Band Lifafa
Band Lifafa

Hindi Kahani: आभास को एक असाइनमेंट के लिए ऑफिस की ओर से अमेरिका भेजा जा रहा था। कागज़ों व फाइलों की जिम्मेदारी रेवा ने अपने हाथों में ले ली। अपनी डिग्रियाँ और सारी फाइलें संभालने के बाद उसने आभास के कागजातों को हाथ लगाया तो उसके हाथ एक बंद लिफाफा लगा। ऊपर आभास के देहरादून के बोर्डिंग स्कूल का पता था और भेजने वाले का नाम गिरीश खन्ना लिखा था। यह तो उसके पिता का नाम है। ग्यारह वर्ष पुरानी चिठ्ठी आखिर अब तक खोली क्यों न गई। उसकी उत्सुकता चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई पर उसके संस्कारों ने उसे रोक लिया। जिसके नाम की चिठ्ठी है उसे ही खोलना चाहिए यही सोचकर वह आभास के लौटने का इंतज़ार करती रही।

ऐसा नहीं था कि इस लिफाफे पर इससे पहले उसकी नजर नहीं पड़ी थी बल्कि तब भी उसने आभास को टोका था पर उसी ने बात बदल दिया था या सचमुच ही खोलना भूल गया था। कारण जो भी रहा हो पर आज इस बात का फैसला करके ही रहेगी। वैसे तो वह आभास को पिछले दस सालों से जानती थी। दोनों इंजीनियरिंग कॉलेज में साथ थे। वह उसकी बेस्ट फ्रेंड थी। दोनों की दोस्ती को देखते हुए रेवा के मम्मी- पापा ने उनके जाॅब लगने के दो वर्ष बाद उनकी शादी करा दी थी। आभास के परिवार के नाम पर बस माँ थीं। उन्हे विवाह से कोई ऐतराज ना था बल्कि बेटे की खुशी में ही उनकी खुशी थी। एक छत के नीचे तीनों बेहद खुश थे। जब दोनो के प्रेम के प्रतीक,प्रतीक का जन्म हुआ तो सब खुशी से फूले नहीं समाए। अच्छा हुआ जो उसका स्कूल में दाखिला नहीं कराया। अब वहीं पढ़ेगा। उनके बरसों की तमन्ना पूरी होने जा रही थी। इस अवसर पर खुश थे मगर आभास को मां की चिंता थी। जब रेवा के माता – पिता ने जाने की खबर सुनी तो उनकी जिम्मेदारी अपने सिर ले ली। अब उनकी सारी चिंतायें खत्म हो गई । दो हफ्ते का बाद का टिकट था तो भागदौड़ कर दंपत्ति ने लगभग सारे काम निपटा लिये। थोड़ी-बहुत शॉपिंग रह गई। इन्हीं ख्यालों में खोई रेवा आभास के कमरे में दाखिल होते ही पूछ बैठी,

