Hindi Katha: भगवती दुर्गा ने जब पृथ्वी से लगभग सभी दानवों को समाप्त कर दिया तो देवगण निश्चित हो गए और देवराज इन्द्र सहित समस्त देवगण भगवती माता की भक्ति से विमुख होकर भोग-विलास में डूब गए। उनका अधिकांश समय सोमरस पीने और अप्सराओं का नृत्य देखते हुए बीतने लगा । विषय-भोगों में लिप्त होकर वे बलहीन हो गए।
देवताओं की यह स्थिति देखकर बचे-खुचे दैत्यों के हृदय में स्वर्ग – विजय का विचार एक बार फिर कुलबुलाने लगा। इस उद्देश्य में सफलता के लिए उन्होंने कठोर तप आरम्भ कर दिया। जब दैत्यों की तपस्या ने ब्रह्माण्ड में हलचल उत्पन्न कर दी, तब ब्रह्माजी दैत्यों के समक्ष साक्षात् प्रकट हुए और उनसे वर माँगने के लिए कहा। दैत्यों ने उनसे अपार बल का वरदान माँगा । ब्रह्माजी ने उन्हें इच्छित वर प्रदान कर दिया। वरदान प्राप्त होते ही दैत्यों की शक्ति बढ़ गई और उन्होंने ऋषि-मुनियों पर अत्याचार करने आरम्भ कर दिए। आश्रमों और यज्ञों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। देवताओं की पूजा करने वालों को मृत्यु के घाट उतारा जाने लगा।
दैत्यों के इस कार्य से देवताओं को पूजा और यज्ञ का भाग मिलना बंद हो गया। इससे वे और अधिक शक्तिहीन हो गए। तब देवताओं को पूर्णरूप से परास्त करने के लिए अभिमानी दैत्यों ने उन पर आक्रमण कर दिया और भीषण युद्ध करने लगे। यह युद्ध अनेक वर्षों तक चला। दोनों पक्षों की ओर से दिव्यास्त्रों और अनेक प्रकार की मायाओं का विचित्र प्रयोग किया गया । यह युद्ध ऐसा प्रतीत होता था मानो प्रलयकाल आ गया हो।
दैत्य अपूर्व बल का वर प्राप्त कर चुके थे, अत: उनके बल के समक्ष देवता धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ते गए। उनकी यह दुर्दशा देखकर परम दयालु भगवती दुर्गा ने अपने तेज को देवताओं में स्थापित कर दिया। भगवती की शक्ति प्राप्त होते ही सभी देवता पुनः बलशाली और शक्तिसम्पन्न हो गए और पूरे उत्साह के साथ युद्ध करनेलगे। देवताओं को शक्तिसम्पन्न होते देख दैत्य भयभीत हो गए और प्राण बचाकर पाताल में छिप गए। इस प्रकार भगवती दुर्गा की कृपा से इस देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय हुई।
देवगण इस बात से अनजान थे कि भगवती की शक्ति के कारण ही उनकी विजय हुई है। वे तो इसे अपने बल की जीत मान रहे थे और सभी लोकों में अपनी शक्ति का बखान करते हुए घूम रहे थे – ” हमारी शक्ति के सामने कोई नहीं टिक सकता। हम इस जगत् में सर्वोपरि हैं। दैत्य हम जैसे शक्तिशाली देवों से युद्ध करने आए थे। शायद वे नहीं जानते कि हम इस सृष्टि के संचालक हैं। हमारी इच्छा के बिना यहाँ कुछ भी सम्भव नहीं है। यदि हम चाहें तो दैत्यों का अस्तित्व पल भर में समाप्त कर दें। “
देवताओं को अहंकार के नशे में चूर देखकर भगवती उन्हें सबक सिखाने के इरादे से यक्ष के रूप में प्रकट हुईं। उनका तेज सूर्य के प्रकाश को भी क्षीण कर रहा था। यक्षरूपी देवी भगवती केवल एक प्रकाशपुंज के रूप में थीं। तेजमय यक्ष को स्वर्गलोक के निकट देखकर देवर्षि नारद देवसभा में उपस्थित हुए और देवराज इन्द्र से बोले – “देवेन्द्र ! स्वर्गलोक से कुछ ही दूरी पर एक दिव्य तेजमय यक्ष प्रकट हुआ है। ये किसी दुष्ट की चेष्टा है या किसी असुर की माया इस बारे में बताना कठिन है। राजन ! ऐसा तेज पहले कभी दिखाई नहीं दिया। देवताओं के हित में उसके बारे में पता लगाना आपका परम कर्तव्य है। आप इसी क्षण उसके बारे में समुचित जानकारी प्राप्त करें। “
देवर्षि नारद की बात सुनकर देवता परस्पर विचार करने लगे। अंत में इस कार्य के लिए अग्निदेव को चुना गया। इन्द्र ने अग्निदेव से कहा – ” हे अग्निदेव ! देवताओं में श्रेष्ठ होने के कारण तुम्हें देवताओं का मुख कहा जाता है। तुम्हारा बल अपरम्पार है। तुम्हारी शक्ति के सामने कोई नहीं टिक सकता। इसलिए तुम जाकर उस यक्ष के बारे में जानकारी जुटाओ ।”
जिज्ञासा से भरे अग्निदेव तत्क्षण स्वर्ग से चल पड़े और पल भर में यक्ष के पास पहुँच गए। यक्ष को देखकर अग्निदेव गर्व भरे स्वर में बोले – ” हे मायावी ! मैं अग्निदेव हूँ। जगत् को पल भर में भस्म कर देने की शक्ति है मुझमें | मेरी तीव्र लपटों से प्राणी त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। अपने बारे में सब साफ़-साफ़ बता दो। वरना मैं तुम्हें पल भर में भस्म कर दूँगा । ‘
