भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
पहली बात : मैं समाज की इस विडम्बना को मानने से इनकार करती हूँ कि कोई औरत पहले से ही शादीशुदा व्यक्ति को चाह नहीं सकती।
दूसरी बात : मैं इस धारणा के आगे प्रश्न चिन्ह लगाती हूँ कि प्यार-मुहब्बत पर केवल सुन्दर नयन-नक्श वाले व्यक्तियों का ही अधिकार होता है।
मैं ऐसा कदापि न सोचती, यदि मुझे वह न मिला होता। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मेरे दिल में उसके लिए कोमल और पवित्र भावनाएँ जन्म ले चुकी हैं, जिन्हें प्यार कहा जाता है। मैं उसका नाम नहीं ले सकती। यदि मेरी अपनी इज्जत की बात होती, तो मैं कभी परवाह ना करती और अपने घर की छत पर चढ़कर चीख-चीख कर अपनी इन भावनाओं का ढिंढोरा पीटती। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि उसका नाम, उसकी इज्जत का ही एक हिस्सा है और केवल एक हिस्सा ही नहीं, बल्कि एक अहम हिस्सा है।
वास्तव में उसे मिलने से पहले उसके विषय में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था कि वह अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता है, औरतों से बहुत शर्माता है और कभी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखता तथा और बहुत कुछ….इन बातों में कुछ भी नया और अजीब नहीं था। सारे तो नहीं, परन्तु बहुत से मर्द अपनी बीवियों से प्यार करते हैं अथवा उनसे प्यार करने का नाटक करते हैं। दरअसल इसके अतिरिक्त वे कर भी क्या सकते हैं। हाँ, दूसरी बात कुछ हैरान करने वाली थी। बहुत सारे मर्द दूसरी औरतों के नजदीक जाने के अवसर ढूँढते रहते हैं। दूसरी बात सच भी निकली, जब वह पहली बार मुझे मिला। उसने मेरे नजदीक आने की बिलकुल कोशिश नहीं की जबकि बाकी सभी मर्द मेरे पास बैठने के लिए एक-दूसरे से बाजी मार लेना चाहते थे, लेकिन वह दूर पिछली कतार में एक टूटी हुई कुर्सी पर बैठा रहा। उसके साथियों ने उसे आगे आकर मुख्य मेहमान के पास वाली कुर्सी पर बैठने के लिए इशारे भी किए, परन्तु वह आगे नहीं आया। मैंने पीछे मुड़कर देखा, किन्तु मेरी आँखें उनसे दो-चार न हो सकी। वह मेरे वजूद से बेपरवाह था। पर उसकी आँखों की गहराई में डूबी उदासी मुझसे छिपी ना रह सकी। क्या अपनी बीवी को प्यार करने वाला कोई व्यक्ति, आँखों की गहराई में उदासी को दफ़्न करके हँस सकता है? ….मुस्करा सकता है? इस व्यक्ति के बारे में कहीं न कहीं तो झूठ अवश्य था। वह झूठ कहाँ था? उसकी आँखों में, उसके होंठों पर, उसके दिल में या उसकी सोच में? यही झूठ मेरी पहली जिज्ञासा थी…. इसी झूठ में एक आकर्षण भी था।
फिर, मैंने उससे मिलने का फैसला कर लिए। अजीब मुलाकात थी। उसने मेरे पां पकड़ लिए- तुम मेरी माँ हो? मैं एकदम हैरान रह गई। वह मुझसे मुश्किल से दो-तीन साल बड़ा होगा।
शायद उसने मेरी परेशानी को भाँप लिए। था। औरत मर्द के सभी रिश्तों में से मुझे केवल माँ-पुत्र का रिश्ता ही प्यारा लगता है।”
अब इससे आगे मेरा काम था कि मैं इस बात में से अपने लिए अर्थ आप ही ढूँढूँ। फिर भी मैंने उसे टटोलने के लिए कहा- ‘तुम्हें बढ़िया लगता होगा, लेकिन हम दोनों की उम्र में इतना अंतर नहीं कि यह रिश्ता निभ सके…”
