एक बार किसी राज्य के तीन कलाकारों में बहस हो गई कि उनमें से कौन सर्वश्रेष्ठ कलाकृति बना सकता है। मामला राजा के पास गया। उसने अपने राजपुरोहित को इस प्रतियोगिता का निर्णायक बनाया। पहले कलाकार ने मनुष्य की अनुकृति बनाई, दूसरे ने एक घर की और तीसरे ने सांड की। निर्णायक के आसन पर बैठे राजपुरोहित ने सभी रचनाओं में दोष निकालने शुरू कर दिए।
सबसे पहले उसने इंसान में यह दोष ढूंढा कि उसके सीने में कोई खिड़की नहीं है, जिससे उसके मन के विचार और भावनाएं दिखाई नहीं देतीं। फिर उसने घर में दोष निकाला कि इसमें पहिए नहीं लगे हैं। पहिए न होने के कारण उसके निवासी उसे बुरे पड़ोसियों से दूर नहीं ले जा सकते। अंत में उसने सांड में यह दोष निकाला कि उसके सींग आंखों के नीचे नहीं हैं जिससे वह उन्हें देख नहीं पाता। जैसे ही राजपुरोहित अपना निर्णय सुनाकर उठा, राजा ने उसे महल से बाहर का रास्ता दिखा दिया और कहा कि किसी भी रचना में दोष निकालना बहुत आसान है। उसे दूसरों की रचना में तब तक दोष निकालने का हक नहीं है, जब तक वह स्वयं कोई अनूठी रचना न कर सके।
सारः दूसरों की बनाई चीजों में खामियां निकालने से पहले सोचना चाहिए कि यदि वह चीज हमने बनाई होती तो क्या उससे श्रेष्ठ होती।
ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं– Indradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)
