baadal hoti ret
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

बेसरम बीमली….। कौन बोला। आसपास कोई बंदा न परिंदा… फिर कौन बोला… टीले की रेत ने उसे बेशर्म कहा या सरसों के फूलों ने? बीमली ने चारों ओर नजर घुमाकर देखा, बलराम का कोई अता-पता नहीं है। माघ के आखिरी दिन चल रहे हैं, दिन डूबने को है, हवा में ठिठुरन है और वह है कि बेहयाई से बलराम का इंतजार कर रही है… बेशर्म ही तो है। उसे लगता है उसकी प्यास अबूझ है, मन होता है कोई सुदर्शन और जवान मर्द मूसलाधार बारिश-सा अञ्ज बरसता रहे और वह टीले की रेत-सी भीगती रहे… भीगती ही रहे। बापू से दूसरे-चौथे पिटती ही रहती है, माँ भी कभी-कभी हाथ उठा देती है। गालियाँ तो बीमली रोज ही खाती है पर वह भी क्या करे… अपने पर काबू ही नहीं रहता। वैसे उसे भी अपनी प्यास का कब पता था, पहली बार उसके विरोध के बावजूद माँ ने ही उसे जमींदार दिलावर सिंह का निवाला बनाया था।

माँ भी क्या करती? वह अपनी पति काशीराम की दूसरी बीवी थी। काशीराम को दोनों बीवियों से पाँच-पाँच बच्चे थे। घर के दो हिस्से कर दिए गए थे। दोनों बीवियाँ अपनी-अपनी संतानों के साथ अपने-अपने हिस्से में रहतीं और बीमली का बाप साँझे बिल्ले सा दोनों आँगनों में मंडराता रहता। बीमली अपने भाई-बहनों में तीसरी थी… दो भाई उससे बड़े थे, एक बहन और एक भाई छोटे। फिर अचानक उससे बडे दोनों भाई दो महीने के अंतर से एक-एक कर सिधार गए। अब माँ के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं रहा कि वह बीमली को अपने साथ खेतों में काम पर ले जाए। माँ ने ही तो उसे…. दिलावर सिंह ने माँ को बहुत सारे पैसे दिए थे। बीमली तब सोलह साल की थी, इतनी छोटी भी नहीं कि माँ की मजबूरी न समझती। फिर तो बीमली के चरचे गाँव भर में होने लगे… धीरे-धीरे बेशर्म होती गई बीमली। सारे गाँव के बूढ़े-जवान उसकी ताक में रहते हैं पर बीमली किसी को घास नहीं डालती… वह अपना साथी अपनी शर्तों पर चुनती है। बलराम आज नहीं आएगा, अंधेरा घिरने लगा है। बीमली गाँव की ओर लौट पड़ी। वह सोच रही थी आज फिर बापू की मार पड़ेगी या कम से कम डाँट तो जरूरी ही पड़ेगी। लड़की है न! मर्द कितना ही लम्पट हो, उसे कोई बेशर्म नहीं कहता था पर वह तो खुद की नजर में भी बेशर्म है… बीमली ने ऊपर वाले को कोसा जिसने उसके भीतर इतनी आग भर दी है कि बुझने में ही नहीं आती।

एक दिन बीमली के बाप ने अपने कंधों से बीमली का बोझ उतार फेंका। संतोखी गाँव का मंगतू राम बीमली से चौदह साल बड़ा था, एक खेतिहर मजदूर जिसके लिए इससे पहले कोई रिश्ता आया ही नहीं। अनगिनत प्रेम कहानियों की नायिका बीमली के हिस्से बीस कोस तक मशहूर थे। मंगतू राम के कानों तक भी ये किस्से पहुँचे थे। आज वही बीमली किस्सों से बाहर निकलकर उसकी सेज पर विराजमान थी। मंगतू राम ने उसे देखा तो देखता ही रह गया…. नानी की कहानियों की परियाँ क्या इससे ज्यादा सुंदर थीं… नहीं हो ही नहीं सकती… एकदम पद्मावती का रूप… उस रूप को देख मंगतू राम काँपने लगा। बीमली को छूने के लिए बढ़ा हाथ हवा में ही लटका रह गया और फिर अचानक वह उसके पाँवों पर गिरकर रोने लगा… बीमली ने मंगतू राम को देखा… अमावस से भी काला… चेहरे पर कई गूमड़… मुँह से बाहर निकल झूलते दाँत… नानी की कहानियों का राक्षस क्या इससे ज्यादा बदसूरत था… नहीं, हो ही नहीं सकता… उस रूप को देख बीमली को उबकाई आने लगी। उसकी असीम प्यास जाने कहाँ गायब हो गई।

