एक छोटा लड़का विकलांग था। वह व्हीलचेयर या किसी की मदद से ही इधर-उधर घूम सकता था। उसके पिता को जब भी समय मिलता उसे पास के बगीचे में मन बहलाव के लिए ले जाते थे। इसी क्रम में पिता-पुत्र एक दिन बगीचे में बैठे थे। बच्चा बालू में कुछ आकृतियां बना रहा था और मिटा रहा था।
पिता-पुत्र दोनों के चेहरे पर विकलांगता का दुःख साफ झलक रहा था, क्योंकि वह बालक अन्य बालकों की तरह न चलफिर सकता था, न दौड़-भाग सकता था और न किसी खेल में भाग ले सकता था। असहाय सा वह बालक बीच-बीच में अपने पिता का मुंह ताकता था।
उसी समय एक लड़का जो उससे उम्र में बड़ा था और शरीर से भी मजबूत नजर आता था, वहाँ आया। उसे शिक्षा मिली थी कि रोज एक नेक काम करना चाहिए। वह इसी तलाश में प्रायः वहाँ आया करता था। उस दिन बाप-बेटे को दुःखी देखा तो उनके पास चला गया और उस छोटे बालक के साथ मिट्टी में खेलने लगा। दोनों को खेल में मग्न देखकर बच्चे के पिता दूसरी तरफ टहलने के लिए चले गये। किसी को पता ही नहीं लगा कि कब दो घंटे गुजर गये।
थोड़ी देर बाद उसने उस अपने छोटे साथी से पूछा- ‘क्या कभी तुम्हारा मन पक्षियों की तरह उड़ने का होता है?’
छोटे बच्चे ने बड़ी मायूसी के साथ कहा- “भैया! मेरे मन का क्या, वह कुछ भी सोचे। उड़ना तो बहुत दूर की बात है, मैं तो शारीरिक विकलांगता की वजह से चल-फिर भी नहीं सकता। वे बात कर ही रहे थे कि बालक के पिता व्हीलचेयर लेकर आ रहे थे। वह लड़का उनके पास गया तथा उसने उनके कान में धीरे से कुछ कहा। सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उनके मुंह से अनायास ही निकल गया कि यह तो बहुत ही अच्छा रहेगा।
वह लड़का अपने नये साथी की ओर मुड़ा और बोला, ‘तुम मेरे दोस्त हो इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम भी दूसरों की तरह दौड़- इ-भाग सको, लेकिन मैं इतना समर्थ नहीं हूँ कि तुम्हें इस योग्य बना सकूं, इसके बावजूद मैं तुम्हारे लिए कुछ और जरूर कर सकता हूँ।’ यह कहकर वह उसकी तरफ पीठ करके झुक गया और उससे बोला कि मेरी पीठ पर चढ़ जाओ। बच्चे को अपनी पीठ पर लादने के बाद उसने दौड़ना शुरू किया। धीरे-धीरे रफ्तार बढ़ने लगी और देखते ही देखते हवा के तेज झोंके दोनों के मुंह से टकराने लगे। इस अनुभव के साथ ही छोटा लड़का अपने दोनों हाथ हवा में हिलाने लगा और जोर से बोला- ‘पिताजी! मैं उड़ रहा हूँ।’ यह दृश्य देख पिता की आंखों में आंसू आ गए।
सारः जीवन में कुछ ऐसा अवश्य करो कि किसी असहाय को भी अपना जीवन सार्थक लगने लगे।
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