chitiyan
chitiyan

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

20.07.2001

माननीय महोदया,

लंबे इंतजार के बाद आज आपकी चिट्ठी क्या मिली, मुझ मुरझाई बेल की जड़ों को जैसे अमृत से सींच दिया हो किसी ने। धन्यवाद! सच कहूं तो अब तक जवाब की उम्मीद खो बैठी थी। भूल गई थी कि मुझ जैसी हजारों हजार अभागनों के खत रोज आप तक पहुंचते होंगे। कितना पढ़ें और कितनों को जवाब दें। आपने मुझे जवाब लायक चुना, आभारी हूं।

स्थानीय नारी निकेतन में जगह पाने की सलाह और किसी भी किस्म की अड़चन आने पर सिफारिशी पत्र देने की पेशकश के लिए मैं आपकी आभारी हूं। आप लोगों के कन्सर्न और सहायता के भरोसे ही हम दुखिने आशा की डोरी थाम सकती हैं, लेकिन मैं समझ नहीं पाई, नारी निकेतन का विकल्प आपने मेरे लिए क्यों चुना? क्या इसलिए कि मैंने हॉस्टल में रहने की ख्वाहिश जताई है? लेकिन उसकी तो कई वजहें हैं न मेरे पास। हॉस्टलों में भले घरों की लाज, शालीनता और गरिमा महफूज रहती है, जस की तस। उघड़ कर चिंदिया-चिंदिया नहीं होती, नारी निकेतनों की तरह कि नंगे चेहरे को ढांपने के लिए अपनी ही हथेलियां मयस्सर न हों। बेसहारा होने का मतलब बेछत होना तो नहीं होता न! सिर छुपाने को एक अदद छत तो है ही मेरे पास, लेकिन औरत को सिर के अलावा और भी बहुत कुछ छुपाना होता है, इसे आप जैसे अनुभवी महिला को बताने वाली भला मैं कौन होती हूं। मैं जिसने जीवन के कुल साढ़े अट्ठारह पतझड़ ही देखे हैं।

कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने मेरी पूरी चिट्ठी ही न पढ़ी हो? न न, भला ऐसा कैसे हो सकता है? जरूर मैं ही ठीक तरह से अपनी बात नहीं कह पाई हूंगी। अपने को लेकर सदा से मितभाषी रही हूं न। मां-बाप की परेशानियों को देखते हुए बचपन से ही अपने को समेट-सिकोड़ कर रखने की आदत। बस चलता तो शायद अपने वजूद को ही अदृश्य कर लेती, लेकिन कल्पना और हकीकत के बीच गहरी खाई मौजूद रहती है। न पाटी जा सकने वाली खाई। अच्छा, क्या आपको नहीं लगता कि बिल्कुल निर्जन द्वीप पर निपट अकेले खड़े हैं आप। खाली हाथ! खौफ और सन्नाटे के साथ! चारों ओर पानी और दूर पानी के पार कोई सतरंगी महकती-लहकती दुनिया आपके इंतजार में बांहें अकुलाती है। भीतर उत्साह, ऊर्जा और उमंग का समंदर ठाठे मार कर बुलाता है-आओ! चलें उस पार! काश, एक कश्ती ही होती, छोटी सी और दो पतवार! या लकड़ी का लट्ठा ही… बहुत आसान नहीं हो जाता होगा तब सात समंदरों को भी पार कर लेना! फिर खाइयां पाटने में ऐसी क्या मुश्किल!

“शेखचिल्ली!” पप्पा मेरी नाक झिंझोड़ देते थे जोर से।

“क्यों” मैं अनखा जाती थी, “सफर शुरू करने के लिए एक जोड़ी पैर और अकूत हौंसले के अलावा और क्या चाहिए इन्सान को?” मैं प्रश्नभरी निगाहों से उन्हें देख कर इठला जाती, “मेरे पास सब कुछ है। ढेर सारा।” और अनायास मेरी दोनों बाहें फैल जाती, असीम विस्तार के प्रस्तावन में।

पप्पा मगजमारी नहीं करते। वे सामान से टुसा झोला साइकिल पर लादने लगते, “और चाहिए ठोस पुख्ता जमीन।”

मैं हँस देती, माथे पर हाथ मार कर, “जमीन तो सबके पास होती है, बुद्धराम!”