जिंदगी के दिन कटने लगे। मंगतू राम रोज खेत जाता और आता. रोज उसे मुग्ध नजरों से देखता, रोज बारिश होती पर बीमली के भीतर की प्यासी रेत चट्टान हो गई थी। बारिश का पानी ऊपर से बह जाता, उसे पता भी न चला। और फिर एक दिन उसे लगा चट्टान की सख्त परत को कोई खुरच रहा है, उसके भीतर की रेत साँस लेने लगी है, रेत की आँखें किसी बादल को देख चौन खो बैठी हैं… मंगतू राम का भानजा मोहन अपने मामा के पास रहने आया था। बीमली को लगा भगवान को उस पर दया आ गई है, तभी तो इतना सुंदर लड़का भेजा है, बिल्कुल उसके सपनों के मर्द जैसा। मोहन उससे दो-एक साल बड़ा ही था, खिलता गेहुआँ रंग, तीखी नाक, चट्टान जैसा कड़ा बदन, वह भी उसे मामी की नजरों से कहाँ देखता था? कुछ ही दिनों में आकाश बादलों से पट गया, मूसलाधार बारिश बरसने लगी, प्यासी धरती जी-भर भीगने लगी, किन्हीं गहन गुफाओं में समा चुकी प्यास चारों तरफ से गुफा की दीवारें तोड़कर उमड़ पड़ी।

…चौत के आखिरी दिन रहे होंगे। सरसों निकल रही थी। मंगतू राम रात को नौ-दस बजे घर लौटता था। उस दिन घर लौटा तो पाया कि बीमली और मोहन दोनों ही घर पर नहीं है, अनायास उसके मुँह से निकला-“चिड़िया पिंजरा तोड़कर उड़ गई। उन दोनों के बीच क्या रिश्ता पल रहा है-इसका अंदाजा उसे था पर उसने सोच लिया था फंस ही गए तो फटकना कैसा? और फिर जिस जाल में वह फंसा था, वह जाल था भी तो कितना सुंदर, उसके भाग्य में ऐसी परी… बाबा रे। वह सौ जन्मों तक ऐसे रूप की कल्पना नहीं कर सकता, उससे हाथ धो बैठे तो रोटियों से भी जाए।

वह जानता था बीमली उसे पसंद नहीं करती… करती भी कैसे? कहाँ वह नाजुक हिरनी, कहाँ वह उसके गले में पड़ा भोंडा-सा लट्ठ। भानजे से रिश्ता रखने पर उसे कोई आपत्ति नहीं थी। सोचता था घर की बात घर ही में रहे। इसलिए उसने कभी अपने शक को जाहिर नहीं होने दिया। उस रात वह घर में भूखा ही सो रहा और उन दोनों के लौट आने का झूठा इंतजार भी करता रहा। अगले दिन उसने अपने रिश्ते के भाईयों को घटना से अवगत करवाया। सब संभावित जगहों पर उन्हें ढूँढा गया। गाँव में ऐसी बातें बहुत जल्दी फैलती हैं। पहले लोगों में कानाफूसी शुरू हुई, फिर डंके की चोट चटखारे ले-लेकर बीमली के घर से भाग जाने की कहानी उसके इतिहास की कथा सहित कही जाने लगी। तीसरे-चौथे दिन पुलिस में रपट दर्ज करवा दी गई। कहीं कोई सुराग मिलने पर पुलिस की सूचना आती, टाटा सूमो गाड़ी की जाती। मंगतू राम, उसका एक चचेरा भाई, सरपंच का बेटा तथा एक पंच खोज में निकल पड़ते और फिर निराश वापस लौट आते। दो महीने बीत गए पर न बीमली, न मोहन। हर बार गाड़ी का किराया मंगतू राम के ही जिम्मे था। अब तक हजारों का कर्ज उस पर चढ़ चुका था। अब तो वह मन ही मन चाहने लगा कि पुलिस को कोई सुराग न मिले। इतना कर्ज वह चुकाएगा कैसे?

