chitiyan
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मेरी मां बहुत हौंसले वाली औरत है। निवार की फोल्डिंग चारपाइयां और बेंत की कर्सिया बनने में उसका कोई सानी नहीं। आसपास के मुहल्ले-बस्तियों में घूम-घूम कर वह अपने लिए हमेशा काम ढूंढती रही है, लेकिन आजकल उसे फुर्सत नहीं। वह सुबह-सवेरे सब्जी मंडी जाकर ताजा सब्जियां खरीदती है। कोई चार किलोमीटर है सब्जी मंडी। गर्मी हो, सर्दी हो, पैदल जाएगी। पैसा बचाने, लेकिन कहती है, सैर हो जाएगी। कसरत! अब बताओ, कसरत के चोंचले हमारे जैसों को भी करने पड़ेंगे, जिन्हें…. नहीं, अब नहीं भटकूगी। मोलभाव करके साढ़े नौ-दस बजे के करीब थ्री व्हीलर पर सब्जियां लदवा कर लौटती है तो मुंह बासी तुरई सा पिचक कर काला हो जाता है। सबह की भखी-प्यासी! केवल एक प्याला चाय! फिर सब्जियां धोना। लगाना। बीच-बीच में ग्राहकों को भुगताना। छुट्टी वाले दिन गुड और आरती (मेरे छोटे भाई-बहन-आयु क्रमशः दस और तेरह बरस) की वजह से मां को कुछ राहत मिल जाती है, पर कितनी देर! वह वहीं दुकान के सामने कुर्सियों की भराई करने लगती है। पल भर को जो कभी आराम किया हो। मुझे डर लगता है-एक तो टी.बी. जैसी बीमारी वाला घर, दूसरे, दिन-रात की मेहनत। खाने को पौष्टिक भोजन नहीं। कल को कुछ हो गया तो!

मां टूट गई है। मेरी वजह से। वह अपने को पापिन और अपराधिन समझती है। मैं बहुत समझाती हूं, फिर भी। अगर आप उन्हें चिट्ठी लिख कर मुझे पढ़ाने और हॉस्टल का खर्चा उठाने की बात लिख देंगी तो शायद उन्हें तसल्ली मिल जाए। हम नाचीज आप जैसे बड़े लोगों का मुँह देखकर ही जो जीते हैं। चिट्ठी लिखेंगी न, मां के नाम!

अभागन

नयनतारा

पुनश्चः मां चिट्ठी पढ़ नहीं पाएगी, लेकिन सुन कर समझ जाएगी। वो तो वक्त की मार है, वरना मां किसी से कम नहीं।

नयनतारा


28.7.2001

माननीय महोदया,

आज ही मेरे दूसरे सेमेस्टर का परीक्षा परिणाम घोषित हुआ है। आखिरी पर्चे में री-एपीयर आई है। वह मैं दे नहीं पाई थी। शेष सबमें अट्ठासी प्रतिशत अंक बनते हैं। मर्कशीट की फोटो कॉपी भिजवा रही हूं। आप शीघ्र ही हॉस्टल खर्चे के साथ फीस भेजने की कानूनी औपचारिकताएं पूरी कर लें तो मैं बेफिक्र हूंगी। तीन हफ्ते के भीतर-भीतर 21 अगस्त तक दाखिला रिन्यू करा कर तीसरे सेमेस्टर की फीस जमा करानी है।

मां मेरे हाथ पीले कर देने को आमादा हैं। हालांकि किसी को उस हादसे के बारे में ज्यादा मालूम नहीं। कुछ कानाफूसियां जरूर होती हैं, पीठ पीछे। पर मां को लगता है सब उस पर हँस रहे हैं। मखौल उड़ा रहे हैं। उसे यह भी डर है कि मुझ पर कोई कभी भी झपट सकता है। जब ठीक अपने ही घर में… मां का मन दुकान चलाने में नहीं लगता। वह हर घड़ी मुझे अपनी नजरों में बांधे रखना चाहती है। हां, हमने वो कमरा खाली करवा दिया है जिसे पप्पा ने मेरे पढ़ाई के लिए बनवाया था, लेकिन जिसे हमने उनकी मौत के बाद किराए पर उठा दिया था। हर महीने मिलने वाले पांच सौ रूपयों से कितनी मदद हो जाती थी, अब पता चलने लगा हैं सिर के नीचे कुछ न हो. तभी तकिए की अहमियत समझ आती है।

