रात्रि-विश्राम के बाद अगले दिन हम सबके सब शहीद मेले में थे, और मोहना बच्चों के बनाए दर्जनों बड़े-बड़े चित्रों और पोस्टरों में हमारे सामने था। इकतारा बजाता हुआ खुशदिल मोहना।…
यही नहीं, और भी बहुत कुछ, जिसकी कल्पना न मुझे थी और न पंबे बाबू को। देखा, सुबह से ही ठठ के ठठ लोग दूर-दूर के गाँवों से चले आ रहे हैं। स्त्रियाँ, पुरुष, बच्चे। कुछ बैलगाड़ियों पर, पर ज्यादातर पैदल। साथ में खाने-पीने और चना-चबेना की पोटलियाँ लिए। आपस में बतियाते हुए। जैसे चल न रहे हों, भावना में बहते हुए खुद-ब-खुद हिरनापुर की ओर खिंचे चले आ रहे हों।
इन्हें किसी ने बुलाया नहीं था। पर मोहना का आकर्षण ऐसा था कि ये आए बगैर रह भी कैसे सकते थे?
मोहना न था, पर मोहना हर जगह मौजूद था। जगह-जगह इकतारा लिए गाते हुए उसके चित्र। हिरनापुर के बच्चों ने चित्र नहीं बनाए, मानो उसे उपस्थित कर दिया था।
आसपास के गाँवों की स्त्रियाँ छोटे-बड़े दलों में लोकगीत गाती हुई चली आ रही थीं। इनमें भी जगह-जगह मोहना का जिक्र। कुछ पंक्तियाँ तो बार-बार हवा में गूँजती थी—
ऐसा जादू जगाया मोहना ने,
ऐसा तीर चलाया मोहना ने,
कि फिरंगी को छकाया मोहना ने,
सब धरी रह गईं बंदूकें,
इकतारा बजाया मोहना ने,
गाँव-गाँव को जगाया मोहना ने…!
आम मेलों जैसा मेला, पर कुछ अलग भी। इसमें उत्साह का रंग है। जोश की आँधी। यह शहीद मेला जो है।
आसपास के स्कूलों के बच्चे भी अपने अध्यापकों के साथ आए थे और बड़े उत्साह में थे। सबके दिलों में अलमस्त मोहना की तस्वीर, जो देश के लिए हँसते-हँसते अपनी जान पर खेल गया।
कोई दस-ग्यारह बजे तक मेला अच्छी तरह जम चुका था। कहीं खेल-कूद और कुश्ती के प्रोग्राम की तैयारियाँ शुरू हो गई थीं, तो कहीं बच्चों के लिए तरह-तरह की प्रतियोगिताओं की। साथ ही छोटे बच्चों के लिए गोल-गोल घूमने वाले रंग-बिरंगे चकरीदार झूले आ गए थे। कुछ छोटे, कुछ बड़े। कुछ हवाई जहाज सरीखे। थोड़े से खाने-पीने के ठेले भी।
एक तरफ चित्रवीथी थी। बड़ी सुंदर और सुरुचिपूर्ण चित्रवीथी, जिसमें स्कूलों के बच्चों के बनाए चित्र थे। देश की आजादी की लड़ाई और स्वाधीनता सेनानियों के चित्र। बच्चों ने अपनी कल्पना की आँख से एक-एक दृश्य को सजीव बनाया था।
एकाएक मंच से उद्घोष, “अब आप बच्चों से देशभक्ति के गीत और कविताएँ सुनेंगे। कृपया शांत हो जाएँ।…”
और लीजिए, अब हिरनापुर गाँव के मोहना की याद में लिखे गए गीत और कविताएँ सुनाई जा रही थीं। बच्चे इतने जोश में गा रहे थे कि सुनकर रोमांच होता था। गाँव के बूढ़े, जवान, स्त्रियाँ बच्चे सब सुन रहे थे। सबकी आँखों में नजर आया अपने गाँव के मोहना के लिए आदर और प्यार।
तभी कोई बारह-तेरह बरस की एक बालिका आई। बोली, “मैं बीनू हूँ। मैं छोटी थी, बहुत छोटी, तभी अपनी दादी माँ से एक लंबी कविता सुनी थी। वही कविता आज मैं आप लोगों को सुनाऊँगी।…”
फिर एक क्षण का मौन। बीनू अब अपनी दादी माँ के साथ है। दादी माँ नहीं रहीं, पर बीनू की स्मृतियों में वे अब भी दस्तक देती हैं।…
बीनू बता रही है, “दादी माँ अनपढ़ थीं, पर उन्हें गीत-कविताएँ सुनने का शौक था। कभी-कभी खुद भी कविता बना लेती थीं। ऐसी ही एक कविता उन्होंने मोहना पर बनाई थी। मुझे वह इतनी अच्छी लगी कि मैं दादी माँ से वह कविता बार-बार सुनती थी। सुनते समय मेरी आँखों से आँसू निकलते थे।… दादी माँ तो अब नहीं रहीं, पर वह कविता मैंने एक काॅपी में लिख ली थी। उसे आप लोगों को सुनाती हूँ।” कहकर उसने कविता की तान उठा दी—
सुनो कहानी हिरनापुर के उस अलबेले मोहन की,
जिसने जालिम अँगरेजों को हाथ उठा ललकारा था,
नहीं चलाए तीर-तमंचे, नहीं चलाईं बंदूकें,
हाथों में उसके तो केवल छोटा सा इकतारा था।
छोटा सा इकतारा था बस, छोटा सा इकतारा था,
उसने लेकिन अँगरेजों को बार-बार ललकारा था।
छोटा सा इकतारा था जो, छोटा सा इकतारा था,
हिरनापुर की ताकत था वो, हिरनापुर का तारा था।
बच्चा-बच्चा हिरनापुर का खड़ा हुआ था उसके साथ,
पूरा का पूरा हिरनापुर अड़ा हुआ था उसके साथ।
ढीली कर दी, अँगरेजी वर्दी की ढीली कर दी धौंस,
आगे जब वो चला भाइयो, नहीं उसे था कोई होश।
मरते-मरते भी अँगरेजों को उसने ललकारा था,
छोटा सा इकतारा उसका, छोटा सा इकतारा था…
बेटा था इस धरती का वो, मोहना सबसे प्यारा था,
हाथ उठाकर उसने ही अँगरेजों को ललकारा था…!