…बारिश हो रही थी। मंगतू राम की छत टपकने लगी थी। वह कच्छा पहने छत पर खड़ा मिट्टी और भूसा डालकर उस छेद को भरने की कोशिश कर रहा था जहाँ से पानी चू रहा था कि तभी छाता ओढ़े सरपंच का कारिंदा घर के अंदर घुसा। इधर-उधर देखकर उसने आवाज लगाई, “मंगतू रै, कठै है तूं?”

“ऊपर हूँ, के कहै?”

“तनै सरपंच बुलावै, अब्बी गी अब्बी, थाणै स्यूं कोई संदेसो आयो है।”

मंगतू राम का माथा ठनक गया, कहीं फिर से कोई सुराग तो नहीं मिल गया… गए हजार-दो हजार पानी में। वह छत से नीचे आकर बोला, “तूं चाल, मैं कपड़ा पहरगे आऊँ।”

“ना, सरपंच कह्यो है, सागै ही ल्याई।” धोती-कुरता पहन मंगतू राम उसके साथ चल पड़ा। दोनों सरपंच के घर पहुँचे। उसके राम-राम करने के पहले ही सरपंच बोल पडा. “तेरो भाणजो अबोहर स्यं पकडो गया है। थे चारूँ जणा अब्बी अबोहर रवाना हो जाओ। रास्ते मैं चौकी पर थाने पुलिस त्यार मिलेगी। पुलिस नै सागै लेगै जितणी जल्दी हो सके, पहुँचरण गी करो। गाड़ी राजू कर ली है।” अब कहने-सुनने को कुछ भी बचा नहीं था, चुपचाप दरवाजे पर खड़ी गाड़ी में जा बैठा। चचेरे भाई को बुलाने का अवकाश भी न मिला। आज गाड़ी में वे तीन थे-मंगतू राम, सरपंच का बेटा और पंच किरसन। चौकी से तीन पुलिस वाले बैठ गए। रास्ते में दो बार चाय आदि के लिए गाड़ी रूकी जरूर पर बीमली की बात किसे ने न छेड़ी।

अबोहर थाने में पहुँचने पर पंजाब पुलिस ने जो बताया, उसका सार यह है-पंजाब में चुनाव के चलते जगह-जगह पुलिस के नाके लगे थे। परसों चुनाव से पहले का अंतिम दिन था और आशंका थी कि मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गाड़ियों में रूपये भरकर इधर-उधर ले जाए जा सकते हैं। अबोहर से बीसेक किलोमीटर दूर एक जीप को जब रूकने का इशारा किया गया तो ड्राइवर उसे तेजी से भगा ले गया। पुलिस की ओर से वायरलैस द्वारा यह सूचना तमाम थानों में दी गई। घंटे भर में जीप पकड़ी गई। जीप पर दो लोग सवार थे। तलाशी लेने पर जब कुछ भी न मिला तो पुलिस को आशंका हुई कि अफीम या रूपये इन लोगों ने कहीं छुपा दिए हैं। पुलिस ने जब अपने तरीके से पूछताछ की तो मोहन ने कबूल किया कि उनके पास रूपया या अफीम कुछ नहीं है। उसे तो यह डर था कि पुलिस कहीं उसे मामी वाले केस में न पकड़ ले, इसलिए वह भाग गया था। जो मोहन ने बताया है उसके अनुसार वह तीन दिन मलोट के पास किसी गाँव में अपने एक दोस्त के घर रूका था। वहाँ उसने बीमली का परिचय अपनी पत्नी के रूप में दिया था। तीन दिन बाद दोनों ने मिलकर बीमली को फिरोजपुर के किसी गुरदेव सिंह को साठ हजार रूपये में बेच दिया था।