फीस भेज देंगी न? और मां को चिट्ठी भी। वरना सलीव पर टांग दी जाऊंगी मैं।

अभागन

नयनतारा


31.7.2001

माननीय महोदया,

मुझे खुशी है कि मेरे केस पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने के लिए अगले महीने की तीन तारीख को आपने विशेष मीटिंग बुलाई है। सच कहूं तो चिट्ठी पढ़ते ही लगा, मेरे पैरों के नीचे पुख्ता जमीन है। न सही समतल सपाट। ऊबड़-खाबड़ पर भी चल लूंगी। ताउम्र चलती ही रही हूं। रात को सपना भी देखा कि ऊबड़-खाबड़ कंकरीली जमीन पर दौड़ते-दौड़ते मेरे पैर लहूलुहान हो गए हैं। धप-धप… मैं आगे बढ़ रही हूं ओर पैरों की लाल छाप कभी बिंदु बनकर, कभी लकीर बनकर पथरीली जमीन पर बिछ रही है। मैं बेखबर भाग रही हूं सरपट। लाल फीते को चीर कर। तभी बहुत से नरम हाथ मुझे थाम लेते हैं। चारों तरफ तालियां, सीटियां, मैराथन में पहला स्थान पाने के लिए कु. नयनतारा को स्वर्ण पदक, मैडम विश्वास कीजिए, मैं लंबी रेस का घोड़ा हूं। आप मुझ पर दांव लगाइए, निराश नहीं होंगी। नौकरी लगने पर ब्याज समेत पाई-पाई चुका दूंगी। पढ़ने का मौका मिला तो नौकरियां जरूर मेरे कदम चूमेंगी। काबिलियत की कद्र हर अंधेर नगरों में भी होती रही है।

हादसे का बयान करने में मुझे कतई कोई डर नहीं। चुप रही हूं तो इसलिए कि लाज नाम की एक चीज हुआ करती है जो मखमल न मिलने पर बदन को चिथड़ों में लपेट कर खुद को महफूज रखती है। डर सिर्फ निर्वसन होने का है। बेशक नंग बड़ा भगवान से, पर मैं तो भगवान भी नहीं बनना चाहती। चाहती हूं पढ़ाई पूरी करके नौकरी पाना, मां और छोटे भाई-बहन को वह सब देना, जो पैसे की कमी ने एक-एक कर हमसे छीन लिया है। चाहती हूं समाज में सम्मानजनक जगह बनाकर मां को गहरे दंश से मुक्त कराना, जिसका होना मेरे ‘होने’ की वजह से ही था।

