बात तब की है, जब मैं तकरीबन तीन-चार साल की थी। मेरे पिताजी रोज सुबह ‘दुर्गा सप्तशती का पाठ करके ही ऑफिस जाया करते थे। एक दिन उनकी पूजा के समय मैं बहुत ही जिद कर रही थी। जिस पर उन्होंने गुस्से में मुझे चारपाई के पाये से बांध दिया और खुद पूजा करने लगे। इस पर तो मैंने और भी जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया, तो मेरी मम्मी बोली कि अगर अब तुम जिद नहीं करोगी तो मैं तुम्हें खोल देती हूं। मैंने कहा, नहीं आप पीछे हट जाओ, जिसने बांधा वो ही खोले और यही दोहराती रही कि जिसने बांधा खुद ही खोले। ये सुनकर पिताजी मुस्कुराने लगे और उठकर मुझे खोल दिया और गले लगा लिया। आज हमारे पिता जी हमारे बीच नहीं हैं। उनकी कमी आज भी खलती है, ये बात आज भी उनकी याद दिलाती है और कभी-कभी अपनी बचपन की उस नादानी और जिद पर हंसी भी आती है।

 

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