योजना यह बनी कि इन दोनों को साथ लेकर गुरदेव सिंह को काबू में किया जाए। थानेदार भलामानुष था। उसने मंगतू राम से गाड़ी करने के लिए नहीं कहा बल्कि पुलिस की गाड़ी में ही उस थाने की पुलिस बैठी। दोनों लड़कों को थाने से बाहर लाया गया। मोहन को देखते ही मंगतू राम उस पर टूट पडा। वह उसे लात-घुसों से मारता जाता और बडबडाता जाता, “तनै थोड़ी बी सरम कोनी आई। मैं जाणू तेरो बीं सागै प्यार हो, पर तैं बीनै धोखो दियो, अरै बा के बेचण गी चीज ही के, तूं कुत्तै गी की मोत मरसी… के बेरो बा के हाल मैं होवैगी… रै कूतिया…” पुलिस वालों ने उसे अपना गुस्सा निकाल लेने दिया।

शाम तक गुरदेव सिंह काबू में आ गया पर बीमली उसके पास नहीं थी। उसने उसे नाभा के एक आदमी को बेच दिया था। नाभा वाला आदमी गिरफ्तार हुआ पर बीमली नहीं मिली। उसने उसे आगे पटियाला में बेच दिया था। बीमली पटियाला में भी नहीं मिली। पटियाला से उसे आगे लुधियाना में बेचा गया था ओर लुधियाना से अमृतसर में। अब यह केस बड़ा हो गया था। मंगतू राम के साथ जब चौथे दिन पुलिस अमृतसर के ठिकाने पर पहुँची तो काफिले में पंजाब पुलिस की तीन गाड़ियाँ थीं। घर को घेर लिया गया। पुलिस की गाड़ियों के रूकते ही तीन-चार लोगों के पीछे की दीवार फाँदकर भागने की-सी हलचल हुई। पुलिस के बहुत सारे जवान उनके पीडे दौड़े। दो जवानों ने घर के सारे दरवाजे खोल दिए। एक कमरे में एक पलंग पर बीमली लेटी थी-बिल्कुल नंगी और नीमबेहोश, चादर उसके पैरों के पास पड़ी थी। पंच ने तुरंत उसके शरीर पर चादर डाल दी। बीमली ने हाथ झटका, चादर दूर जा गिरी। सरपंच के बेटे राजू ने चादर फिर से ओढ़ा दी। उसने फिर हाथ झटका तो राजू ने उसका हाथ पकड़ लिया, “ऐ बीमली, पिछाण्यों कोनी के, कुण हूँ मैं? उसका सिर जरा-सा हिला, आँखें राजू पर गढ़ गई जैसे पहचान रही हो, फिर बोली, “हूँऽऽ… कुण है तूं? उसकी गर्दन तकिये पर गिर गई। जाहिर था वह खूब गहरे नशे में है। मंगतू राम को पहले तो उस पर दया आई, फिर घिन हो आई, कितने लोगों ने उसे नंगा देखा है। राजू और पंच गाँव में जाकर क्या-क्या बताएँगे। उसने मुँह फेर लिया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? पलिस बीमली को अस्पताल ले गई। डॉक्टर ने दवाइयाँ वगैरह तो दे दी पर कहा कि इसको लम्बे समय तक नशा खिलाया गया है, पंद्रह-बीस दिन में यह नशे के असर से बाहर आ जाएगी।