मैं नहीं जानती खबर और हादसे के अलावा बलात्कार में दिलचस्पी लेने लायक और भी कुछ है। इसलिए समझ नहीं पा रही क्यों डिटेल्स पर आप लोग इतना जोर दे रहे है? कैसी औपचारिकताएं? कैसी तकनीकी जरूरतें? क्या मीटिंग में आप लोग अपनी-अपनी आंखों पर कैमरे लगा कर मुझे फड़फड़ाते देखना चाहते हैं कि कैसे वो दरिंदा अपने एक दोस्त के साथ दबे पांव हमारे कमरे में घसा. वो दरिंदा. जिसे भलामानस समझकर हमने किराएदार बनाया था, जो स्कूल मास्टर था। मेरे बाप की उम्र का अपने दोस्त के साथ, जब मैं घर में अकेली थी, अकेली और बेपरवाह, आखिरी पेपर की तैयारी में मशगूल। गली में दूर तक जून की चिलचिलाती धूप और पुराने सैकिंड हैंड कूलरों की खड़खड़ाहट भरा तीखा शोर। आरती-गुड्डू मुझे डिस्टर्ब न करें, इसलिए मां के साथ दुकान पर। तब, तब आया था वो दरिंदा अपने दोस्त के साथ… देख रहे हैं न आप! मुझे लुटते-पिटते-नुचते! एक अदद सुकून से सराबोर होते-बैंक गॉड, मेरी बेटी के साथ नहीं हुआ ऐसा! बैंक गॉड, हमारी बेटियों की तरफ आंख उठाने की जुर्रत नहीं करता कोई! जी हां, मैं नहीं हूं बड़े घर की बेटी। इसलिए पिछले पौने दो महीने से बार-बार हाथ जोड़ कर एक ही विनती कर रही हूं, मेरी मां-अनपढ़ जाहिल गंवार मां-बेहद डर गई है। समाज से, मुझ से, अपने आप से। मेरी हिफाजत के लिए वह मेरे गले में ब्याह का पट्टा डाल देना चाहती है। कुछ गलत भी नहीं सोच रही वो। अभी भेद ढांप रखा है उसने। जिस दिन खुल गया, बाकी परिवार को भी निगल जाएगा। आरती का ब्याह, गुड़ का भविष्य परिवार की लाज….

इसलिए हाथ जोड़ कर बार-बार फरियाद कर रही हूं… मेरी आर्थिक मदद कर दीजिए, प्लीज! वक्त पर बारिश की हल्की सी झड़ी भी खेतों में सोना उगा देती है। मैं पढ़ना चाहती हूं। पढ़ने में तेज हूं। जरूर अच्छी नौकरी पा लूंगी, सूद समेत एक-एक पैसा चुका दूंगी। सवाल मेरी जिंदगी संवरने का नहीं। मेरे साथ तीन और जिंदगियों के संवरने का भी है। वरना आप जानती हैं, एक मौत कभी-कभी पूरे खानदान को ही मिटा डालती है।

शायद बरस गई हूं आज। दिल घटाटोप बदलियों का भार बहुत देर तक संभाल नहीं पाता।

चिट्ठी की राह में!

अभागन

नयनतारा

पुनश्चः माइग्रेशन के लिए आवेदन कर दिया है। पास के दो शहरों के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट के प्रोस्पैक्टस भी मंगवा लिए हैं। इसी विश्वविद्यालय से संबद्ध होने के कारण माइग्रेशन में कोई कठिनाई नहीं आएगी। पहली बार हॉस्टल का खर्च भेज दीजिए। फिर तो जैसे-तैसे मैं खुद ही जुगाड़ कर लूंगी। कुछ ट्यूशन और कपडे सी कर। मां की नजर से दूर रहूंगी तो शायद उसके जख्म भरने लगें। मेरे जख्म, पता नहीं। वो दरिंदा उन लम्हों के साथ पल भर को भी आंख से ओझल नहीं होता।

नयनतारा


5.8.2001

माननीय महोदया,

आज के अखबार में बलात्कृत लड़कियों की दशा पर संस्था की रिपोर्ट और विशेष लेख पढ़ा। जिस लाज को मां जतनपूर्वक चिथड़ों से ढांपे हुए थी, उसे आपने किस होशियारी से उघाड़ दिया है। बधाई! नहीं व्यंग्य नहीं। शुक्रगुजार हूं। मुझ नयनतारा को वहां आपने दीपा बना दिया है, लेकिन नाम बदल देने से पेड़ और खुशबू, गलियां और संस्कृतियां, मकान और अहाते तो नहीं बदलते न! वे तो अपने उसी हुलिए, उसी कद-काठी के साथ वही पहचान बनाए शान से जिए चलते हैं! फिर इन्सान तो इन सबसे अलग है बड़ा और विशिष्ट, अंगूठे की ओट में छुप सकता है पूरा का पूरा, लेकिन उसकी नाक शिकारी कुत्ते की तरह अनकहा सब कुछ सूंघ लेती है। अब तो सब कुछ दिन के उजाले की तरह साफ हो गया है। कानाफूसियां फिकरों में बदलने लगी हैं। फिकरे हिकारत में। आरती पर भी शक की निगाहें। मैं तो मानो हूं ही अलिफ नंगी। किस-किस अंग पर दांतों-नाखूनों के कितने गहरे-नुकीले दाग बने होंगे, इन अनुमानों के साथ सबका मनोरंजन करने वाली सार्वजनिक देह! लेकिन मैं अपने दर्द की बात क्यों करूं? दर्द को तमाशा बना कर मजमा जोड़ लेंगी न आप!

