Govind Tirtha
Govind Tirtha

Hindi Katha: अनेक दुष्कर्मों के परिणामस्वरूप इन्द्र को तीन बार अपना पद त्याग करना पड़ा। एक बार वृत्रासुर का वध होने पर राजा नहुष द्वारा उनका पद छीना गया। फिर सिंधुसेन का वध कर वे घोर पाप के भागी बने, जिसके कारण उन्हें अपना पद त्यागना पड़ा। तीसरी बार अहल्या का शील भंग करने के कारण वे अपने पद से भ्रष्ट हुए। इन बातों का स्मरण कर वे बड़े चिंतित रहते थे।

तदंतर एक बार वे देवगुरु बृहस्पति से बोले – “गुरुदेव ! क्या कारण है कि मुझे बार-बार अपने पद से भ्रष्ट होना पड़ता है। इस प्रकार पद- भ्रष्ट होकर अपमानित होने की अपेक्षा काल का ग्रास बन जाना अधिक श्रेष्ठ है। गुरुवर ! मैं बार-बार होने वाले इस अपमान से दुखी हो गया हूँ। आप तो परम ज्ञानी हैं। इस गूढ़ रहस्य को आप भली-भाँति जानते होंगे। कृपया मेरे संदेह का निवारण करें। “

तब बृहस्पति देवराज इन्द्र को साथ लेकर ब्रह्माजी के पास गए और उन्हें सारी बात बताई।

ब्रह्माजी बोले – “देवराज ! खण्ड – धर्म नामक दोष के कारण तुम्हें अपने च्युत होना पड़ता है। देश-काल आदि के दोष से, श्रद्धा और मंत्र का अभाव होने से, यथावत् दक्षिणा न देने से, देवगण और ब्राह्मणों की अवहेलना करने से प्राणी का धर्म खण्डित हो जाता है, उसे अनेक दुःख झेलने पड़ते हैं। इसी के कारण पद-हानि भी अनिवार्य हो जाती है। देवेन्द्र ! खण्ड धर्म दोष का निवारण केवल भगवान् विष्णु कर सकते हैं। पूर्व जन्म में तुम धन्वंतरि नामक राजा थे। उस समय भी भगवान् विष्णु ने ही तुम्हारे दुःख हर कर तुम्हें देवेन्द्र – पद प्रदान किया था। इसलिए तुम गौतमी गंगा के तट पर जाकर भगवान् विष्णु और शिवजी की स्तुति करो। इससे तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। “

वे दोनों गौतमी गंगा के तट पर गए और उसके पवित्र जल में स्नान किया। फिर देवेन्द्र — भगवान् विष्णु की और बृहस्पति — शिवजी की स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् उनकी भक्ति और श्रद्धा से प्रसन्न होकर वे दोनों देव साक्षात् प्रकट हुए। उन्होंने इन्द्र से इच्छित वर माँगने के लिए कहा।

इन्द्र बोले – “प्रभु ! जिस पाप के कारण मेरा पद बार-बार छिन जाता है, वह पाप सदा के लिए नष्ट हो जाए। प्रभु ! आप अपनी कृपा-दृष्टि मुझ पर सदा बनाएँ रखें, जिससे कि मेरा राज्य स्थिर रहे । “

वे मुस्कराते हुए बोले “तथास्तु ! यह स्थान ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं से संबंध रखने वाला है । यहाँ सबके मनोरथ पूर्ण होते हैं। तुम यहाँ श्रद्धापूर्वक स्नान करो। फिर तुम्हारे मंगल और वैभव की स्थिरता के लिए देवगुरु बृहस्पति हमारा स्मरण करते हुए तुम्हारा अभिषेक करें। इससे तुम दोष मुक्त होकर पुण्यवान हो जाओगे ।” इस प्रकार भगवान् ने इन्द्र की मनोकामना पूर्ण की।

भगवान् विष्णु ने इन्द्र को वर – स्वरूप त्रिलोकी का राज्य प्रदान किया था, इसलिए वे गोविन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। वह स्थान गोविन्द तीर्थ कहलाया । बृहस्पति ने जिस स्थान पर भगवान् शिव की स्तुति की, वहाँ वे सिद्धेश्वर नाम से स्थापित हुए। सिद्धेश्वर शिवलिंग देवगण के लिए भी पूजनीय है।