बीमली को गाँव लाया गया। सारा गाँव उसका पता लेने आया। 15-20 दिन में वह सामान्य हो गई। उधर वह सामान्य हुई, इधर मंगतू राम घर छोड़कर चला गया। बाद में पता चला कि वह किसी गाँव के मंदिर में बाबा मंगतदास बनकर रह रहा है। बीमली ने किसी को उसे वापस लिवा लाने के लिए नहीं कहा। वह अब अकेली थी… घोर नरक भोगने के बाद नितांत अकेली। उसे जीना था और जीने के लिए उसे काम करना था। वह लोगों के खेतों में काम करने जानी लगी। उसके भीतर प्यासी रेत अब भी किरकिराती थी पर अब बीमली उस रेत की एक नई इच्छा से परिचित हो रही थी। अब वह रेत किसी भी बादल के टुकड़े, किसी भी झरने की ध गरा या किसी भी पोखर के पानी से बुझने को तैयार नहीं थी। उसे अब किसी ऐसे बादल की चाहत थी जो उसके पास आए तो उसमें समाकर उसी का होकर रह जाए, हवा के संग उड़कर दूर न चला जाए। गाँव भर के युवक उसके घर के सामने से ललचाती नजरो से देखते गुजर जाते, पर वह आँगन से बाहर झाँकने भी न आती। कितने ही माध्यमों से उसके पास हजारों रूपये के प्रस्ताव आए पर उसने किसी की न सुनी। अपने में आए इस अजीब बदलाव से उसे हैरानी होती थी। वह हाड़तोड़ मेहनत करती ओर संतुष्ट रहती। उसका गाँव के केवल एक घर में आना-जाना था। यह घर बंसी नाम के एक मजदूर का था। बंसी के घर एक भैंस थी। हर सुबह, हर शाम उसके घर 10-15 लोग दूध लेने आते। बीमली भी उसके घर से ही दूध लेती, जरूरत पड़ने पर पैसे या अनाज भी। बंसी गाँव का सबसे मजाकिया आदमी था… आदमी क्या, उसी का हम उम्र लड़का ही था। गाँव की किसी भी औरत से कैसा भी मजाक कर लेता, कोई उसका बुरा नहीं मानती। बीमली से भी वह खूब खुला हुआ था पर आज तक उसने कभी उसकी आँखों में जहरीले साँपों को तैरते नहीं देखा। वही एक आदमी है जो उसे अपना सच्चा हमदर्द लगता है। उसकी बीवी भी उतनी ही दयालु और मानवीय है। इस घर में बीमली का मन लगता है। दूध लेने आती है तो बहुत देर तक यहीं बैठी रहती है, उसके बच्चों के साथ खेलती रहती है। यहीं आकर उसे लगता है कि वह बिल्कुल अकेली तो नहीं है। कभी जब वह जल्दी जाने को होती है तो बंसी उसे इसरार करके बिठा लेता है।

एक शाम जब वह दूध लेने आई तो बंसी ने उसे बताया कि दो-तीन महीने पहले संदीप नाम के एक आदमी ने अपने गाँव में जमीन खरीदकर कपास बोई थी। उसे कपास की खोदी (गोड़ाई) के लिए तीन मजदूरों की जरूरत है। उसने अपनी हामी तो भर ली है, शंकर की बह को भी कह दिया है, अगर बीमली राजी हो तो वह भी उनके साथ चले। खेत का मालिक भला आदमी है, नकद दिहाड़ी देगा, आगे भी काम पड़ने पर पहले हमें ही काम के लिए कहेगा। बीमली को बंसी पर अटूट विश्वास है, उसने तुरंत हामी भर दी।