वह कुछ समय के लिए चुप हो गया। कुछ देर सोचने के बाद बोला “बात रिश्ते से जुड़ी भावना की होती है, उम्र की नहीं…रिश्तों से जुड़ी भावनाओं को परिपक्व होने में लाखों-हजारों साल लगे हैं…।’ मैं उसकी बातों से सहमत नहीं थी और मुझे पता था कि मैं उसकी माँ नहीं हूँ तथा न ही मैं ऐसे किसी रिश्ते को स्वीकार करने को तैयार थी। उस दिन और भी बड़ी नाटकबाजी हुई। उस रात उसके साथ उसका एक नवयुवक दोस्त भी था, जो अपने नम्बर बनाने के चक्कर में था। उसने भी माँ वाली लाईन पकड ली और मेरे बिलकुल करीब आ गया। बोला- भाई साहिब ने तो बड़े बेटे का स्थान ले लिए है, परन्तु छोटे बेटे का स्थान तो खाली है, उस स्थान के लिए मैं पूरी तरह से फिट हूँ। यदि भाई साहिब उम्र बड़ी होने पर भी बेटा बन सकते हैं…मैं तो उम्र में छोटा हूँ!” फिर उसकी आँखों में वे भाव नहीं थे, जो एक पुत्र की आँखों में माँ के लिए होते हैं। वह उम्र में छोटा था और था भी बला का खूबसूरत! उसकी आँखों में एक अजीब-सी चमक थी, जिसे औरत फौरन पहचान लेती है। वह कभी मेरे दांतों की प्रशंसा करता, कभी मेरे लम्बे-घने बालों की और कभी मेरे कद की। उसकी आवाज़ बहुत प्यारी और पुरकशिश थी। वह कभी मुझे गज़ल सुनाता और कभी गीत। मुझे खतरा था कि यदि मुझे इस छोटे बेटे के साथ अकेले छोड़ दिया जाए, तो यह कोई भी अनर्थ कर सकता है। परन्तु कमरे में हम तीन थे।
वह सामने कुर्सी पर बैठा हुआ था। उसके दोस्त का सिर मेरी गोद में था और वह इस सारी ड्रामेबाज़ी को देख रहा था। दरअसल मेरे हिसाब से उसके लिए यह महज ड्रामाबाजी नहीं थी। उसके लिए यह एक युद्ध था, जिसमें एक तरफ वह था और दूसरी तरफ उसका दोस्त….और वह देख रहा था, फैसला किसके पक्ष में होता है। उसके चेहरे पर एक तनाव था, जो इस बात का गवाह था कि उसने भी मेरे और अपने रिश्ते को माँ-बेटे के धरातल से देखना कभी स्वीकार नहीं किया था।
मैं उठी और उसके नज़दीक पड़ी कुर्सी पर जा बैठी। मैंने अपना हाथ उसके हाथ पर रखकर पूछा- “तुम्हारी इन झील-सी गहरी आँखों में उदासी का एक समुन्दर सदा ठाठों मारता रहता है?”
“सच?” वह चौंक पड़ा, जैसे उसका झूठ पकड़ा गया हो, “तुमने देख लिए?’
“हाँ!” मैंने कहा, – “मैंने तो पहली नज़र ही देख लिए। था। तब, जब मैंने पहली बार तुम्हें पिछली कतार की टूटी हुई कुर्सी पर बैठे हुए देखा था। ऐसा क्यों है?”
“मुझसे आज तक किसी ने यह बात नहीं कही!” वह बोला- सभी मुझे हँसमुख और खुशमिजाज़ समझते हैं, तुम क्यों नहीं समझती?”
‘अरे छोड़ो! तुम और हँसमुख?” मेरे होंठों से एक उदास हँसी बह निकली, “हँसमुख होना तो तुम्हारा एक मुखौटा है, उसके नीचे तो एकदम उदास, गंभीर और संजीदा चेहरा छिपा है। तुम यह झूठ अपने चेहरे पर क्यों चिपकाए फिरते हो?”
वह एकदम गंभीर हो गया, जैसे उसने अपना मुखौटा उतार फेंका हो “सचमुच, मैं बहुत उदास हूँ। मुझे किसी ने प्यार नहीं किया…”
“तुम्हारी बीवी ने भी नहीं?” हालांकि उसकी बीवी के ज़िक्र को मैं अब तक टाल रही थी। पर इस समय और टालना मुश्किल था। उसके चेहरे से तनाव खत्म हो गया, लेकिन उदासी का रंग जस का तस रहा। इस उदासी ने एक ऐसा वातावरण बना लिए था, जो नशे की तरह मुझे अपनी आगोश में लिए जा रहा था। मैंने उसी नशे में हिचकोले खाते हुए उससे पूछा, “तुम तो अपनी बीवी से प्यार करते हो न?”
