Hundred Dates
Hundred Dates

Hindi Love Story: “अरे तुम! कैसी हो तुम?” मैंने ख़ुश होते हूए पूछा। मुझे लगा गुज़री यादों की बहुत तेज़ रफ़्तार मेरी शक्ल पर पुराने निशानों की तरह उभरने लगी, जिसे जल्द से जल्द वापस लौट जाना चाहिए। पाँच साल बाद वह मुझे एक शादी में मिली; पहले से काफी मोटी और एक बच्ची की उँगली थामें, दूसरी गोद में लिए हुए।

“मस्त। तुम कैसे हो?” वह भी ख़ुश हुई, उसके चेहरे पर भी आँधियों की गुदगुदाहट सुव्यक्त थी।

“ये दोनों तुम्हारी बेटियाँ हैं?” औपचारिकतायें और सामाजिक नियम कभी-कभी ख़ुद को संयत करने का रास्ता हो जाती हैं।

“हाँ, ये आशी। अंकल को नमस्ते करो बेटा।” उसने बड़ी की ओर देखते हुए कहा। “और ये मिसी।” मैंने उसकी छोटी बेटी को ग़ौर से देखा। उसके फूले हुए गाल और मुस्कुराहट उसकी माँ से बहुत ज़्यादा आकर्षक थे। उसने अपनी उँगलियाँ मुँह में डाली हुई थीं और उसके सर पर बनी दो चोटियाँ, चोटियों पर बँधा लाल रिबन उसकी मासूमियत को चूम लेने के लिए बुला रही थी। ज़िंदगी से भरपूर उसकी नज़रों से तुरन्त नज़रें हटा लेना किसी इंसान के लिए तो बेचारगी या गुनाहगारी ही हो सकती है।

वह अपनी किसी दोस्त या रिश्तेदार के साथ खड़ी थी और शायद वापस जाने की तैयारी में थी।

“तुम्हारे पतिदेव कहाँ हैं?” मैंने पूछा।

“मायके में उनका क्या काम?” उसने हँसते हुए कहा। तब उसकी सहेली या रिश्तेदार जो भी थी, ‘आती हूँ’ कह कर कहीं चली गई थी।

“अच्छा सुनो, तुमसे एक काम भी था।” उसने कहा।

“हाँ बताओ। इतने दिनों बाद तुम्हारे क्या काम आ सकता हूँ…” मैंने सच्ची लफ़ंगाई से मुस्कुराते हुए कहा।

“तुम तो मेडिकल फिल्ड से हो, सोनोग्रॉफी हो सकती है कहीं?”

“क्यूँ, इसमें क्या है?” मैंने कहा और अगले ही पल अपने बुद्धुपने को समझ गया।

“अरे! वो चेक कराना है न, दो-तीन जगह ट्राई किया उन्होनें, पर कहीं हो नहीं पाया। अभी तो एक महीने के लिए यहीं हूँ।” कुछ राहत इस बात से तो थी कि, वह यह बात मेरी ओर देखकर कहने की हिम्मत ना कर सकी।

“पागल हो गई हो तुम? तुम वही हो ना, जो कवितायें लिखती थीं और ‘अजन्मी बच्चियाँ’ तुमने ही लिखी थी ना?” मुझे उसकी नारीवादी कवितायें और उसका वाद-विवाद में बढ़-चढ़ कर भाग लेना याद आया; हैरानी ने मेरे बाकी रहे सब भावों को निगल लिया।

“तुम भी किस दुनिया की बात कर रहे हो? वह सब ख़त्म हो चुका। अब लाइफ़ को थोड़ा प्रैक्टिकल देखना सीख चुकी हूँ मैं।” इतनी बेहयायी की कल्पना मैंने नहीं की थी।

“ठीक है। तुम जा चुकी हो किसी और प्रैक्टिकल दुनिया में। लेकिन मेरी दुनिया में; मैं अब भी ज़िंदा हूँ।” कहते हुए मैंने उसकी ओर देखा तो एकाएक ख़्याल आया, मैं भी प्रैक्टिकल ही हो चुका हूँ; जिन आँखों में इश्क़ देखे नहीं थकता था, आज उनमें भरे मवाद को मैंने घिन से लिपटी उबकाइयों के बीच देखा और वहाँ से चल दिया।

थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि, जाने मुझे क्या सूझा। झंनाटेदार झापड़ मारने का ख़्याल ज़ोर पकड़ने लगा। मैंने पलट कर देखा, वह धीमें कदमों से बाहर की ओर जा रही थी। मैंने तेज़ी से उसकी ओर क़दम बढ़ाए और उसके बगल में पहुँचकर कहा- “सुनो, मेरा नम्बर वही है। अगर थोड़ी और प्रैक्टिकल हो सको, तो बच्ची मुझे दे देना।” मैंने उसकी आँखों की नमी में बुझी हुई चिता देखी।