अगले दिन वह बंसी के साथ संदीप के खेत में गई। संदीप ट्यूबवैल के पास खड़ा था, उनकी तरफ उसकी पीठ थी। ‘राम-राम चौधरी साहब।’ बंसी ने कहा तो वह घूमा। शंकर की बहू और बीमली ने भी राम-राम कहा। तुरंत ही बीमली ने महसूस किया कि उसकी आँखें उस चेहरे पर से हटने को तैयार नहीं हैं। वह कुछ देर अपलक उसे देखती रही, संदीप ने भी उस पर से नजरें नहीं हटाई। फिर अचानक बीमली जैसे शरमाकर खेत की तरफ मुड़ गई। सारा दिन वह खोदी करती रही पर उसके भीतर कुछ उमड़ता रहा, बार-बार आग-पानी का-सा एक गोला उसके सीने से उठकर कण्ठ तक आता रहा। शाम को घर लौटकर वह आँगन में बैठी तो मन बेचौन होने लगा। चारपाई पर अधलेटी होकर उसने आँगन के कीकर पर आँखें गड़ा दीं। एक कागज का टुकड़ा कीकर की शूलों में फंसा था। हवा चलती तो फड़फड़ाने लगता, कभी तन कर टहनी से चिपक जाता, टहनी से अलग होता तो बदहवास दिखने लगता। वह तब तक कागज की बदहवास फड़फड़ाहट को देखती रही जब तक अँधेरा नहीं घिर आया। आँगन से भीतर आई तो मन काबू में नहीं था। वह संदीप के चेहरे को मन से निकाल ही नहीं पा रही थी। बिना कुछ खाए ही वह सो गई। संदीप की सूरत नींद में भी उसके साथ रही। वह रात उसे अपने जिन्दगी की सबसे लम्बी रात लगी।

अगले दिन फिर वही खोदी का काम… बीमली की आँखें बार-बार उस ओर उठ जातीं जिस ओर संदीप के होने की संभावना होती। पाँच-छ: बार संदीप उन लोगों के पास आया-कभी पाने के लिए पूछने, कभी थोड़ा आराम कर लेने की हिदायत देने या कभी यूँ ही मौसम की बात करने। वह आता तो बीमली उसी को देखती रह जाती। चला जाता तो बंसी से संदीप और उसके परिवार के बारे में जानकारी लेने लगती। बंसी ने उसे बताया कि वह अभी कुँवारा है। उसके साथ उसके माँ-बाप तथा उससे छोटा एक लंगड़ा भाई है जो गाँव के अड्डे पर रेडियो-टेलीविजन का काम सीख रहा है। आज सुबह आने पर उन्होंने दूर वाली क्यारी में बड़ी-बड़ी मूंछों वाले जिस आदमी को देखा वह संदीप का बाप है, वह कभी-कभी खेत में चक्कर लगाने आता है। इन लोगों ने गाँव में ही अभी एक मकान किराए पर लिया है, कोई अच्छा-सा घर मिला तो खरीद भी लेंगे। वह संदीप के बारे में ही बातें करते रहना चाहती थी पर और क्या पूछती? इसी तरह चार दिन बीत गए। चौथे दिन शाम को जब लौटने लगे तो शंकर की बहू को बंसी ने आगे निकल जाने दिया। अब बंसी और बीमली पीछे रह गए थे। बीमली अनमनी थी और थोड़ी-थोड़ी देर में पीछे मुड़कर देख लेती। बंसी ने पूछा, “के बात है भाभी, संदीप बिना जी कोनी लागै के?”

“इसी कोई बात कोनी, तूं भी आच्छो मजाक करै!”

“खा मेरी कसम, संदीप तनै आच्छो कोनी लागै?”

“कसम गी के बात है?”

“मेरे सामणै झूठ ना बोल, मैं सब जाणू हूँ।”

“कै जाणै?”

“तनै राम नै नींद कोनी आवै, नींद तो तेरै बिना संदीप नै बी कोनी आवै, वो भी तेरी खातर बावलो होयो फिरै।”

“साच्ची! तनै के बेरो?”

