एक बार महर्षि विश्वामित्र ने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की। उनकी कठोर तपस्या से इंद्र चिंतित हो उठे कि कहीं विश्वामित्र उनका सिंहासन न छीन लें। अतः उन्होंने मेनका नामक अप्सरा को उनकी तपस्या भंग करने हेतु भेजा।
मेनका अत्यंत सुंदर और रूपवती थी। उसने अपने रूप-सौंदर्य का जाल फैलाकर विश्वामित्र को मोहित कर दिया। अब वे तप छोड़कर मेनका के साथ गृहस्थ-जीवन व्यतीत करने लगे।
कुछ दिनों बाद मेनका ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। तत्पश्चात् इंद्र की आज्ञा से मेनका अपनी पुत्री को मालिनी नदी के तट पर छोड़कर स्वर्ग लौट गई। नवजात शिशु को धूप में पड़े देखकर शकुंत नामक पक्षी-दंपती ने अपने पंखों से उस पर छाया की। तभी वहां कण्व मुनि आ निकले। वे बच्ची को अपने आश्रम में ले आए और धर्म-पुत्री के रूप में उसका पालन-पोषण करने लगे। उन्होंने शकुंत पक्षियों द्वारा रक्षित उस कन्या का नाम शकुंतला रख दिया। इस प्रकार अनेक वर्ष बीत गए।
पुरु के वंश में दुष्यंत नामक एक पराक्रमी राजा हुए। दुष्यंत बड़े धर्मात्मा और सदाचारी पुरुष थे। एक दिन वन में शिकार खेलते हुए वे कण्व मुनि के आश्रम पर जा पहुंचे। आश्रम के निकट ही उन्हें एक अत्यंत सुंदर और मनोहारी युवती दिखाई दी, जो मृग-शावक का पीछा करते हुए उनके पास आ गई थी। वे उसके रूप-सौंदर्य को देख उस पर आसक्त हो गए।
उन्होंने उस युवती से पूछा‒हे सुंदरी! तुम कौन हो? तुम्हारे सौंदर्य से यह प्रतीत होता है कि तुम क्षत्रिय-वंश में उत्पन्न हुई हो। कृपया अपना परिचय दो।”
वह युवती अपना परिचय देते हुए बोली‒ “राजन! आपने उचित कहा है। मैं महर्षि विश्वामित्र की पुत्री हूं। मेरी माता मेनका नामक अप्सरा हैं, जिन्होंने जन्म देते ही मुझे वन में छोड़ दिया था। तब महर्षि कण्व ने मेरा पालन-पोषण किया। मेरा नाम शकुंतला है और मैं उन्हीं के आश्रम में रहती हूं। राजन! आश्रम में आपका स्वागत है। बताइए, मैं आपकी क्या सेवा करूं?”
दुष्यंत बोले‒ “सुंदरी! तुम अत्यंत सुंदर और गुणवती हो। तुमने अपने चंचल चितवन से मेरे मन को मोह लिया है। यदि तुम्हें स्वीकार हो तो मैं इसी क्षण तुमसे विवाह कर तुम्हें अपने हृदय की स्वामिनी बनाना चाहता हूं।”
शकुंतला स्वयं भी दुष्यंत पर मोहित हो गई थी, अतः उसने विवाह के लिए स्वीकृति दे दी। दुष्यंत ने गंधर्व विधि से उसके साथ विवाह कर लिया। रात्रि वहीं बिताने के बाद शकुंतला को शीघ्र ही अपने पास बुलवाने का आश्वासन देकर दूसरे दिन दुष्यंत अपनी राजधानी लौट गए।
उचित समय आने पर शकुंतला ने एक बालक को जन्म दिया। इस बालक के दाहिने हाथ पर चक्र का और पैरों में कमल का चिह्न था, अतः इसे भगवान विष्णु का अंशावतार कहा गया। कण्व ऋषि ने वन में ही सभी संस्कार सम्पन्न करवाकर उस बालक का नाम भरत रख दिया। भरत बचपन से ही बड़ा वीर और निडर बालक था। वह खेल-ही-खेल में सिंहों को परास्त कर देता था। शकुंतला ऐसा वीर और सुंदर पुत्र पाकर अत्यंत प्रसन्न थी।
जब दुष्यंत ने अनेक वर्षों तक शकुंतला को अपने पास नहीं बुलवाया तो वह स्वयं अपने पुत्र के साथ उनके समक्ष उपस्थित हुई, लेकिन उन्होंने उसे पहचानने से इंकार कर दिया। जैसे ही वह दुःखी होकर लौटने लगी, एक दिव्य आकाशवाणी हुई‒ “दुष्यंत! तुम शकुंतला का त्याग मत करो। यह तुम्हारी ही पत्नी है, जिससे तुमने वन में गंधर्व-विवाह किया था। भरत तुम्हारा ही अंश है। इन्हें स्वीकार कर तुम अपने धर्म का पालन करो।”
आकाशवाणी सुनकर दुष्यंत को शकुंतला का पुनः स्मरण हो आया। उन्होंने शकुंतला और भरत को स्वीकार कर लिया।
दुष्यंत के बाद भरत राजसिंहासन पर बैठे। अपने बल और बुद्धि द्वारा उन्हें चक्रवर्ती सम्राट होने का गौरव प्राप्त हुआ।
