आज सुबह से ही मोहल्ले में अफवाहों का बाजार गर्म हो रहा था। लोग जहां-तहां झुंड बना कर चर्चाओं में मशगूल थे। यूं लग रहा था मानो किसी अंतर्राष्ट्रीय समस्या पर चर्चा हो रही हो। पर अगर कभी अंतर्राष्ट्रीय समस्या पर ऐसी जोर-शोर से चर्चा हुई होती, तो शायद समस्याएं अब तक सुलझ भी गई होती। माज़रा कुछ और ही होगा। यही सोचकर मैं भी अपनी जिज्ञासा शांत करने का प्रयास करने बाहर आकर खड़ी हो गई।
कुछ सूत्रों से पता चला कि पड़ोस में रहने वाली विधवा ने पुनर्विवाह कर लिया है। खबर चौंकाने वाली तो थी पर मेरी नजर में गलत नहीं थी। आखिर इसमें गलत ही क्या है। क्या एक विधवा को दुबारा अपना जीवन संवारने का कोई हक नहीं? अगर पुरुषों को यह हक है, तो महिलाओं को भी होना ही चाहिए। उसमें ऐसा बवाल मचाने की भला क्या जरूरत है।
ऐसा बवाल न भी मचता, अगर यह दुस्साहस किसी और ने किया होता। यह दुस्साहस संजना ने किया था, जिसके लिए ऐसा करना नामुमकिन था, इसलिए मामला अधिक गरमा रहा था।
यही कोई दस बरस बीते होंगे, जब संजना बड़े ही परम्परावादी और कुलीन शर्मा परिवार की बहू बनकर इस घर में आई थी।
जितना सुंदर रूप उतना ही सुंदर मन। गुणों की तो खान थी। आते ही घरवालों का दिल जीत लिया उसने। सामाजिक लोक व्यवहार तो कोई उससे सीखे। क्या घर और क्या पास-पड़ोस, सभी के दिलों पर राज कर लिया था संजना ने।
कभी-कभी ईश्वर भी कितना निष्ठुर हो जाता है या तो कुछ देता ही नहीं, और यदि देता भी है तो छीन लेता है। संजना की ससुराल तो अच्छी थी। सास-ससुर, पति सब खूब प्यार करने वाले मिले। धन-संपदा, सुख किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो सिर्फ एक संतान की। विवाह के बाद दस वर्ष बीत गए। लाखों जतन किए पर शायद संतान सुख उसकी किस्मत में ही नहीं था। इस दु:ख के आगे सारे भौतिक सुख बेमानी थे।
ईश्वर की मर्जी के आगे अब किया भी क्या जा सकता है। ईश्वर ने एक और वज्रपात किया संजना पर। उसके पति रमेश का हृदयाघात से निधन हो गया। मुसीबत पर मुसीबत। नि:संतान होने की पीड़ा तो वह झेल ही रही थी, अब विधवा होने का लेबल और लग गया।
खैर, जीवन तो जीना ही है। संजना फिर से जीना सीखने लगी।चेहरे की रंगत ही फीकी पड़ गई थी उसकी। शरीर भी बेजान सा हो गया था। संतान न सही, पति का साथ तो था, वह भी अब न रहा। जैसे-तैसे घर के सारे काम व सास-ससुर की सेवा करके संजना अपना वक्त गुजारने की कोशिश करती। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता था, पर रात की तनहाइयां उसे डसने लगती।
भविष्य की चिंता उसे सताने लगती। आखिर सास-ससुर कब तक साथ देंगे। जब वे भी न रहेंगे, तब क्या होगा? काश! ईश्वर ने एक संतान तो दी होती, उसी के सहारे यह जीवन कट जाता। पर अब आगे क्या होगा?
सुबह उठती तो उसकी सूजी हुई लाल आंखें गवाही दे देतीं कि वह रात भर सोई नहीं है। ऐसा हमेशा ही होता था। सास की अनुभवी नजरों से कुछ भी न छिपता। वह बहू के दर्द और अकेलेपन को महसूस करती थी। संजना अब बीमार भी रहने लगी थी।
ईश्वर यदि कुछ छीनता है तो कुछ देता भी है। संजना कम से कम इतनी खुशनसीब तो थी कि उसे सास-ससुर बहुत अच्छे मिले। वे दोनों बिल्कुल माता-पिता की तरह संजना का खयाल रखते, पर संजना पर जो दु:खों का पहाड़ टूटा था, उसे तो वे भी संभाल पाने में असमर्थ थे। केवल उसका खयाल रखना ही उनके बस में था, जो वे बहुत अच्छी तरह रख रहे थे।
संजना की दिनों-दिन गिरती हालत से सास-ससुर भी परेशान थे। वे दिन-रात यही विचार करते रहते कि कैसे संजना के चेहरे पर खोई हुई मुस्कान वापस ला सकें?