“बण आप ही बताया हो। अब तू बी तेरै मन की कह दे।” बीमली कुछ नहीं बोली। दूरी देह पसीने में तरबतर हो गई। चेहरे को हथेलियों में ढाँपकर रेत पर बैठ गई। थोड़ी देर बैठे रहने के बाद उसने सहारे के लिए बंसी की तरफ हाथ बढ़ा दिया। बंसी ने उसे उठाया, उसने देखा की बीमली के होंठ कुछ कहने के लिए हिल रहे हैं पर कुछ बोल नहीं पा रही है, मानो उसकी जबान किसी ने कसकर ताल से चिपका दी हो। उस रात संदीप उसके घर आया। उस रात बीमली का पोर-पोर अनिर्वचनीय आनंद से भीगा। उसे लगा वह हवा है-जल भरे बादल में लय होती हुई, उसी का हिस्सा बनती हुई। उस दिन के बाद बीमली अक्सर हवा होकर बादल में लय हो जाती। संदीप और बीमली की प्रेम कहानी पूरे गाँव में मशहूर हो गई। इससे बिरादरी ने स्वयं को अपमानित महसूस किया… एक गैर-बिरादरी का लड़का उनकी बिरादरी की इज्जत को सरेआम लूट रहा था… यह असहनीय था… संदीप को घेरने की योजनाएँ बनने लगीं। और फिर एक दिन…. रात लगभग ग्यारह बजे साईकिल पर बस्ती में प्रवेश करते संदीप को बिरादरी के दस-बारह लोगों ने घेर लिया। शोर ने पूरे गाँव की नींद उड़ा दी। लोग समझ गए कि शोर किस बस्ती से आता है… आज जरूर गाँव में कुछ होकर रहेगा… अपने घर बैठी बीमली का दिल शोर सुनकर किसी अनिष्ट की आशंका से काँप उठा। वह दराँती उठाकर शोर की दिशा में दौड़ पड़ी। पहुँचकर देखा तो संदीप अकेला उन लोगों का मुकाबला कर रहा था। उस पर धड़ाधड़ लाठियाँ बरस रही थीं। बीमली ने भीड़ में घुसकर दराँती लहरानी शुरू की, दो-चार लोग चोट खा गए। इस अचानक हुए हमले से अचकचाए लोग संदीप को छोड़कर दूर हट गए। बीमली दराँती लहराती भीड़ को चुनौती दिए जा रही थी, “आओ, भैणचोदो, कुण हाथ लगावै इनै, आँत चीरगे बाहर काढ यूंगी… आओ, है के कोई मा गो जामेड़ो…?” उसने लोगों की तरफ घूमकर जो दराँती हवा में लहराई तो पल भर में ही मैदान खाली हो गया। अब उस जगह पर वह और संदीप अकेले थे। उसने संदीप को देखा… सिर पर कोई चोट नहीं थी, उसने राहत की साँस ली। पीठ और हाथों पर लाठियों की मार के निशान थे, यह कोई विशेष चिंता की बात नहीं थी। बीमली संदीप को घर ले आई।… और उस दिन के बाद किसी की भी हिम्मत संदीप को रोकने की नहीं हुई। जब गाँव सोया होता, बादल उमड़कर अपनी रेत के पास जा पहुँचता और फिर बादल रेत हो जाता और रेत पानी।

…तीन बरस बीत गए। एक दिन सुबह दस बजे के लगभग बंसी ने सना… खेत के ट्यबवैल पर संदीप को करंट लगा है और उसकी मौत हो गई है। इन दिनों बीमली ने गाँव के पच्छिम में तीन एकड़ जमीन किसी जमींदार से आधे हिस्से पर ले रखी थी। इसी जमीन में एक क्यारी ज्वार उसने बोई थी। इस वक्त वह अपनी भैस के लिए ज्वार काटने उसी खेत में गई थी। यह खबर उसे देना बंसी को जरूरी लगा पर इस खबर को सनाने की वह हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। एक बार तो उसने सोचा कि उसे अपने आप पता चल जाएगा पर अगर वह खेत से देर से लौट का अंतिम संसकार जल्दी हो गया तो? अंतिम बार वह संदीप का मुँह भी नहीं देख पाएगी। उसने फैसला किया कि वह खेत में जाकर बीमली को संदीप की मौत की खबर देगा। वह तुरंत ही खेत की तरफ रवाना हो गया। वहाँ पहुंचकर उसने देखा कि बीमली ज्वार काट चुकी है और ज्वार की ढेरी के साथ सटी कुछ गुनगुना रही है। बंसी की आँखे भर आई। कदमों की आहट सुनी तो बीमली का गाना बंद हो गया। उसे देखकर चौंककर पूछा, “तूं आज कियाँ रास्तो भूल ग्यो?”