नयनतारा


11.8.2001

माननीय महोदया,

मां गुमसुम रहने लगी हैं। जब बौखलाती थी तो मां-सी अपनी-अपनी लगती थी। अब तो जैसे… जाने दो। दुकान पर बैठना छोड़ दिन-रात रिश्तेदारियों में चक्कर लगाती है। लड़के की तलाश में। कोई भी लड़का। कैसा भी। कमाऊ हो या न। दागल लड़की के लिए साबुत और साफ लड़के नहीं देखे जाते। मुझे नहीं लगता किसी भी कीमत पर वह मुझे हॉस्टल जाने की इजाजत देगी. लेकिन आप फीस भेज दीजिए। मैं बिना बताए निकल जाऊंगी। बालिग हूं, इसलिए घरवालों की मर्जी के खिलाफ अपनी बेहतरी के लिए निर्णय लेने को कानून स्वतंत्र हूं। एक बार तूफान तो आएगा। बहुत कुछ तहस-नहस भी होगा, लेकिन बाद में सब ठीक हो जाएगा मेरी नौकरी लगते ही। तूफान अधिक देर तक बने नहीं रहते।

मैंने अपना एडमिशन फार्म एपटेक कॉलेज, सोनीपत में जमा करा दिया है। लड़कियों का हॉस्टल भी है वहां। बहुत बड़ा तो नहीं, लेकिन घर की गरिमा और गरमाहट तो होगी ही। फीस जमा कराने की आखिरी तारीख 21 अगस्त है। हॉस्टल की फीस जमा कराने की दस सितंबर। आप सीधे प्रिंसिपल के नाम छह हजार रूपये का बैंक ड्राफ्ट भिजवा दें तो आभारी हूंगी। यकीन मानिए, मेरा रोम-राम आपके उपकार से ताउम्र बंधा रहेगा। समझ लीजिए आपकी अपनी बेटी हूं। नहीं, बेटी होने की जुर्रत नहीं करूंगी। आपका अपना रूतबा और नाम है। समझ लीजिए, ऑफिस के पर्दे बदल लिए या खुश होकर स्टाफ को बढ़िया सा डिनर दे दिया। बस, इना सा ही तो। मेरी जिंदगी संवर जाएगी। एक साथ चार-चार जिंदगियां संवारने का पुण्य! लेकिन धर्म और परमात्मा की बातें कहीं हम जैसे कमजोर बेसहारा लोग ही तो नहीं करते?

अभागन

नयनतारा

पुनश्चः मां को चिट्ठी लिख कर जरूर समझा दीजिए, ऐसे हादसे होते रहते हैं। फ्लू और जुकाम समझ कर इन्हें भुला दिया जाना चाहिए। ज्यादा ही दिल से लगाना हो तो घुटने का फ्रैक्चर जितना गंभीर। बस! मौत का फरमान बन कर हँसती-खेलती जिंदगी को चलती-फिरती लाश बना दे, ऐ भी क्या पागलपना!

मां को समझाइए न, मैं आज भी उतनी ही पवित्र हूं। और बेकसूर! फिर सजा मुझे क्यों?