“बहुत ज़्यादा!” वह बोला- “मैं उसे जान से भी बढ़कर प्यार करता हूँ! मैंने उसे कभी बीवी की तरह प्यार किया ही नहीं, बल्कि एक अधीर प्रेमी जैसे अपनी प्रेमिका को प्यार करता है, बिलकुल वैसे ही प्यार किया है और आज तक इस हकीकत से समझौता नहीं कर पाया कि वह मेरी प्रेमिका नहीं, बीवी है…एक बात है…”
“क्या?”
वह ख़ामोश हो गया, जैसे किसी गहरी सोच में उतर गया हो। मैंने उसके चेहरे की ओर देखा, जहाँ दो आँखें थीं…..दो होंठ थे लेकिन ना तो आँखों में कुछ था और ना ही होंठों पर…मैं काफी देर तक उसके चेहरे की तरफ देखती रही कि अभी वह बात आगे चलाएगा, परन्तु उसकी खामोशी थी कि खत्म होने में ही नहीं आ रही थी। कुछ पल के लिए उसके होंठ जरा से हिले, लेकिन फिर बंद होकर रह गए। समय रुक गया लगता था जैसे धीर-अधीर शब्दों को खामोशी के इस साम्राज्य में प्रवेश की आज्ञा न हो।
अचानक ही उसने थकी हुई आवाज में पूछा- “एक-एक ड्रिक चलेगी?”
“नहीं, मैं नहीं पीती, तुम्हारे लिए बनाऊँ?”
“प्लीज! …सॉरी, तुम्हें तकलीफ दे रहा हूं। खैर, टपे-रिकार्ड पर जगजीत सिंह की टेप लगा दो…”
“बदला ना अपने आप को, जो थे, वही रहे!
मिलते रहे सभी से, मगर अजनबी रहे!!’
टेप पर जगजीत सिंह की सोज़ भरी आवाज़ गूंज उठी। उसने एक के बाद दूसरा पैग्ग उठाया…फिर तीसरा….फिर चौथा और उदास…और उदास होता गया। उसने चौथा पैग्ग बनाया। मेरा जी किया कि मैं उसका हाथ पकड़ लूँ। मैंने कहा- “अपने आपको किस बात की सज़ा दे रहे हो?” परंतु उसने हाथ में पैग्ग पकड़ा, उठा और टेप बंद कर दी।
“दरअसल मैं पागल हूँ….इस दुनिया में भला संबंधी के बिा प्यार हो सकता है? नहीं हो सकता ना…मैं यूँ ही मृगतृष्णा के पीछे भटक रहा हूँ!” वह जैसे अपने आप से संवाद करता हुआ बोल रहा था। वह दो-तीन तकियों का सहारा लेकर बिस्तर पर लेटा था। अचानक उसे मेरे वजूद का एहसास हुआ। उसने पूछा, “मैं क्या कह रहा था?”
“तुम कह रहे थे कि तुम अपनी पत्नी को प्रेमिका की तरह प्यार करते हो, पर एक बात है…”
“नहीं-नहीं कोई बात नहीं, वह भी मुझे बहुत प्यार करती है। मैं उसका पति…वह मेरी पत्नी…” उसने चौथा पैग्ग लगाया और एक ही साँस में पी गया। वह सच की भाषा में झूठ बोल रहा था और उदास रंगों से खुशी की सतरंगी पींग का चित्र खींच रहा था। इसलिए मेरे से रहा ना गया। मैंने कहा- “तुम्हें एक बात कहूँ, तुम अपने वजूद से झूठ बोल रहे हो। तुम्हारी उदासी तुम्हारा सच है और तुम्हारी खुशी तुम्हारा झूठ। तुम इसे स्वीकार क्यों नहीं कर लेते?”