शायद बहकने लगी हूं। पहली चिट्ठी में भी जरूर बहकी रही हूंगी। इसलिए तो अपनी फरियाद आप तक साफ-साफ नहीं पहुंचा पाई। इजाजत दें तो फिर से अपनी बात दोहरा दूं?

मैं, नयनतारा, बी.सी.ए. (बैचलर इनल कंप्यूटर एप्लीकेशन) फर्स्ट इयर की छात्रा हूं। अभी डेढ़ महीने पहले दूसरे सेमेस्टर का इम्तिहान दिया था। पर्चे बहुत बढ़िया हुए। आखिरी पर्चा दे नहीं पाई थी। वह हादसा न हुआ होता (पिछली चिट्ठी में जिक्र किया था न!) तो विश्वविद्यालय मे दूसरा-तीसरा स्थान जरूर आता। बारहवीं की परीक्षा में मेरे सत्तासी प्रतिशत अंक आए थे। इंजीनियरिंग! नहीं, ऐसे ऐय्याश सपने नहीं पालती मैं, जिनके टूटने से कांच की किरचों से बिंधा मन ताउम्र नासूर की तरह टीसता रहे और कहीं उस ऐय्याश सपने की झलक भर पप्पा को मिल जाती तो अपनी तमाम गरीबी बेच कर भी क्या उसे दो पल को मेरी आंख में सजा पाते? पप्पा मेरे प्यारे पप्पा न! दुनिया तो जाने कितनी नियामतों से भरी पड़ी है! किस-किस को देख कर ललचाए आदमी? किस-किस को पाने के लिए तड़पे? लेकिन कंप्यूटर साइंस में बैचलर डिग्री लेकर जब अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊंगी, तब जरूर सपने साकार करने की कोशिश करूंगी। राह बदल लेने से सपने खत्म नहीं होते। वे साथ होते हैं, इसलिए तो नयी राहें निकल आती हैं।

समस्या यह है कि उस हादसे के बाद मां बहत डर गई है। सात-सात तालों में बंद रख कर वह जल्द से जल्द मेरे हाथ पीले कर निश्चिंत हो जाना चाहती है। ब्याह दी गई तो मैं बरबाद हो जाऊंगी। मैं भविष्यहीन होकर जीना नहीं चाहती। मेरे सपने, अपने पैरों पर खड़े होकर आसमान से मनचाहा भविष्य तोड़ लाने के हौसले… मां मुझे पढ़ाना नहीं चाहती और मैं हर हाल में पढ़ना चाहती हूं। आपसे हाथ जोड़ कर विनती है कि आप मेरे पढ़ाई और हॉस्टल का खर्चा उठा लें। नौकरी लगने पर सारा पैसा ब्याज समेत लौटा दूंगी। चाहें तो कानूनी लिखत-पढ़त भी कर लें। मैं बालिग हूं, इसलिए घरवालों की मर्जी के खिलाफ अपने भविष्य के लिए कोई भी फैसला लेने को कानून स्वतंत्र हूं। जरूरी कार्रवाई के लिए जन्म प्रमाणपत्र साथ लगा रही हूं। मेरी छमाही फीस छः हजार रूपये है। हॉस्टल के खर्चे के बाबत अभी पता नहीं किया। फीस मुझे न देकर आप सीधे प्रिंसिपल के नाम भी बैंक ड्राफ्ट भेज सकती हैं।

आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगी। महिला सशक्तीकरण वर्ष में कमजोर जरूरतमंद महिलाओं को समय पर मदद पहुंचा कर सशक्त करने के लिए महायज्ञ में आप लगी हैं, उसमें मेरे नाम की एक आहुति मेरे जीवन को कितना संवार देगी, मैं बता नहीं सकती।

पत्र की प्रतीक्षा में,

अभागन

नयनतारा


26.7.2001

माननीय महोदया,

आज ही आपकी चिट्ठी मिली। धन्यवाद! आप उस हादसे के बारे में तफसील से जानना चाहती हैं जिसने मेरी जिंदगी को इस कदर झकझोर दिया कि मां अपने हाथों पाताल में फेंकने को मजबूर हो गई मुझे। हादसे कह कर नहीं आते। भूचाल की तरह क्षणांश के लिए आते हैं, लेकिन उनकी धमक दहशत बन कर बरसों जिंदगी को वीरान किए चलती है। यूं भी रंग-रूप अलग होने पर हादसे कमोबेश सब एक ही होते हैं। एक-सी पीड़ा, एक-सी यंत्रणा! शारीरिक-मानसिक! कुछ टूटता है, जो दुबारा कभी नहीं बनता। हाथ-पैर–दांत-गर्दै-फेफडे. शरीर के किसी भी अंग की तरह! बेशक आज साइंस की मदद से उन्हें रिप्लेस किया जा रहा है, लेकिन उनका होना मूल के टूट जाने को खारिज तो नहीं कर सकता न!

जिन सामाजिक-मानसिक-संस्कारग्रस्त दबावों में मां निरंतर जी रही है, उनमें अपनी जीवित होने को लेकर ही मैं शर्मशार हूं। फिर भी जीवित हूं, क्योंकि विश्वास है पढ़ कर अच्छी नौकरी पाने के बाद मां को वो तमाम आराम दे सकूँगी, जिन पर किसी भी नागरिक का मौलिक अधिकार बनता है। आर्थिक-सामाजिक-मानसिक-भावनात्मक आराम! हमारे परि
वार की आर्थिक हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। पहले पत्र में बताया था, पप्पा की टी.बी. से मृत्यु के बाद हम बेसहारा हो गए थे। चाचा-मामा की ओर से किसी की कोई मदद नहीं। हमें गिला भी नहीं। मां कहती है, पप्पा की जगह चाचा या मामा गुजरे होते तो तमाम संवेदना के बावजूद हम उनके परिवार को कंधा नहीं लगा सकते थे। हमारे अपने बिखर जाने का डर बना रहता। पप्पा की परचून की छोटी सी दूकान थी। दुकान के बाहर तख्त बिछा कर वे सब्जियां भी सजा देते थे। जीने लायक गुजारा हो जाता था। इतना कि हाऊसिंग बोर्ड कॉलोनी में एक कमरे-रसोई का मकान किस्तों पर खरीदने का हौंसला कर लिया था। अब तो किस्तें भी खत्म होने वाली हैं। बस, सोलह महीने और। हां, आखिरी दिनों में पप्पा ने मकान के पिछवाड़े में एक छोटा-सा कमरा और बनवा लिया था-मेरी पढाई के लिए। पप्पा को मुझसे बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन उम्मीदों का क्या है, कोई भी पाल ले। न खिलाना, न पिलाना, उड़े रहो संग-संग। वो तो आंख तब खुलती है, जब खूब ऊंचे ले जाकर उम्मीदें हाथ छोड़ नीचे धकेल देती हैं। गिरो, मरो, उन्हें तो ताली बजा कर तमाशा देखने से मतलब है, बस!

मैं फिर बहकने लगी। होता है। अंतर्मुखी व्यक्ति जब चुप्पी तोड़ता है तो सैलाब बनकर बह जाता है। फिर, जब आप जैसे दयालु लोग हमारे ही दु:ख-दर्द सुनने-बांटने के लिए तत्पर हों।