“आभास! इस लिफाफे का क्या करना है?”
रख लो!”
“बिना खोले?”
“हाँ!”
“और कितने साल नहीं खोलोगे?”
“आजीवन नहीं खोलूँगा।”
“पर ये तुम्हारे पिता की चिट्ठी है। आखिर देख तो लो कि इसमें लिखा क्या है?”
“क्या होगा? सफाई दी होगी कि क्यों गये हमें छोड़कर? तुम नहीं जानती कि उन्होंने हमारे साथ क्या किया था। वह मुझे और मेरी माँ को बेसहारा छोड़ गये थे। जब मैं मात्र छः साल का था। बाद में चिठ्ठी लिखकर मुझे अपनी ओर खींचना चाहते हैं! इसे पढ़कर कहीं मैं पसीज गया तो?”
“तुम क्या अंतर्यामी हो जो पढ़े बिना ही जान लिया? पिता होकर पिता का दर्द नहीं समझोगे तो कौन समझेगा?”
“ये सब मुझसे मत कहो! उनको समझने के चक्कर में माँ का अपमान नहीं करना चाहता। ताउम्र उन्होंने जो तपस्या की है उसकी तौहीन नहीं करना चाहता!”
“आई एम सॉरी आभास! मैं माँ के प्रति तुम्हारे श्रद्धा का सम्मान करती हूँ पर सच्चाई से मुँह मोड़ने के मामले में तुम्हारा विरोध करती हूँ। तुम चाहे जो सोचो पर आज ये बंद लिफाफा खोलना ही होगा। अपने लिए ना सही! अपनी माँ के लिये ही कम से कम देखो तो सही कि वह कहना क्या चाहते हैं।”
आखिरकार पूरे ग्यारह साल बाद खुली चिठ्ठी में सबकुछ धुंधलाया सा था,भाव भी और शब्द भी। एक पीले से कागज पर जो अक्षर दर्ज थे वह कुछ इस प्रकार थे…….
“प्रिय आभास,तुम्हारे अट्ठारहवें जन्मदिन पर तुम्हें यह चिठ्ठी लिख रहा हूँ। हर पिता की तरह मैं भी अपने पुत्र पर गर्व करता हूँ। हाँ! तुम कह सकते हो कि मैं तुम्हारी तकलीफों में साथ नहीं था पर बेटा पर तुमसे दूर भी नहीं था। तुम्हें याद है उस रोज जब तुम साइकिल से गिर गए थे। तुम और तुम्हारी साइकिल दोनों को घर तक पहुँचा कर मैं चुपचाप निकल गया था और जब क्रिकेट खेलते हुए तुम्हारा हाथ टूट गया था तो मैंने ही प्लास्टर लगवाया था।”
‘हाँ! वो लॉन्ग कोट वाले अंकल! जो हर परेशानी में…ओह नो!”आभास बुदबुदाया।
“हाँ! सही पहचाना। वहीं लॉन्ग कोट वाले अंकल जो तुम्हें दूर से ही बढ़ते देख रहे थे। याद है तुम्हें,जब तुम्हारे इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा रिजल्ट आया तो मैं बुरी तरह से नाचा था। बस तुम्हारी माँ का सामना करने का साहस नहीं था मुझमें या शायद करना ही नहीं चाहता था। दरअसल मैं और सुधा दूसरों के द्वारा तय किये रिश्ते से बँधे थे। दोनो एक-दूसरे के विपरीत स्वभाव वाले पर एक बात में बिल्कुल एक से थे। हमें टूटना गंवारा था पर झुकना नहीं! हम एक-दूसरे को बदलने में लगे थे। एक-दूसरे को स्वीकार ही नहीं कर पा रहे थे। इसलिए हम आपसी सहमति से अलग हो गये। यकीन मानो उस वक़्त यही सही लगा था। मैं जानता हूँ कि मैंने तुमसे तुम्हारा बचपन छीना है। इस नाते मैं तुम्हारा अपराधी हूँ पर मुझे पता है कि सुधा ने तुम्हें बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं। हम साथ होते तो आपसी कलह के कारण तुम्हें ठीक से बड़ा नहीं कर पाते। लड़ते-झगड़ते ही रह जाते और तुम पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा होता। जो हो गया उसे तो बदला नहीं जा सकता पर मैं एक बार तुमसे मिलना चाहता हूँ। तुम जब चाहो आ जाओ! तुम्हारे स्कूल के सामने ही मैंने ‘सेवक होम’ नामक वृद्धाश्रम खोला है। वहाँ अपने जैसे कई बेघर साथियों के साथ मजे में रहता हूँ। वृद्धाश्रम के नजदीक ही तुम्हारी माँ के पसंद को ध्यान में रखते हुए उसके लिये एक छोटा सा घर बनवाया है। हो सके तो उसे उस घर को स्वीकार करने के लिये मना लेना। अगर वह मुझसे मिलने या देखने की इच्छा जाहिर करे तो वृद्धाश्रम ले आना। पता नहीं क्यों.. मेरा दिल कहता है कि कभी ना कभी तुम मुझे देखने जरूर आओगे…एक बार मिलने की उत्कंठा में प्रतीक्षारत….
तुम्हारा पिता
गिरीश खन्ना “
रेवा जोर-जोर से चिठ्ठी पढ़े जा रही थी। जिसके आखिरी शब्द जब सुधा के कानों में पड़े तो उससे रहा ना गया। आँसुओं में डूबे चेहरे के साथ वह कमरे में दाखिल हुई और बहु के हाथ से चिट्ठी लेकर पढ़ने लगी। हर शब्द सीधे कलेजे में उतर रहे थे। वर्षों के जज्ब आँसुओं ने जैसे सैलाब ला दिया था। बेटे से माँ की हालत देखी ना गई तो बिना कुछ बोले ही कार स्टार्ट किया और सपरिवार ‘सेवक होम’ पहुँच गया। मुश्किल से आधा घंटा लगा।
पिता दूर नहीं बल्कि उसके आस-पास ही थे। गेट के अंदर पहुंचते ही अगरबत्ती की तेज़ खुशबू नथनों में भर गए।शोक-संतप्त चेहरों की भीड़ लगी थी। जिसे देख सुधा का मन किसी अनहोनी की आशंका से विचलित हो उठा। भागकर मृतक के नजदीक जा पहुँची। चेहरे से चादर हटाया तो देखते ही मूर्च्छित हो गई।
हाँ! बंद लिफाफा खुलने में बहुत देर हो गई थी। गिरीश ने तो फिर भी अपने दिल की बातें चिठ्ठी में लिख दी थी पर सुधा को वह मौका भी नहीं मिला। आभास ने मां को सीने से लगाया तो वह फफक पड़ी।

होनी को कौन टाल सका है। आखिर मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है जिसे सभी को स्वीकारना ही पड़ता है। आभास ने पूरी श्रद्धा से पिता का अंतिम संस्कार किया। माँ को उनके नये घर में शिफ्ट कर दिया तथा सास-ससुर को माँ के स्वास्थ्य संबंधित सभी जरूरी बातें बता कर फ्लाइट में बैठ गया। पूरे बारह घंटे की फ्लाइट थी। चुपचाप बैठा पिछले पंद्रह दिनों के बारे में सोचने लगा। गुजरा वक़्त काफी उथल-पुथल भरा रहा था। खिड़की से बाहर आसमान ताकता यही सोच रहा था कि क्या होता अगर बंद लिफाफा खुला ही ना होता। बहुत कुछ अनकहा- अनसुना रह जाता। अच्छा ही हुआ जो रेवा ने लिफाफा खोल दिया। उसके साथ ही उसके मन की गाँठ भी खुल गई थी। सच ही कहा गया है कि एक कामयाब व्यक्ति के पीछे स्त्री का हाथ होता है। यह विचार मन में आते ही रेवा का हाथ अपने हाथों में लेकर बोला,
“थैंक्स फॉर एवरीथिंग!”

“माय प्लेज़र!”
रेवा जो प्रतीक के साथ कार्टून मूवी देखने में व्यस्त थी। मुस्कुराकर आँखों ही आँखों में आभास को आश्वस्त किया। भले ही वे पिता के जीते जी मिल न सके मगर आखिरी दर्शन करने का सौभाग्य अवश्य मिला था।