजाय सर झटक देती थी की “सब ठीक ही है।”
पर कभी-कभी भीतर से आवाज़ आती—“कुछ कमी है।” पर क्या वह मानिनि को नही पता चलता था। जैसे करीने से सजे उद्यान में सूखे पत्तों की कमी देखने वालो को उधान के कृत्रिम होने का आभास कराता है।
वैसे ही माननी की सुखी जिंदगी नजदीक से देखने पर सूखी जिंदगी मालूम होती थी। रस विहीन सूखी जिंदगी।
घर में सब लोग एक नियमित दिनचर्या का पालन करते थे। ठीक समय पर सोना और जगना होता था। मजाल नही थी कोई काम निर्धारित समय पर ना हो |
हालाकि मैडम जी को कभी ऊंची आवाज़ में बात करते किसी ने नहीं सुना था। किंतु खौफ इतना था की कभी आंख टेढ़ी कर देख भी लें तो लोगो के पसीने छूट जाते थे। अब आफिस में तो एकबार को ये एटीट्यूड चल भी जाय वैसे अब तो ऑफिस तक में लोग अपने मातहतों से बात चीत में लहजा नर्म ही रखते है। किंतु घर में तो आप खुद को हार कर ही परिवार का दिल जीतते हैं।

यही घर और ऑफिस में फर्क होता है।घर में आप के अपने होते है । जो की आप के साथ एहसासो से जुड़े होते हैं। किंतु मानिनि को इसका किंचित भी आभास नहीं था की पत्नी कैसे पति की हर बात मानते हुए भी अपनी बात कैसे मनवा लेती है। बच्चों ने नखरे कैसे उठाए जाते हैं। बच्चों को कैसे फुसलाया जाता है। वह बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान खोज लेती थी। लेकिन पति के दिल का रास्ता खोजना उसको कभी नहीं सुहाता था। अलबत्ता पति की जबान पर ताला लगा दिया था उसने या पति ने खुद ही मुंह बंद रखा था ये कोई नही जान पाया था।

मानिनि के पिता फौज में थे। शायद नियम कायदा ये सब उसे पिता से ही विरासत में मिला था। कुशाग्र अफसर , बेटी की दबंग प्रकृति देखकर ही पिता ने उसके लिए एक विनम्र, साधारण घर के बड़े योग्य लड़के राकेश को जीवनसाथी चुना। सोच थी—“मेरी बेटी का गुस्सा तभी काबू में रहेगा, जब दामाद कभी उसके सामने खड़ा ही न हो पाए।” पिता जी गलत साबित नही हुए।

जिंदगी की गाड़ी चल रही थी, पर ना ब्रेक, ना एक्सीलेटर , ना हॉर्न। राकेश हमेशा चुप रहते। उनकी पसंद-नापसंद कभी मानिनि तक पहुंची ही नहीं। कभी कुछ कह ही नहीं पाए और उनका मौन मानिनि ने समझा ही नहीं। जिंदगी बस चलने का नाम थी सो चल रही थी।
ऐसे ही एक दिन मानिनि शाम को किसी मॉल में गई थी कुछ खरीदने वही पर उसे कॉलेज की पुरानी सहपाठी सुधा अचानक मिली। मानिनि को देखते ही सुधा बोली।
“अरे, मानिनि! तू यहीं है?”
“हाँ! और तू?” में बैंक में नौकरी करती हूं हाल ही में मुंबई ट्रांसफ़र हुआ है। अकेली आई हूं, मकान की तलाश में हूं