अग्निदेव के गर्वयुक्त वचन सुनकर यक्ष ने उनके सामने एक तिनका रख दिया और कहा – “हे अग्निदेव ! मैं तुम्हारा पराक्रम देखना चाहता हूँ। तुम में जगत्को भस्म करने की शक्ति है तो ज़रा इस तिनके को जला कर दिखा दो । तब मैं अपने बारे में तुम्हें सबकुछ बताऊँगा।
अभिमानी अग्निदेव ने तीव्र ज्वालाएँ प्रकट कीं और तिनके को जलाने का प्रयास करने लगे। किंतु अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी वे उसे नहीं जला सके। अंत में वे लज्जित होकर लौट गए और इन्द्र को सारी बात बताई।
तब देवराज इन्द्र ने वायुदेव से कहा – ” हे वायुदेव ! तुम में यह सारा जगत् ओत-प्रोत है। तुम्हारी शक्ति से ही संसार सचेष्ट बना हुआ है। तुम प्राणरूप होकर प्राणियों के शरीर में सम्पूर्ण शक्तियों का संचार करते हो। तुम्हीं उस यक्ष के बारे में समुचित जानकारी प्राप्त करो। “
देवराज इन्द्र के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर वायुदेव भी गर्व से भरकर यक्ष के समीप पहुँचे और उससे अपना परिचय देने को कहा । यक्ष ने अपनी बात दोहराते हुए कहा – ” वायुदेव ! तुम्हारे सामने यह तिनका पड़ा है। इसे अपनी शक्ति से उड़ा दो। और यदि तुम यह नहीं कर सकते तो अभिमान त्यागकर देवराज इन्द्र के पास लौट जाओ।”
यक्ष का कथन सुनकर वायुदेव ने उपहासपूर्वक एक फूँक मारी, लेकिन जब तिनका नहीं उड़ा तो वे पुनः कोशिश करने लगे। फिर वे पूरी शक्ति लगाकर उस तिनके को उड़ाने में लग गए। किंतु अपने प्रयास में वे सफल नहीं हुए। अभिमान चूर होने पर वायुदेव लज्जित होकर देवताओं के पास लौट गए और इन्द्र से बोले “देवराज ! अग्निदेव ठीक ही कहते थे । वह यक्ष बड़ा मायावी लगता है। उसने हमारे अहंकार को चूर करके रख दिया है । “तब सभी देवता इन्द्र से बोले – “हे देवराज ! आप देवताओं के स्वामी हैं। देवासुर संग्राम में आप ही हमारा नेतृत्व करते हैं। दैत्य आपके नाममात्र से ही काँप उठते हैं। अब आप ही उस यक्ष के बारे में पता लगाइए। आपकी शक्ति के आगे वह यक्ष अवश्य टूट जाएगा । ” अपनी प्रशंसा सुन इन्द्र अभिमान में भरकर यक्ष के पास गए। वे जैसे ही उसके पास पहुँचे, वह तेजस्वी यक्ष उसी क्षण अंतर्धान हो गया। यक्ष के बिना बात किए अदृश्य हो जाने से देवराज इन्द्र को बड़ी आत्मग्लानि हुई । वे सोचने लगे ‘अब स्वर्ग किस मुँह से जाऊँ । देवता मेरा उपहास उड़ाएँगे । ‘
इन्द्र इस प्रकार विचारमग्न थे, तभी एक आकाशवाणी गूँजी – “हे देवेन्द्र ! इस संकट से उबरने के लिए तुम भगवती के मायाबीज मंत्र का जप करो । ‘ इन्द्र ने अभिमान त्यागकर मायाबीज मंत्र का जप शुरू कर दिया । इन्द्र को जप करते हुए अनेक दिन बीत गए ।
फिर एक दिन चैत्रमास के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि के अवसर पर इन्द्र के सामने एक विराट् दिव्य तेज प्रकट हो गया। उस दिव्य तेजपुंज से उमा नाम की एक देवी प्रकट हुईं। उमा देवी के शिव के समान तीन नेत्र थे। चारों वेद साक्षात् प्रकट होकर उन देवी की स्तुति कर रहे थे। उनके दर्शनमात्र से इन्द्र का हृदय भक्ति से गद्गद् हो गया।
देवराज इन्द्र ने भगवती उमा को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करते हुए बोले – “माते ! वह यक्ष कौन था और यहाँ किस प्रयोजन से प्रकट हुआ था ? यह जानने के लिए मैं बड़ा उत्सुक हूँ। यह रहस्य बताने की कृपा करें। “
तब भगवती उमा बोलीं ‘वत्स ! जगत् की सृष्टि, पालन और संहार-मेरी ही माया के वशीभूत हैं। मैं ही शक्ति के रूप में सब जगह स्थित हूँ। मेरी ही कृपा से तुम दैत्यों को पराजित करने में सफल हुए थे, किंतु अभिमानवश ये सब भूलकर तुम भोग-विलास में डूब गए थे। इसलिए तुम्हारी आँखें खोलने के लिए ही मेरा तेज यक्ष के रूप में प्रकट हुआ था । वस्तुत: वह मेरा ही रूप था। अतः अब तुम भोग-विलास छोड़कर यत्नपूर्वक शासन करो और परब्रह्म स्वरूप भगवती जगदम्बा को सदा याद रखो। “
अब तक सभी देवता वहाँ आ चुके थे। सबने भक्तिभाव से उमा देवी की स्तुति की और उनके आदेश को गाँठ में बाँध लिया।
