Hundred Dates
Hundred Dates

Hindi Love Story: “तुम इस बार बहुत शांत लग रहे हो?” उसने उसे निहायत पसंद आने वाले, मेरी छाती के बालों पर उँगलियाँ घुमाते हुए कहा। अंडमान के एक सी रेसॉर्ट में हम दो दिन और इतनी ही रातों के लिए थे।

“नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं। शायद बीयर ज़्यादा हो गई है और मुझे नींद आ रही है।”

“कुछ ऐसा है, जो तुम मुझसे कहना नहीं चाहते?”

“ऐसा कुछ नहीं है, बस मन थोड़ा अजीब हो रहा है। हो जाएगा कल तक ठीक, तुम परेशान मत होओ और सोचो मत ज़्यादा।”

“कुछ तो है। मेरी कोई बात बुरी लगी?”

“नहीं यार।” थोड़ा रुक कर मैंने अपने अंदर देखने की कोशिश की।

“सब तो पाया हुआ सा लगता है, ठहरी हुई सी ज़िंदगी; यहाँ आकर भी कुछ उबाल, नया नशा और क्या पाने की इच्छा करूँ? किन चीजों के पीछे भागूँ कि ज़िंदगी, ज़िंदगी की तरह लगे।”

“मुझसे मन भर गया है?” उसने बग़ैर किसी उत्तेजित स्वर से कहा और अपना चेहरा बाँहों से उठाकर छाती पर रख दिया; जैसे धड़कनें सुनकर उसे कुछ समझ आ जाने वाला हो।

“ऐसा नहीं है।” उसके बालों पर हाथ फिराते और ज़रा अटकते हुए मैंने आगे कहा-“पर हाँ! कुछ थोड़ा सा तो है ऐसा। कभी लगता है, तुम में कुछ जानने को बचा नहीं तो मन खिन्न होता जाता है।” आख़िरकार शक्ल बुज़दिल ना रही।

मैंने उसके चेहरे पर भी मेरी संक्रामक उदासी की परछाई देखी। मुझे लगा मुझे और कुछ कहना ही चाहिए-“एक्चुली, जब तक लाइफ़ में नई बातें नहीं होती रहें, कितना एक जैसी बातों को लेकर ख़ुश हुआ जाए। हर बार के स्कूबा डाइविंग और पैरासैलिंग में मन कब तक रमे; इसका यह मतलब मत समझना कि कोई और लड़की। मैं इंसानों की इतनी बात तो समझ ही चुका हूँ; बात उससे ज़्यादा किसी और चीज की है। सेक्स आर्गन तो बहुत बार एक जैसे और भद्दे, बेस्वाद ही लगते हैं मुझे।”

“तुम संन्यासी होने की तो नहीं सोच रहे हो?” उसने निप्पलों को धीमें से चूमा।

“हा…हा…हा…नहीं। पर कुछ है; जिसकी कमी है ज़िंदगी में।” मेरी हँसी से वह चौंकी नहीं। उसे यह पता है कि, मैं कैसे भी हालात में हँस सकता हूँ।

“लव?” उसका चेहरा सवालिया निशानों से लदा हुआ था।

“वह तो किसी अचिवमेंट की तरह नहीं पाया जा सकता। या शायद मुझे जीना ही नहीं आ रहा है। अभी मैं इतने यक़ीन से तो नहीं कह सकता; पर मैं वह रास्ते ढूँढ लूँगा, जो आख़िर तक किसी दो कौड़ी की कामयाबी के तलवे ना चाटते हों।”

“तुम्हें थोड़े आराम की ज़रूरत है। सो जाओ।” अधखुली आँखों से मैंने उसके चेहरे और हाथों को अपने ऊपर से हटते और ख़ुद को चादर में ढाँकते देखा।

कितनी ही बेचैन रातों की अधमूँदी आँखों के हमसफ़र रहे ग़ालिब, आज फिर ज़ेहन में गुनगुनाने तशरीफ़ ले आए।

“फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ

मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ…”