अभी मकान नहीं मिला, होटल में रह रही हूँ।”
मानिनि ने तुरंत कहा—
“होटल में क्यों? जब तक घर नहीं मिलता, मेरे यहाँ रह।”
कई बार के कहने पर सुधा मानिनि के घर में आ गई उसी दिन मानिनि के साथ। मानिनि का नौकर जा कर होटल से सुधा का सामान ले आया।
मानिनि ने फिर संजीदा हो कहा— “जब तक घर नहीं मिलता, मेरे गेस्ट रूम में रह लो।” इसे भी घर ही समझो। सुधा ने कुछ कहा नहीं बस मानिनि को कृतज्ञता से देखा
सुधा मानिनि के बच्चों और पति से डिनर टेबल पर मिली पहली मुलाक़ात औपचारिक थी—नमस्ते, फिर खाना पीना, कुछ खास बातचीत नहीं । पर कुछ ही दिनों में घर का माहौल बदल गया। सुधा का बैंक मानिनि के घर से नजदीक था तो वह मानिनि से जल्दी घर पहुंच जाती थी। फिर बच्चों से उसकी बातचीत होने लगी। कभी आइसक्रीम तो कभी पेस्ट्री खाते हुए बच्चे भी सुधा को अपने स्कूल की ढेरों बाते बताते थे। सुधा किचन में भी काम कर रहे मानिनि के नौकरों से घुलमिल गई थी कभी कुछ बनाती कभी उनका हाथ भी बंटा देती। दिन बीत रहे थे ।
अगला दिन रविवार था सभी सो रहे थे सुबह सुधा ने किचन में जाकर चाय बनाई। तो गौर किया की आज नौकर उदास था। पूछने पर नौकर ने बताया उसके बच्चे को बुखार था। सुधा ने कहा,
“तुम जाओ, बच्चे को डॉक्टर दिखाओ। यहाँ मैं देख लूँगी।” हां अपनी मेमसाब से पूछ लो फिर चले जाओ।

उस दिन सुधा ने नाश्ता खुद बनाया। बच्चों से हंसी-मज़ाक करते हुए खाने की टेबल सज गई । मानिनि के पति राकेश भी पास खड़े सुधा से बातें करने लगे।
टेबल पर जब खुशबूदार व्यंजन सजे, साथ में खिलखिलाते बच्चे और राकेश तारीफ़ किए बिना न रह सके।
सालों बाद घर में ठहाके गूंजे।
मानिनि ने नोटिस किया—सुधा ने जो किया, वह उसने कभी नहीं किया।
कुछ दिनों बाद सुधा को नया फ्लैट मिल गया। घर फिर से शांत हो गया।
राकेश और बच्चे चुप-चुप से रहने लगे। मानिनि को खटकने लगा कि सब क्यों सुधा को याद करते हैं। इसी बीच एक दिन सुधा का मानिनि को निमंत्रण आया—
“रविवार आप सब लोग मेरे घर आइए। पति और बच्चे भी आए हुए है इसी बहाने सब की एक दूसरे से मुलाकात और जान पहचान भी हो जाएगी।
मानिनि ने जैसे ही सुधा के निमंत्रण की बात बताई पति और बच्चे झट से राजी हो गए। सब लोग एक प्यारा सा तोहफा लेकर सुधा के घर आए।
सुधा का छोटा-सा घर, पर प्यार और अपनत्व से भरा हुआ।
राकेश हंसते-हंसते सुधा के पति राज से बातें कर रहे थे। बच्चे आपस में घुलमिल कर खिलखिला रहे थे।
सुधा चाय बना रही थी, बीच-बीच में बच्चों की फरमाइश भी पूरी करती, किसी को खाने के साथ पास्ता तो किसी को रायता चाहिए था सब सुधा ने बड़ी सहजता से किया राज भी हाथ बंटा रहे थे कोई अन्य नौकर भी नही था
राज मानिनि को मज़ाक में छेड़ रहे थे।
राज ने मुस्कुराकर कहा—
“आपने सुधा को बहन जैसा रखा। अब आप मेरी साली हुईं।”
राकेश भी हंस पड़े।
मानिनि ने सोचा—ये वही राकेश हैं, जो घर पर सिर्फ हाँ या ना बोलते हैं?
आज वे कितने हंसमुख, कितने ज़िंदा दिल लग रहे थे।
सब लोग खुश थे किंतु मानिनि मन ही मन एक अंतर्द्वंद्व से गुजर रही थी
वापसी में कार पिछली सीट से बच्चों की हंसी सुनते हुए मानिनि के मन में कसक उठी।
उसने पहली बार माना—
“मेरे घर में अनुशासन है, पर अपनापन नहीं। मैं सिर्फ ‘मैडम जी’ बनी रही। कभी पत्नी नहीं, कभी मां नहीं।”
सुधा का चेहरा आँखों के सामने घूम गया—नौकरीपेशा और मज़बूत, पर साथ ही कोमल, हंसमुख और संवेदनशील।
मानिनि ने सोचा—
“शायद घर को मैडम नहीं, माली चाहिए। मैं भी अब अपने बग़ीचे की माली बनूँगी।”