मारा गया, मगर अब तो वह आसमान का तारा है,
मोहना सबका प्यारा था वो, मोहना सबसे प्यारा है…
छोटा सा इकतारा लेकर, जिसने सबको जगा दिया,
मोहना सबका प्यारा था वो, मोहना सबसे प्यारा है…!
हम सबकी रग-रग में बहता, मोहना सबसे प्यारा है,
हिरनापुर का ताज वही है, हिरनापुर का तारा है…
मोहना सबका प्यारा था वो, मोहना सबसे प्यारा है…
मोहना सबका प्यारा था वो, मोहना सबसे प्यारा है…!!
उस बच्ची ने बड़े ही जोश में कविता सुनाई। उसकी अनपढ़ दादी ने हिरनापुर के मोहना की पूरी कहानी को ही एक लंबी नाटकीय कविता में ढाल दिया था। इतनी मार्मिक कि आँखें भीग गईं। मन हुआ कि हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करूँ।
कुछ और भी लोगों ने कविताएँ सुनाईं। गाँव के प्राइमरी स्कूल के मास्टर रंगीला साहब ने मोहना के जीवन पर एक सुंदर नाटक लिखा था। उसे कुछ बच्चों ने मंचित किया। नाटक का नाम था, ‘शहीद मोहना का इकतारा’।
नाटक में मोहना का इकतारा ही बड़े करुण स्वर में उसकी पूरी जीवन-गाथा सुनाता है—
सुनो कहानी मोहना की तुम,
सुनो कहानी मोहना की,
अमर कहानी मोहना की यह
अमर कहानी मोहना की…!
जिस बच्चे ने मोहना का पार्ट किया, उसने सच ही मोहना का सच्चा रूप पेश कर दिया। बाकी कलाकारों ने भी अच्छा काम किया। वे मूक अभिनय कर रहे थे, और पूरी कहानी मोहना के इकतारे के जरिए ही सामने आ रही थी।
एक छोटे से बच्चे को ही सुंदर मुखौटा और कुछ अलग तरह की वेशभूषा पहनाकर, इकतारा बनाया गया था। उसने बहुत सुंदर ढंग से कविता में ढाली गई मोहना की पूरी कहानी सुनाई। सुनते हुए हर कोई रोमांचित था। ऐसा लग रहा था कि मानो इतने बरसों बाद मोहना फिर से जी गया हो।
फिर सब लोग हिरनापुर के बच्चों द्वारा तैयार की गई चित्र-प्रदर्शनी देखने गए, जिसमें स्वाधीनता संग्राम की पूरी झाँकी थी। महात्मा गाँधी, तिलक, सुभाष, नेहरू, पटेल, लाला लाजपत राय, राजेंद्र बाबू सभी थे। अपने-अपने ढंग से अंग्रेजों को ललकारते हुए। और सबके बीच ही हिरनापुर का मोहना भी, जिसने सन् बयालीस की आजादी की लड़ाई में कुर्बानी देकर, अपना ही नहीं, हिरनापुर का नाम भी दूर-दूर तक अमर कर दिया।
दोपहर में सबके खाने-पीने का इंतजाम गाँव के जमींदार बाबू गंगासहाय की ओर से था।
बिल्कुल सादा सी दाल-रोटी और आलू की भाजी। पर वह अमृत से कम नहीं थी। उसके साथ हिरनापुर के महान नायक मोहना की स्मृति जो जुड़ी थी।…
उसके बाद बच्चों की रंग-बिरंगी प्रतियोगिताएँ। इनमें स्वाधीनता संग्राम को लेकर कविता, लेख या कहानी लिखने की प्रतियोगिता भी थी। बच्चे खास तैयारी के साथ आए थे और बड़े मन से लिख रहे थे।
मैंने देखा, परमेश्वरी बाबू की आँखें वहीं टिकी हैं। वे बहुत ध्यान से उन बच्चों के चेहरे पढ़ रहे थे। जैसे वहाँ हिरनापुर के मोहना की पूरी जीवन-कथा लिखी हो, जिसे वे दिल में उतार लेना चाहते हैं।
ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Bachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)
