Maternal Death: पिछले दिनों अमेरिकी ट्रैक स्टार टोरी बॉवी की चाइल्ड बर्थ कॉम्प्लिकेंशंस के दौरान 32 साल की उम्र मौत की खबर चर्चा में रही। रियो ओलंपिक में 3 मेडल जीतने वाली नामी अमेरिकी एथलीट टोरी की मौत गर्भावस्था के दौरान होने वाली जटिलताओं की वजह से हुई थी। वो एक्लैम्पसिया और श्वसन संकट से जूझ रही थी। गर्भावस्था के आठवें महीने में उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी, जिसकी वजह से घर में ही उनकी मौत हो गई थी। ऑटोप्सी रिपोर्ट के मुताबिक खिलाड़ी की मौत पूरी तरह से नैचुरल है। यूएस में अश्वेत मातृ मृत्यु दर सबसे ज्यादा है। कई अध्ययनों से पता चला है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में अश्वेत महिलाओं में प्री.एक्लेमप्सिया का खतरा अधिक है। बॉवी के ओलंपिक साथियों में से एक एलीसन फेलिक्स को गंभीर प्री.एक्लेमप्सिया के कारण आपातकालीन सी.सेक्शन से गुजरना पड़ा। वर्ष 2021 में हुई एक स्टडी के मुताबिक एक लाख माताओं में 69.9 बच्चे को जन्म देते हुए अपनी जान गंवा देती हैं। सेंटर ऑफ डिजीज कंट्रोल और प्रीवेंशन के मुताबिक ये दर श्वेत महिलाओं के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है।

हालांकि अमेरिका जैसे विकसित देशों की अपेक्षा भारत में गर्भावस्था और प्रसव के दौरान होने वाली जटिलताओं के कारण मातृ-मृत्यु दर काफी अधिक है। जिसकी मूल वजह एक्लैम्पसिया, हैमरेज सेप्सिस जैसी चाइल्ड बर्थ कॉम्प्लिकेंशंस के साथ हार्ट डिजीज, डायबिटीज लाइफस्टाइल डिस्टऑर्डर भी रहती हैं। फिर भी पिछले कुछ सालों से भारत में प्रधानमंत्री जननी सुरक्षा योजना शुरू करने से स्थिति में सुधार आया है। इसमें डिलीवरी घर में करने के बजाय अस्पताल में करने पर जोर दिया गया है। गर्भवती स्त्री को डिलीवरी के लिए अस्पताल लाने-ले-जाने, अस्पताल का खर्चा सरकार देती है। यहां तक कि इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी प्राइवेट सैक्टर में आने वाले अस्पतालों को निर्देश दिए गए हैं कि गरीब तबके की गर्भवती महिलाओं की बच्चे की डिलीवरी के लिए वे मरीज से खर्चा न लें। डिलीवरी में जो भी खर्च आएगा, उसकी प्रतिपूर्ति सरकार की तरफ से की जाएगी।
आंकड़ों के हिसाब से योजना के चलते पिछले 3 साल में भारत में डिलीवरी के समय मातृ-मृत्यु दर एक लाख पर 300 से 130 हो गई है। इसके पीछे कई कारण देखे गए हैं- मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर अच्छा न होना, खासकर दूर-दराज के इलाकों में अस्पताल की कमी, लोगों में जागरूकता की कमी, प्रेगनेंसी का पता चलने पर डॉक्टर को कंसल्ट न करना, रेगुलर चेकअप और गर्भावस्था में होने वाली जटिलताओं के समुचित उपचार न कराना। लेकिन विकसित देशों में मातृ-मृत्यु दर एक लाख में केवल 1-2 यानी 1-2 प्रतिशत ही है।
गर्भावस्था और प्रसव के दौरान होने वाली जटिलताएं
एक्लेम्पसिया