काफी सोच-विचार करने के बाद उन्होंने तय कर लिया कि संजना को किसी काम में व्यस्त करना जरूरी है।
संजना के जीवन में कुछ परिवर्तन ला कर ही उसकी खोई हुई मुस्कान वापस लौट सकती है। संजना बी.ए. पास तो थी ही। शादी से पहले किसी प्राइवेट स्कूल में टीचर भी थी। उन्होंने तय किया कि शहर में इतने स्कूल हैं, किसी प्राइवेट स्कूल में यदि वह पढ़ाने का काम कर ले तो इससे उसका मन भी बहल जाएगा और बच्चों के बीच रहकर वह अपने दु:खों के बोझ को हल्का भी कर सकेगी। आर्थिक समस्या तो थी नहीं, बस समय काटना और संजना का खुश रहना अधिक महत्वपूर्ण था।
समय के पाबंद और ज्यादातर घर में रह कर अध्यात्म और स्वाध्याय में व्यस्त रहने वाले संजना के ससुर प्रकाशचंद्र जी अक्सर घर से गायब रहने लगे। शाम को तो उनका पूजा का वक्त होता है, फिर भी देर से घर आने लगे। उनकी धर्मपत्नी प्रभा जी ने कई बार पूछा भी कि आजकल कहां उलझे रहते हैं, घर में कुछ पता ही नहीं रहता। जब देखो घर से बाहर रहते हैं। बात क्या है?
प्रकाशचंद्र जी ने कहा, ‘कुछ नहीं, बस थोड़ा काम से निकल जाता हूं। संजना की सास प्रभा जी समझ तो गई कि बहू का दु:ख और उसका मुरझाया हुआ चेहरा उनसे देखा नहीं जा रहा है, इसीलिए ज्यादातर घर से बाहर रह कर समय काट रहे हैं।
जाने क्या सोचकर प्रकाशचंद्र जी ने किसी को यह नहीं बताया था कि वे बहू के लिए नौकरी तलाशते शहर भर में घूम रहे हैं। बेरोजगारी के इस युग में आसानी से नौकरी मिलती कहां है पर प्रकाश जी हैं कि बहू का मन हल्का करने और समय निकालने का एक जरिया उपलब्ध करवाने के लिए नौकरी ढूंढ़ते फिर रहे थे।
दोपहर का वक्त था। प्रकाशचंद्र जी घर पर ही थे और दोपहर का भोजन करके थोड़ा आराम करने जा ही रहे थे कि कॉलबेल बज उठी।
दरवाजे पर पोस्टमैन था, हाथ में लिफाफा लिए हुए। प्रकाशचंद्र जी ने खोलकर देखा- बहू का नियुक्ति पत्र था। शहर के प्रतिष्ठित स्कूल ‘ज्ञान-ज्योति’ में उसकी नियुक्ति शिक्षिका के पद पर हो गई थी।
‘अरे बेटा संजना, जल्दी आओ। प्रभा जी आप भी आइए।’
‘जी पापा।’
आइए प्रभा जी आप भी आइए। आप हमेशा पूछती थी न कि मैं दिन भर घर से बाहर कहां घूमता रहता हूं। दरअसल मैं बहू के लिए नौकरी तलाश कर रहा था और आज यह तलाश पूरी हो गई। हमारी बहू की नौकरी लग गई है।
‘यह लो बेटा अपना नियुक्ति पत्र। तुम्हें कल ही ज्वॉाइन करना है। मैं तुम्हारे साथ चलूंगा तुम्हें ज्वाइन करवाने।’
‘पर पापा…’
नहीं बेटा पर-वर कुछ नहीं। एक बार यदि तुम स्कूल में मन लगा लोगी तो अपने सारे दु:ख-दर्द भूल जाओगी। तुम्हें इस तरह उदास देखकर हम लोग भी दु:खी रहते हैं। हम तुम्हें हमेशा खुश देखना चाहते हैं, इसलिए तुम्हारे लिए काम का एक जरिया ढूंढ़ा है। तुम कल दस बजे तैयार रहना, बस।
संजना ने नौकरी ज्वॉइन कर ली। प्रकाशचंद्र जी ने जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ। संजना अब पहले की तुलना में कुछ स्वस्थ नजर आने लगी। खुश भी रहने लगी। बस यही तो चाहते थे वे। बाकी तो ईश्वर की कृपा से सब कुछ था उनके पास।
किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। बहू के चेहरे पर खोई मुस्कान वापस लौट आई थी, यही उनके लिए बहुत था।
अब तो संजना पूरी तरह स्कूल के माहौल में रम चुकी थी। अपनी मेहनत व लगन से अपनी एक खास छवि बना ली थी उसने। छात्रों के बीच में भी लोकप्रिय हो गई थी।
इधर संजना के ससुर प्रकाशचंद्र जी संजना को खुश रखने के एक प्रयास में तो सफल हो गए थे, पर अब भी वे संजना के भविष्य को लेकर चिंतित रहते थे। जब भी पति-पत्नी साथ बैठते, यही चर्चा करते कि उनके बाद संजना का क्या होगा?