“इससे क्या फर्क पड़ेगा? मैं अंदर से खुश नहीं हो सकता और बाहर से उदास नहीं रह सकता। मेरी खुशी और उदासी ने साथ-साथ रहना है….जब तक मेरी आत्मा इस मृगतृष्णा के रहस्य को जान नहीं लेती अथवा इसके पीछे दौड़-दौड़ कर हाँफ कर पस्त नहीं हो जाती।’
इस बीच कब उसका दोस्त उठकर दूसरे कमरे में चला गया, हमें पता भी न लगा। अब हम कमरे में दोनों अकेले थे। मैं कर्सी पर बैठी-बैठी थक गई थी। उसने मेरी परेशानी भाँप ली। बोला- “लगता है, तुम थक गई हो। लेट जाओ।” उसने बिस्तर की ओर इशारा किया। ‘दरअसल तुम्हारे लिए दूसरे कमरे में बिस्तर किया हुआ है। लेकिन वहाँ वह…खैर, मैं चला जाता हूँ उसके पास।” वह दूसरे कमरे में जाने के लिए उठा।
“नहीं-नहीं, मैं कमर सीधी करने के लिए कुछ देर यहीं पर लेट जाती हूँ।” मैंने हाथ के इशारे से उसे रोका और उससे कुछ फालता रखकर बिस्तर पर लेट गई।
अब मुझे पूरी शिद्दत से एहसास हुआ कि मैं एक कमरे में एक जवान मर्द के बिलकुल नजदीक अकेली लेटी हुई हूँ। एकदम हमारे बीच में खामोशी का एक मोटा-सा पर्दा तन गया। यही वक्त होता है, जब सारे मर्द एक जैसे हो जाते हैं। लेकिन उसने मेरे जिस्म में कोई दिलचस्पी नहीं ली। इससे तो उसका दोस्त अच्छा था, जिसने हर तीसरे फिकरे में मेरे बालों की तारीफ की थी, मेरे दांतों को सराहा था और पांच-छ: बार यह भी कह चुका था कि लंबी लड़कियाँ उसे बेहद अच्छी लगती हैं। बेशक मैंने उसे हर बार झूठी डाँट-डपट भी लगाई थी कि बेटों के मुँह से माँ के लिए ऐसी तारीफ अच्छी नहीं लगती। पर यहाँ कोई हरकत नहीं थी। मुझे लगता है, इस आदमी ने कभी किसी औरत की आँखों की तुलना हिरणी की आँखों से नहीं की होगी।
मेरे लिए यह एक जिज्ञासा का विषय था जिसका हल होना चाहिए था, लेकिन मेरे सामने ऐसे शब्दों के चुनाव की समस्या थी जिनके द्वारा बात छेड़ने पर मैं गलत ना समझी जाऊँ। मैंने बड़ी सावधानी से एक-एक शब्द चुनते हुए बात चलाई- “मैं भी एक आदमी को प्यार करती थी। परंतु जब भी वह मुझे प्यार करता, मुझे लगता, उसके सामने केवल मेरा जिस्म ही महत्त्वपूर्ण है, मैं कुछ नहीं, मेरा अस्तित्व कुछ नहीं। मुझे लगता, जैसे वह मुझे प्यार नहीं कर रहा, बल्कि बड़े चाव से सँवारी मेरे अरमानों की बगिया को बड़ी बेदर्दी से उजाड़ रहा है। मुझे लगता, जैसे उसके लिए मेरा जिस्म किसी दुश्मन का शहर हो, जिसे जीतने के लिए उसने पूरे दलबल के साथ हमला बोल दिया हो। मैं चाहती थी कि वह जहाँ-जहाँ भी मेरा स्पर्श करे, वहाँ-वहाँ से संगीत की मधुर स्वर-लहरियां फूट पड़ें और वह मुझ पर ऐसे बरसे जैसे कोई आवारा बादल प्यासी धरती पर बरस पड़ता है, परंतु वह तो कब का फारिग होकर ढेर हो गया होता।”
उसने पहली बार चौंक कर मेरी तरफ देखा। इससे पहले भी उसने कई बार मेरी ओर देखा था, परंतु यह देखना तो मेरे अंतस तक उतर जाने वाला था। कहाँ तो मैं उसका झूठ पकड़ने आई थी और कहाँ मैं अपना सच सरेआम नंगा कर बैठी थी। उसने एक पल के लिए मेरी आँखों में देखा और बोला- “शरीर प्रेम के रास्ते में आया मील पत्थर तो हो सकता है, परन्तु प्रेम की मंजिल नहीं हो सकता।”
“तो प्रेम की मंजिल क्या है?” मैंने पूछा।
‘प्रेम की मंजिल है- ‘आत्मा के सच के दर्शन! आत्मा के सौंदर्य में लीन हो जाना ही प्रेम की मंजिल है।”
“फिर शरीर क्या है?” मेरा वास्ता एक अजीब आदमी से पड़ा हुआ था, जो एक नौजवान औरत के जिस्म को कोई महत्त्व नहीं दे रहा था और आत्मा-परमात्मा जैसी गहन समस्याओं को ले बैठा था।
“शरीर आत्मा का माध्यम है। चेतना का सफर शरीर की कश्ती में बैठकर ही किया जा सकता है।” उसकी आवाज किसी योगी की आवाज जैसी गंभीर और गहरी थी। “खैर छोड़ो, यूं ही बोर टॉपिक शुरु हो गया… तुम्हें नींद आ रही होगी।”
सचमुच, रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। खुले पदार्थों में से पूर्णमाशी का चाँद साफ चमकता हुआ दिखाई दे रहा था। पर नींद आँखों से उड़ चुकी थी। ‘तुम्हें मेरी आंखों में नींद दिखाई देती हैं?”