“तनै मिलण आ ग्यो, तेरी याद आई तो मैं सोच्यो…”

“आच्छो करयो, ओर सुणा…”

“बीमली, एक बात बता, जे संदीप मर जै तो…?”

“कुण है बिनै मारणियों, हैं… तूं मारैगो के… इसो भंडो मजाक फेर ना कर देई, जान स्यूं मार धूंगी।” बंसी ने देखा, बीमली और उसकी हथेली में कसी दराँती थर-थर काँप रही थी। ठीक उसी समय बीमली ने देखा कि बंसी की आँखों से बादल बरस रहे हैं। वह एकदम से डर गई, दराँती एक तरफ फेंक उसने बंसी के हाथ पकड़ लिए, “के बात होगी बंसी, तूं रोवै क्यूं है, के बीजली पड़गी?”

“तेरो संदीप करंट लागगे मर ग्यो, ईझं फालतू के बीजली पड़ेगी…? और फिर उस खेत में चीत्कार भर गया। ज्वार में अठखेलियाँ करतीं चिड़ियाँ उड़कर पता नहीं कहाँ चली गई। बीमली कभी बंसी से चिपकती तो कभी ज्वार के तिनका-तिनका बिखरते ढेर से। घंटा-भर बाद जब चीत्कार थम गया तो मरघटी शांति पसर गई। बंसी बीमली को थामकर घर ले चला। बीमली ने स्वयं को यह कहकर उससे छुड़ा लिया कि मैं अपने सहारे चल लँगी। घर पहुँचकर बीमली ने बंसी को दरवाजे से ही विदा करते हुए कहा, “संदीप गी अर्थी निकले तो मनै बता गे जाई।”

…शाम का समय था। संदीप की अर्थी घर से निकलकर श्मशान की राह पर आ गई थी, सैंकड़ों लोग अर्थी के साथ थे। अचानक सबने देखा-सामने राह रोके बीमली खड़ी है… जैसे साक्षात् काली माँ… काली माँ का ओजस्वी स्वर गूंजता है-“अर्थी नीचौ धर द्यो।” सम्मोहन-पाश में बँधे चारों कांधी अर्थी नीचे रख देते हैं। सन्नाटे में जकड़े शवयात्रियों ने देखा-बीमली ने शव के मुँह पर से कपड़ा हटाया, मुँह को कई बार चूमा, मुँह ढका, पैरों के पास गई और अपनी चूड़ियाँ फोड़ दीं, प्रणाम किया और फिर संदीप की माँ के गले लगकर जो रोई तो लोगों के पैरों तले की मिट्टी काँप गई। रास्ते के पेड़ों के पत्ते किरने लगे। हवाएँ सिर पटकती रहीं और बीमली के रूदन ने आकाश पाट दिया।

…संदीप को गए डेढ़ साल हो गया है। उसका लंगड़ा भाई राजेन्द्र हर महीने-दो महीने में बीमली के सामने गुहार लगाता है, “भाई तो अब गयो, अब तूं ऐकली, मैं बी ऐकलो, फेर मेरै सागै…” बीमली हर बार यहीं उसकी बात को हँसते हुए काटती है और कहती है, “अरै डेढ़ टाँग गा लंगड़िया, तूं तो के, भगवान बी संदीप गी जगां कोनी ले सकै…” और फिर उसकी आँखों में बादल उतर आता है, हर बार इस बादल में राजेंद्र अपने भाई संदीप को देखता है। उस समय बीमली उसे कोई देवी नजर आती है कि जैसे उसे छूने की कोशिश की तो वह भस्म हो जाएगा।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’