Hindi Kahaniya: “छोटी रुक जाओ न मेरे साथ अकेले जी घबराता है , मैंने दोनोँ हाथ जोड़कर देवरानी ने विनती की”
उत्तर में संजय ने कहा ,”बड़ी भाभी! शकुन अपना अपमान नहीं भूली,मेरे हाथ बन्धे है पर वह मेरे प्रति अपने फ़र्ज़ से अदा है।
इतना कहकर मुझे बिस्तर पर लिटा कर दोनोँ अपने घर चले गये।
“मैँ घर की बड़ी बहू हूँ,देवरानी का हुक्म ख़ुद पर नौकरानी जैसा नहीं चलने दूँगी “
“बरसों इस घर की सेवा में दिये मैंने,आपको होश भी है कि किसकी क्या ज़रूरत है घर में”शकुन ने प्रतिउत्तर में कहा।
बाबू के बाद अम्मा बीमार थीं, मैंने अम्मा की ओर देखा।
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वो बेबसी से बोलीं…..अजय की बहू…हमने पहले जोड़कर कहा था,” घर में अपनी जगह और दायित्व समझो वरना आने वाले समय में नौकरानी जितनी इज्जत भी न रहेगी”।
अपने बिस्तर पर लेटे हुए चौंक कर मैंने आवाज़ की दिशा में देखा तो पाया …
घर की हर ईंट और छत में से अम्माजी की आवाज कानों में गूँज उठी ….इतने सन्नाटे और घर में ख़ामोशी पसरी होने के बाद भी ये आवाज़ें तेज़ से तेज़तर होती गयी
नहीं……मैंने घबराकर अपने कानों पर हाथ रख लिये,पर उनकी आवाज़ पूरी ताक़त से मेरे कानों को चीरती जा रही थी।
इंसान के दुनिया से चले जाने के बाद भी उसकी आवाज़ें ख़ामोशी में बड़ा शोर करती हैं।
न चाहते हुए भी कभी अम्माजी और बाबूजी के बेबस चेहरे मेरे सामने बार-बार आते थे,मेरा ज़मीर मुझे शर्मिंदा करता और मन बार बार मौत की इच्छा करता
पर इस घर मे अपने कर्मो का फल भोगने के लिए मेरा जीवित रहना जरूरी भी था।
मैँ पुष्पलता हूँ ,इस वीरान और बेजान से घर में रहने वाली अकेली जीवित और शापित सदस्य….
,किसी ने सच कहा है कि हमारे कर्मों का हिसाब यहीँ होता है और बिना अदा किये रिहाई नहीं मिलती जीवन की क़ैद से….
मैँ हमेशा से ऐसी न थी बेहद लाड़दुलार में पली रूपगर्विता जिसे अहम भी था अपने रूप का।
मॉं बचपन मे ही गुजर गईं थीं,और जिस घर मे दुल्हन बनकर आई वह बहुत सम्पन्न था,और मैं थी उस घर की सबसे बड़ी बहू थी।
मेरी सास के तो पैर ज़मीन पर न पड़ते थे मेरे बलाएँ लेते हुए.वो स्वयं भी इस घर की बड़ी बहू जो थी,उसपर अपने देवरों और ननद की माँ समान बड़ी भाभी भी।
सुनने में आता था कि उन्होंने ही सबका पालन पोषण किया था क्योंकि बिना सास की ससुराल थी उनकी…..
घर की पुरानी पीढ़ी की बड़ी भाभी अब सास की नई भूमिका में आ चुकी थीं।
और नई पीढ़ी की बड़ी बहू यानि मुझको अपनी बरसों की जोड़ी विरासत सौंपने को आतुर थी
“परिवार की जड़ रसोई होती है दुलहिन कभी मेरी रसोई में पँक्तिभेद न करना उन्होंने पहली रसोई में मुझे झुमके देते हुए सीख दी….”
इतने बड़े परिवार के नाम से ही मुझे घुटन हो रही थी,मैंने उस समय सिर हिला तो दिया….पर अपने व्यवहार से धीरे धीरे सबको जतला दिया कि उचित दूरी बनाये रखें….