प्रेगनेंसी के दौरान, आमतौर 24 वें सप्ताह से गर्भवती महिला का ब्लड प्रेशर बढ़ना शुरू हो जाता है। जब गर्भवती महिला का ब्लड प्रेशर कंट्रोल नहीं हो पाता हैै, तो उन्हें किडनी में प्रोटीन यूरिया आने की समस्या शुरू हो जाती है- तो ऐसी स्थिति को प्री-एक्लेम्पसिया कहा जाता है। प्रोटीन यूरिया में 24 घंटे में अगर महिला के शरीर से यूरिन में 2 ग्राम से अधिक प्रोटीन निकलने लगता है।
अगर प्री-एक्लेम्पसिया के लक्षण पहचाने न जाने और समयोचित उपचार न हो पाने पर एक्लेम्पसिया में गर्भवती महिला को दौरे या फिट्स आने लगते हैं जिसे एक्लैम्पिक फिट कहा जाता है। ये दौरे काफी गंभीर होते हैं जिसमें उसे मिर्गी के दौरे के समान बहुत जोर-जोर से झटके आने लगते हैं। झटकों के साथ महिला के शरीर में बदलाव या टॉनिक क्लोनिक कंवर्जन होने से गर्भ में पल रहे बच्चे में ब्लड सप्लाई बंद हो जाती है। कई महिलाएं झटकों को संभाल नहीं पाती, गिर जाती है। दौरे में बहुत तेज झटकों के कारण महिला-बच्चे दोनों की मौत हो सकती है।
कई महिलाओं में पोस्टपार्टम एक्लेम्पसिया के मामले भी देखे जाते हैं। बच्चा पैदा होने के बाद महिलाओं को फिट्स आते हैं। लेकिन उन्हें अपेक्षाकृत कम खतरा रहता है। ब्लड प्रेशर और फिट्स कंट्रोल करने के लिए समुचित मेडिसिन देकर उनका उपचार संभव हो जाता है।
एक्लेम्पसिया का उपचार ब्लड प्रेशर को मेडिसिन से तुरंत कंट्रोल करना पडता है। एक्लेम्पसिया के लिए मरीज को इंजेक्शन के माध्यम से इंट्रामस्क्युलर दवाई दी जाती है जो मरीज के मसल्स को रिलेक्स करती है और फिट्स नहीं आने देता है। जब महिला नॉर्मल हो जाती है और गर्भ में पल रहा उसका शिशु जिंदा हो, तो बच्चे की डिलीवरी अविलंब कर दी जाती है। बच्चा होने के बाद अक्सर महिलाओं में एक्लेम्पसिया की बीमारी ठीक हो जाता है।
ब्लीडिंग हैमरेज

प्रेगनेंसी के दौरान होने वाली बहुत हैवी ब्लीडिंग हैमरेज है। इसमे महिला को 3-4 लिटर तक ब्लड लॉस हो जाता है। देखा जाए तो मानव शरीर में ब्लड वोल्यूम 5 लिटर होता है, हैमरेज होने पर हैवी ब्लीडिंग होने पर गर्भवती महिला और बच्चे की जान को खतरा रहता है। हैमरेज दो तरीके का होता है-
एंटी पार्टम हैमरेज: यह प्रेगनेंसी के दौरान होने वाला हैमरेज है। ऐसी स्थिति मंे मरीज को बहुत ज्यादा ब्लीडिंग होती है जिसका समयोचित उपचार न हो पाने पर कई बार जच्चा-बच्चा दोनों की मृत्यु हो जाती है। यह कई कारणों से होता है जैसे- महिला का प्लेसेंटा यूटरस लाइनिंग या यूटरस वॉल से डिलीवरी के समय से पहले प्री-मैच्योरिली अलग हो जाए। या प्लेसेंटा प्रीविया या प्लेसंेटा लो लाइन होता है यानी प्लेसेंटा गर्भाशय के निचले हिस्से को कवर कर रहा होता है जिसकी वजह से महिला की सिजेरियन डिलीवरी ही होती है।
पोस्टपार्टम हैमरेज: डिलीवरी के बाद महिलाओं को बहुत हैवी ब्लीडिंग होती है। कई बार डिलीवरी के समय किसी गलती के कारण महिला के प्लेसेंटा में छेद हो जाते हैं। डिलीवरी के बाद यूटरस संकुचित न होकर रिलैक्स ही हो। यूटरस में बड़े-बड़े साइनस होते हैं जो प्लेसेंटा की लाइनिंग से चिपके होते हैं। मां का ब्लड इन्हीं प्लेसेंटा के माध्यम से बच्चे को ब्लड पहुंचाता है। डिलीवरी के बाद महिला के यूटरस से प्लेसेंटा को निकाल दिया जाता हैं जिससे साइनस ओपन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में मां को ऐसी दवा देनी पड़ती है कि यूटरस की मसल्स संकुचित हो जाएं और साइनेस बंद हो जाएं। जबकि यूटरस के रिलैक्स रहने पर साइनेस ओपन रहतेे हैं। गर्भवती महिला का रक्त यूटरस से होता हुआ ब्लीडिंग के रूप में आने लगता है।
हैमरेज की स्थिति में गर्भवती महिला को बड़े पैमाने पर ब्लड ट्रांसफ्यूजन किया जाता है, यूट्रो-टॉनिक्स दिए जाते है। अब बहुत अच्छी ओरल दवाएं भी आ गई हैं। अगर महिला को समय पर इंजेक्शन न दिया जा सके, तो ओरल दवाएं या जीभ के नीचे रखी जाने वाली सब्लिंग्वल टेबलेट दी जाती हैं। इनसे महिला की स्थिति में सुधार होता है यानी यूटरस संकुचित हो जाता है और ब्लीडिंग रूक जाती है। इससे महिला की मौत से भी बचाव होता है।
सेप्सिस