“नहीं।”
“फिर क्या है?”
“मैं तुम्हारी आंखों में एक चिरजीवी औरत के दर्शन कर रहा हूँ जिसे एक चिरजीवी मर्द की तलाश है।” मुझे नहीं पता था कि वह आँखों की भाषा आखिरी शब्द तक बिलकुल ठीक पढ़ सकता है। मैंने पूछा, “क्या वह मर्द मिल गया?”
“क्या कहूँ?” पर मुझे उसकी आंखों में इस समय अपना ही प्रतिबिंब दिखाई दे रहा है।” उसने कहा, “मैं चिरजीवी मर्द के बिंब से वाकिफ नहीं…”
मेरा दिल किया कि कह दूं कि तुम ही तो हो वह मर्द जिसकी आँखों में औरत का शरीर देखकर वासना के लाल डोरे नहीं उभरते….जिसके लिए औरत का जिस्म केवल प्यास बुझाने का साधन नहीं….तुम लाखों में एक हो! परंतु मैंने जो कहा, वह इसके बिलकुल विपरीत था- “चलो, कुछ तो दिखाई दिया मेरी आंखों में, परन्तु तुम्हें पता है, इस चिरंजीवी औरत का एक खूबसूरत जिस्म भी है. जिसके रहस्य बडे खूबसूरत हैं। उन रहस्यों को जाने बिना चिरजीवी मर्द उसकी आत्मा तक कैसे पहुँच सकता है? तुम्हें एक बात बताऊँ, मैं शरीर बिना आत्मा को कुछ नहीं मानती!”
इससे आगे और क्या हो सकता था? मुझे पूरी उम्मीद थी कि इस पड़ाव पर आकर वह हार जाएगा। यदि वह हार जाता तो बात वहीं पर खत्म हो जाती। मेरे दिल की सल्तनत, जिसका वह कुछ ही समय में, शहंशाह बन गया था, पलों में ही उससे छीन जली जाती, परंतु उसने बात ही अजीब
कह दी- “मेरी चिरजीवी औरत महज जिस्म ही नहीं, बल्कि एक परिपूर्ण नारी है…जब तक मैं उसकी रुह को नहीं पहचान लेता, उसके जिस्म का सपना लेना भी मेरे लिए पाप है!” ऐसे लगा, जैसे लाखों शिवालों की घंटियाँ टनटना उठी हों और गगन में लाखों चाँद-तारों ने सत्य के यश-गान में इकट्ठे होकर आरती शुरू कर दी हो।
मैं उठ कर बैठ गई। जैसे मेरा रोम-रोम एक जीभ में बदल गया हो और पुकार उठा हो– “फिर कहो, एक बार फिर कहो!”
उसने हैरानी से मेरी ओर देखा- क्यों, ऐसा क्या कह दिया मैंने?”
“तुमने वह कह दिया, जो कभी किसी मर्द ने किसी औरत को नहीं कहा होगा!” मैंने कहा और रोकते-रोकते भी मेरी पलकों पर ठहरी आँसुओं की धारा बह निकली। ये वे पल थे, जब मुझे लगा कि मैं वह नहीं रही, जो इस पल से पहले थी!
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