अम्माजी घर में अपनी देवरानियों के साथ लगी रहतीं और मैँ बेपरवाही से सब देखती ।हाँ अपनी सुविधा में मैंने कोई समझौता नहीं किया…
मुझे अपने समय पर उठने ,सोने की आदत थी, कामचोरी की आदत होने के कारण मायके में रहना भाता और ससुराल भी रहती तो सबसे दूर रसोईघर में न जाती ।
भूख लगने पर बाजार का नाश्ता बहुत होता था, यहाँ तक कि मैं अपने पति की भी किसी ज़रूरत से कोई मतलब न रखती।
धीरे धीरे घरवाले मेरे लापरवाह रवैये से मुझसे दूर होने लगे।मुझे अपने पति अजय की भी विशेष तमन्ना न थी।
मेरा रूप उन्हें मेरे पास ले ही आता था,कुछ बरसों में मैं एक-एक करके तीन बच्चों की माँ भी बन गयी।
पर वो भी मेरी तरह सँयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारी बन गए अम्मा की…
मेरे रवैये पे कोई अंतर न आया,अजय अब घर कम आते पर मुझे फ़र्क़ न पड़ता मेरे एक दिन अम्मा ने मुझे समझाते हुए कहा ,
“अपने पति की क़दर करो बहू समय रहते हम जिंदगी भर नहीं रहने वाले…”
हाथ जोड़कर बोलीं”उसे बाँधो घर से ,अगर देर से आये तो दरवाज़ा मत खोलो घर की ज़रूरत का एहसास कराओ।
मैंने उत्तर में कहा,जैसे आप बड़ी भाभी की भूमिका से निकल ही न पाईं ,पूरा परिवार पालने के चक्कर में ….हम अभी अपनी ज़िंदगी नहीं जिएंगे तो कब जियेंगे….
उस दिन के बाद अम्मा ने चुप्पी साध ली सारे देवर शादी के बाद बाहर रहने लगे एक को छोड़कर,देवरानी ने पहले कर्तव्य निभाये अपने और मेरे हिस्से के भी अब धीरे धीरे अधिकार भी उसके हिस्से में जाने लगे….
न अजय के बहके कदम सँभले और न मेरा गैरजिम्मेदाराना रवैया,
पहली बार बाबू के दुनिया से जाने के बाद मेरी आँख थोड़ी खुली तो समझ मे आया कि उनके साथ त्याग करके अम्मा ने क्या कमाया था।
उनकी बात कटने का साहस किसी मे न था, पर बाबू के जमानेवाला,ऐशोआराम अब न था,मुझे भी अब परिवार की ज़रुरत के लिए कमरे से बाहर निकलना मंजूर होने लगा था।
अब मुझे कमी के साथ असुरक्षित भी महसूस होने लगा था,मुझे बड़ी बहू होकर देवरानी के आदेश पर चलना मंज़ूर न था।
उस को मैंने लड़-झगड़कर बंटवारा और घर खाली करने पर मजबूर कर दिया,एक चाकू लेने की भी मोहलत न दी।
पहलीबार घर छोड़ते वक़्त अम्मा ने कहा बड़ी भाभी माँ दाखिल होती है छोड़ दे संजय तू सब कर लेगा।
पहले अजय हाथ से गये,फिर रूप ,उसके बाद बच्चे भी हाथ से फिसलते गये,उन्हें तो मैंने रोटी को भी तरसा रखा था,सब कमउम्र कमाने गए तो लौटे ही नहीँ….मैंने किसी के प्रति कोई फ़र्ज़ निभाया ही कब था?
फ़िर एक दिन अम्मा भी चली गईं,दुनिया से पर शांति न थी चेहरे पर…
उनकी अँतिम विदाई में बड़ी भौजी को रोने वालोँ की भारी भीड़ थी,और पहली बार मेरा जी अपने अन्जाम पर घबराया।
उनमें और खुद के कर्मों में अंतर गिनते गिनते भीड़ में उपेक्षित बैठी कब लुढ़क गयी,जब होश आया तो पक्षाघात की शिकार हो चुकी थी।
अम्मा से ख़ुद की तुलना करने पर बस एक ही मिली हम दोनों ही ओहदे में बड़ी भाभी थे,अन्तर कर्तव्यों का था।
