चन्दानी चीते की गरज के बाद फोन रख चुका था। अजय ने दांत पीसते हुए चन्दानी को कोसा। कमबख्त, उस पर अधिकार नहीं जमा सका तो अब उसके पिता को बंदी बनाकर उससे काम लेना चाहता है। और उसे अब उसके पास जाना ही पड़ेगा, उसका काम भी करना पड़ेगा, वरना वह उसके पिता को चीतों के आगे डाल देगा। अपने जीतेजी वह ऐसा कैसे होने दे सकता है?

उसने घड़ी देखी और फिर वह घर से निकल पड़ा। उसने टैक्सी की। ऐसे अवसर पर वह अपनी कार नहीं ले जा सकता था। दीवानचन्द को भी कार छोड़कर जाना पड़ा था, क्योंकि बताए हुए अड्डे पर जो व्यक्ति पिकअप करता था, उसके पास अपनी कार होती थी। वह ताजमहल होटल के सामने पहुंचा। तभी एक व्यक्ति ने उसी की सिगरेट से अपनी सिगरेट जलाते हुए परिचय दिया। बोला, ‘रमन।’

अजय ने अपनी सिगरेट वापस ली और उसके पीछे-पीछे चल दिया। समीप ही एक बार खड़ी थी। उसमें एक ड्राइवर तथा उसकी बगल में एक व्यक्ति पहले ही बैठा था। अजय कार के अंदर पीछे बैठ गया। उसके साथ वह व्यक्ति उसकी बगल में बैठ गया। गाड़ी चली तो उस व्यक्ति ने अजय के आगे एक चश्मा बढ़ाया। अजय ने इसे लेकर अपनी आंखों पर चढ़ा लिया। ऐसा उसे ही क्या, हर उस व्यक्ति को करना पड़ता था, जिसे चन्दानी के अड्डे पर पहुंचना पड़ता था।

यह चश्मा एक विशेष प्रकार का था, जिसे आंखों पर पट्टी बांधने के स्थान पर इसलिए पहनाया जाता था, ताकि सड़क पर आते-जाते किसी व्यक्ति को कोई संदेह न हो सके शीशा अन्य चश्मों के समान बाहर से देखने में बिल्कुल साधारण था, परंतु अंदर से आंखों द्वारा बाहर की एक भी वस्तु नहीं दिखाई देती थी। अंदर की ओर दोनों शीशों पर रबर फोम के दरदरे टुकड़े चिपके होते, इतने मोटे कि आंखों से सट जाते थे, इसलिए इस चश्मे को आंखों के पपोटे बंद करके ही पहनना पड़ता था। आंखें खोल दें तो रबर का दरदरापन कुछ इस तरह चुभता कि हफ्ते भर आंखें गड़ती रहतीं। चश्मे के दोनों ओर चमड़े के गोल घिराव आंखों को चारों ओर से इस तरह ढांक लेते कि यदि रबर फोम अंदर नहीं होता, तब भी बाहर कुछ नहीं दिखाई दे सकता था। बाहर से देखने में चश्मा सुंदर तथा आधुनिक ढंग का था।

कई मोड़ों के बाद कार एक जगह रुकी। अजय कार से नीचे उतरा। दोनों व्यक्तियों ने अजय की बांहों में हाथ डालकर उसे पकड़ा। दो पग बाद अजय ने उन व्यक्तियों के सहारे तीन सीढ़ियां पार कीं। आगे बढ़ा। कुछ दूर जाकर वह बाएं मुड़ा। फिर कुछ पगों बाद उसे रुकना पड़ा। एक व्यक्ति ने उसका हाथ छोड़ दिया।

फिर एक स्वर उत्पन्न हुआ – जूं…ऊं…ऊं।

एक ही व्यक्ति के सहारे वह चार पग आगे बढ़ा। रुका।

फिर वही स्वर – जूं…ऊं…ऊं।

दूसरे व्यक्ति ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया। दोनों व्यक्तियों के सहारे वह फिर आगे बढ़ा। कुछ पगों बाद रुका।

एक व्यक्ति ने फिर उसका हाथ छोड़ा।

फिर वही स्वर – जूं…ऊं…ऊं

परंतु इसके साथ ही उसके कानों में चीतों के गरजने का स्वर भी सुनाई पड़ने लगा। जब चीते खामोश होते तो उसे यह स्वर नहीं सुनाई पड़ता था, परंतु उसके आने का रास्ता तथा ढंग सदा यही हुआ करता था। वह चार पग आगे बढ़ा।

फिर वही स्वर – जूं…ऊं…ऊं।

उस व्यक्ति ने उसका हाथ फिर पकड़ा। वह कुछेक सीढ़ियां नीचे उतरा। फिर कुछ पगों बाद उसे रोक दिया गया। दोनों व्यक्ति उसे छोड़कर हट गए तो उसने अपनी आंखों से चश्मा उतार दिया। वह चन्दानी के सामने खड़ा था। चन्दानी अपनी कुर्सी पर बैठने के बजाय एक मेज से अपना कूल्हा टिकाए खड़ा उसकी ओर से निश्चिंत था। मेज पर समीप ही एक कोड़ा रखा था। चन्दानी अपने बहुत से गद्दारों को इस कोड़े द्वारा मारने के बाद ही चीतों के आगे डाला करता था। मेज पर एक बड़ी तथा सोने की थाली रखी थी, जिसमें किसी पशु के मांस के बड़े-बड़े टुकड़े भरे हुए थे। कुछ दूर पर दो चीते जंजीर से बंधे हुए आशा लिए भूखी दृष्टि से चन्दानी को देख रहे थे।

चन्दानी ने थाल में से मांस का टुकड़ा उठाया और चीतों की ओर फेंका। दोनों चीते मांस के लिए एक साथ गरजते हुए उछले, परंतु एक ने उसे फर्श पर गिरने से पहले ही अपने जबड़े में पकड़ लिया।

चन्दानी ने दूसरा टुकड़ा दूसरे चीते के लिए फेंक दिया। प्रायः चन्दानी इसी प्रकार अपने चीतों से खेला करता था।

अजय ने देखा, चन्दानी से कुछ हटकर रंधीर खड़ा उसे घूर रहा है।

जारी…

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