यह एक तरह का इंफेक्शन है जो आमतौर पर घर में होने वाली डिलीवरी के मामलों में होता है। घर में होेने वाली डिलीवरी में कई बार इंफेक्शन रोकने के उपायों (एसेप्टिक मैजर्स) का उपयोग नहीं किया जाता। जिससे डिलीवरी के दौरान प्रेगनेंट महिला को इंफेक्शन हो जाता है और जच्चा-बच्चा की जान को खतरा रहता है। फिल्म अभिनेत्री स्मिता पाटिल की मौत भी सेप्सिस इंफेक्शन के कारण हुई थी जबकि उनकी डिलीवरी मुंबई के बड़े अस्पताल में हुई थी।
सेप्सिस इंफेक्शन तब होता है जब डिलीवरी के समय से पहले सर्विक्स का मुंह खुल जाता है और वॉटर बैग फट जाता है। तब वजाइना और यूटरस में सीधा लिंक हो जाता है। इस दौरान महिलाओं का इंटरनल एग्जामिनेशन करना जरूरी होता है जिसमें हाइजीन का ध्यान न रखे जाने पर महिला के वजाइना एरिया में इंफेक्शन हो जाता है। जो धीरे-धीरे महिला के शरीर के ऊपरी अंगों की तरफ ऊपर चला जाता है।
इसके अलावा गर्भवती महिला को साथ ही वॉटर बैग के फटने पर जरूरी है कि बच्चे की डिलीवरी 12 घंटे के अंदर कर देनी चाहिए। लेकिन कई मामलों में वॉटर बैग के फटने पर निकलने वाले लाइकर फ्ल्यूड के प्रति जागरूक नहीं होते। एंटीबॉयोटिक दवाइयां देने पर भी बैैक्टीरिया वजाइना एरिया में पनपने से इंफेक्शन हो जाता है और शरीर के ऊपरी अंगों (यूटरस और आसपास के क्षेत्र) की तरफ चला जाता है। वहां मौजूद रक्त में मिलकर पूरे शरीर में फैल जाता है। ऐसे मामले में मां को बचाना काफी मुश्किल हो जाता है।
देर से गर्भवती होने पर होने वाली जटिलताएं

वर्तमान समय में देर से शादी करने के चलन की बदौलत महिलाएं देर से गर्भवती हो रही हैं। पहले जहां 22-25 साल के बीच बच्चे हो जाते थे, वहीं आज 35 साल से ज्यादा की महिलाएं गर्भवती हो रही हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि गर्भावस्था एक तनावपूर्ण स्थिति है जिसकी वजह से कई तरह की समस्याएं हो सकती हैं। बढ़ती उम्र में कई महिलाओं का शरीर इसे झेलने में सक्षम नहीं होता जिससे उन्हें कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है।
- इस दौरान महिलाओं का ब्लड-वॉल्यूम 40 प्रतिशत बढ़ जाता है जिससे महिलाओं के हार्ट पर दवाब पड़ता है। बड़ी उम्र की कई महिलाएं जिन्हें माइनर हार्ट डिजीज हों, गर्भवती होने पर हार्ट डिजीज एकाएक बढ़ जाती है।
- गर्भावस्था में महिलाओं को डायबिटीज का खतरा रहता है। हाइपर-ग्लाइसीमिया होता है। अगर महिला का पैनक्रियाज ज्यादा इंसुलिन बनाने की स्थिति में नहीं है, तो महिलाओं को जेस्टेशनल डायबिटीज हो जाती है। जेस्टेशनल डायबिटीज को नियंत्रित करना बेहद जरूरी होता है क्योंकि इससे गर्भ में पल रहे बच्चे की मौत हो सकती है,गर्भपात हो सकता है या जन्मजात विकार हो जाते हैं।
- हाइपरटेंशन हो सकता है जिससे महिला को एक्लैम्पसिया होने का खतरा रहता है।
रखें सावधानियां
हमारे देश में मातृ-मृत्यु दर रोकने के लिए जागरूकता बढ़ाने और समुचित कदम उठाने की जरूरत है। जब भी प्रेगनेंसी हो, तो बिना देर किए अस्पताल जाएं। स्त्री रोग विशेषज्ञ से मिलकर रेगुलर टेस्ट कराएं। बच्चे की ग्रोथ और स्थिति चैक करने के लिए अल्ट्रासाउंड कराएं। गर्भवती महिला को एनीमिया या दूसरी समस्या तो नहीं है। संतुलित और पौष्टिक आहार का विशेष ध्यान रखें। सामान्य महिला (2000 कैलोरी) की अपेक्षा गर्भवती महिला (2500 कैलोरी) को ज्यादा कैलोरी की जरूरत होती है।
डॉक्टर की सलाह पर आयरन, कैल्शियम, फोलिक एसिड जैसे सप्लीमेंट लें। वजन पर नजर रखें। पूरी प्रेगनेंसी के दौरान हेल्दी महिला का वजन 10-12 किलो ही बढ़ना चाहिए, ज्यादा वनज होने पर महिला को बाद में परेशानियां हो सकती हैं। प्रेगनेंसी के बाद 4-5 किलो वजन बढ़ सकता है जिसे वो नियमित एक्सरसाइज से कम कर सकती हैं। प्रेगनेंसी के दौरान नियमित एंटी-नेटल, हल्की-फुल्की एक्सरसाइज, वॉकिंग, योगा करने से जहां महिला एक्टिव रहती है, वहीं नॉर्मल डिलीवरी की संभावना बढ़ जाती है।
(डॉ नीता सिंह, सीनियर प्रोफेसर, प्रसूति और स्त्री रोग विभाग, एम्स, नई दिल्ली)