क्या केवल नौकरी के भरोसे वह अपना पहाड़ सा जीवन गुजार लेगी? जीवन गुजारने के लिए एक जीवन साथी का होना कितना आवश्यक है। यह उनसे बेहतर और कौन जान सकता है?
जवान बेटे की मौत के बाद आखिर वे दोनों पति-पत्नी ही तो एक-दूसरे का सहारा बने थे। एक-दूसरे का संबल ही इस दु:ख से उबारने में सहायक हुआ था।
प्रकाशचंद्र जी आजकल कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे हैं। उन्होंने तय किया है कि अपनी बहू संजना का जीवन वे एक बार फिर से संवारेंगे। आखिर उनकी मौत के बाद कोई तो संजना का सहाना बने। वे उसे यूं अकेला नहीं छोड़ सकते। वैसे भी वे संजना को बहू नहीं बल्कि बेटी ही मानते रहे हैं। फिर भला वे अपनी बेटी के सुखद भविष्य की कामना क्यों नहीं करेंगे?
यह संजना का सौभाग्य ही था कि थोड़ा प्रयास करने के बाद प्रकाशचंद्र जी को संजना के लिए एक योग्य वर के रूप में सुरेश मिल गया।
सुरेश विवाहित था। उसकी पूर्व पत्नी एक बच्चे को जन्म देने के बाद चल बसी थी। तब से वह अकेला ही था। लोकनिर्माण विभाग में अच्छे पद पर कार्यरत था वह।
संजना को पति और बच्चे दोनों का ही सुख मिलेगा, यह सोचकर प्रकाशचंद्र जी व प्रभादेवी ने जरा भी देर न की और दोनों की सहमति से साधारण रीति-रिवाज से मंदिर में दोनों का विवाह संपन्न करवा दिया।
विवाह के तत्काल बाद ही प्रकाशचंद्र जी अपनी पत्नी के साथ तीर्थयात्रा पर निकल गए। संजना के लिए सुरेश जैसा योग्य वर पा कर वे बिल्कुल निश्चिंत हो गए थे। अपना कर्तव्य निभाकर उन्होंने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था।
यह विडंबना ही है कि लोगों को शायद हर नए और अच्छे कार्य में बुराई ही नजर आती है सो आज सुबह से बकवास किए जा रहे हैं। आखिर कब तक करेंगे, जिन्हें कोई काम नहीं होता, वे कुछ तो करेंगे ही।
प्रकाशचंद्र जी के अदम्य साहस और अनुकरणीय पहल को एक न एक दिन सभी नतमस्तक हो कर स्वीकार करेंगे। यह सोच उनके इस सार्थक प्रयास को मैंने मन ही मन प्रणाम किया और अपने नित्यकर्म में लग गई। चर्चा में संलग्न समाज के तथाकथित रहनुमा धीरे-धीरे वहां से प्रस्थान करने लगे।
प्रकाशचंद्र जी आजकल कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे हैं। उन्होंने तय किया है कि अपनी बहू संजना का जीवन वे एक बार फिर से संवारेंगे। आखिर उनकी मौत के बाद कोई तो संजना का सहाना बने। वे उसे यूं अकेला नहीं छोड़ सकते। वैसे भी वे संजना को बहू नहीं बल्कि बेटी ही मानते रहे हैं। फिर भला वे अपनी बेटी के सुखद भविष्य की कामना क्यों नहीं करेंगे?