नयनतारा


17.8.2001

माननीय महोदया,

31 जुलाई के बाद आपकी कोई चिट्ठी नहीं मिली। डाक की गड़बड़ी के खयाल से पिछले कई दिनों से हैड पोस्ट ऑफिस जाकर अपनी कॉलोनी की सारी डाक छांट आती हूं। क्या सचमुच आपने कोई चिट्ठी नहीं लिखी?

कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी चिट्ठियां ही आपको न मिल रही हों? या मिलती भी हों तो किसी कारणवश आप जवाब न दे पा रही हों? कहीं ऐसा तो नहीं कि तमाम सद्भावनाओं के बावजूद आप चाह की भी मेरी मदद न कर सकती हों, क्योंकि आपकी संस्था के कोड में किसी दुखियारी की ऐसी कोई डायरेक्ट आर्थिक मदद की लिखित अनुमति नहीं? लेकिन नियम तो बाधाओं का मुकाबला करने के लिए बनाए और बदले जाते हैं न! बाधाएं नियमों को निगल लें, इतने बौने और बेचारे तो नहीं ही होते नियम या कहीं ऐसा तो नहीं कि बार-बार एक ही फयियाद पढ़ कर आप झल्ला गई हों और सोचती हो, जान न पहचान, यह लड़की मेरे गले क्यों पड़ रही है? सचमुच गले ही पड़ रही हूँ, लेकिन इसके अलावा और करूं भी क्या? इतनी बड़ी महिला संस्था की अध्यक्ष हैं आप। आपके अतिरिक्त किसी और के आगे हाथ फैलाना भी नहीं चाहती। जानती हूं, जिस किसी भी स्थानीय परिचित के आगे हाथ फैलाऊंगी, वह मदद करे न करे, तुरंत मां और सबको राई-बत्ती बात बता देगा। फिर तो मेरे लिए सारे रास्ते सीलबंद हो जाएंगे और मैं ताबूत के अंदर। दूसरे, मुझे लगता है (हो सकता है कच्ची उम्र और भावुक नजर होने के कारण मैं गलत होऊ) बराबरी के तल पर कोई किसी की मदद नहीं करता। कुछ देने की एवज में उसके आत्मसम्मान और अहं को गिरवी पहले रख लेना चाहता है। मेरी कुल संपत्ति ही यही है। यही न रही तो लम्बी जद्दोजहद के लिए ताकत कहां से पाऊंगी?

समझ रही हैं न आप?

प्रिंसिपल के नाम बैंक ड्राफ्ट के इंतजार में,

अभागन

नयनतारा

21.8.2001

माननीय महोदया,

दाखिले की तारीख निकल चुकी है। लेट फीस के साथ अभी दस दिन बाकी है-31 अगस्त तक। मुझे उम्मीद है आप जरूर मदद करेंगी।

मां ने लड़का ढूंढ लिया है। इकतीस बरस का विधुर। एक लड़का भी है-पांच बरस का। पहले किसी बेकरी में काम करता था। आजकल खाली है। वह हमारी दुकान चलाएगा। भट्ठी और सांचे लाकर बिस्कुट-ब्रेड भी तैयार करेगा। मां उसे जंवाई बनाने को तैयार है। मेरी राय पूछी नहीं गई। सारा शहर जानता है मेरे साथ उस चिलचिलाती दोपहर को मास्टर और उसके दोस्त ने क्या किया। लानत-मलामत के बावजूद वह लड़का मुझे अपनाने को तैयार है। मां उसके पैर पूजने की बात करती है। शादी की साइत जल्दी निकलवाने की बात भी चल रही है।

कृपा करके आप चिट्ठी मिलते ही फौरन छः हजार रूपयों का बैंक ड्राफ्ट प्रिंसिपल के नाम भिजवा दें। मैं जीना चाहती हं-अपने पैरों पर खडे होकर। यदि आप ही मुझ जैसे अभागन की मदद को नहीं आएंगी तो कौन हमें जीने देगा?

मैं वादा करती हूं रकम चुकाने के बाद भी मैं उम्र भर आपकी बांदी बनी रहूंगी।

प्लीज! मुझे नर्क में न धकेलिए। सिर्फ आप ही मेरा उद्धार कर सकती हैं।

अभागन

नयनतारा


27.8.2001

माननीय महोदया,

लेट फीस के साथ एडमीशन लेने में कुल चार दिन रह गए हैं। अब भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी। खुदा के घर देर हैं, अंधेर नहीं। वह मुझ सी बेकसूर लड़कियों के साथ भला क्यों सितम ढाएगा, जबकि मैं तो पढ़-लिख कर जिंदगी संवारने का सपना लेकर चल रही हूं। मुझे दूसरी लड़कियों की तरह बनने-संवरने, बिना बात ही ही-खी खी करने, लड़कों को ‘लाइन’ मारने का शौक भी नहीं है, जैसा कि मुझे लगता है, आप हमारे जैसी लड़कियों को लेकर शायद सोचती होंगी। मैं बेहद शरीफ और सोबर लड़की हूं। चाहें तो खुद आकर पूरी छानबीन कर सकती हैं। कानूनी तौर पर पैसा लौटाने की सारी लिखा-पढ़त होगी, इसलिए मैं बेईमानी भी नहीं कर सकूगी। आप मुझ पर यकीन तो करिए।

मेरा मंगेतर कहता है मैं ब्यूटीशियन का कोर्स सीख कर घर में ही ब्यूटी पार्लर खोल लूं। उसी कमरे में जिसे पापा ने मेरी पढ़ाई के लिए बनवाया था। मां उसकी हर बात में हां हां करती है। मेरी पसंद-नापसंद का कोई मूल्य नहीं।

क्या आपको भी लगता है, मुझ जैसे लड़कियों को तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए? क्या वाकई मैं ही कसूरवार हूं? क्या पढ़ना और जीना मेरा मौलिक अधिकार नहीं?

अभागन

नयनतारा


15.9.2001

माननीय महोदया,

सारी अंतिम तिथियां एक-एक कर निकल गई। आर्थिक सहायता कर पाना शायद आपकी संस्था के नियमों में नहीं और नियमों में आवश्यकतानुसार संशोधन करने का नियम भी। कोई बात नहीं। दुखी मत होइए। आप सिर्फ एक बार आकर मां को समझा जाइए। हौंसला और आत्मविश्वास खोकर पस्त हो बैठी है वह दिलेर औरत। मां बहुत संवेदनशील है और समझदार भी। अगर वह मंगनी तोड़ देने पर राजी हो गई तो भी आपका कितना बड़ा उपकार होगा मुझ पर, मैं बयान नहीं कर सकती। मुझे खड़ा भर रहने के लिए दो डग जमीन चाहिए और सिर पर आसमान तक फैली छत। मैं अपना भविष्य अपने आप बुन लूंगी। बस, ब्याह के मंत्र रूकवा दीजिए। ये जमीन और छत लील लेते हैं।

आएंगी न?

चिर अभागन

नयनतारा

पुनश्चः मेरे ब्याह की तारीख तय हो गई है। 15 अक्तूबर। दशहरे के दिन। आप आ रही हैं न मां को समझाने? जल्द से जल्द। ज्यादा क्या कहूं, जिंदगी और मौत का सवाल है।

नयनतारा

निमंत्रण पत्र

कु. नयनतारा

(सुपुत्री स्व. श्री रतनलाल एंव मेवा देवी)

एवं

मोहन लाल

(सुपुत्र श्री खुशी राम एवं अंगूरी देवी)

के शुभविवाह पर आप दिनांक 15 अक्तूबर, 2001 को सायं आठ बजे उनके निवास 112, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी में सादर आमंत्रित हैं। कृपया वर-वधू को आशीर्वाद देकर उनके विवाहित जीवन की मंगलकामनाएं करें।

दर्शनाभिलाषी

विनीता

दोनों परिवारों के समस्त सदस्य

मेवा देवी

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’