Dilip and Saira: एक बारह साल की मासूम लडकी को दिलीप कुमार से इश्क हो गया। वो लडकी अब बहुत बड़ी हो चुकी है। प्यार सच्चा था। दिलीप कुमार हमसफर बन उसके साथ रहे। वक्त का पहिया अब आगे बड़ चुका है। दिलीप कुमार को गुजरे एक साल हो गया है।
बिछोह के गीत को साथ ले आई
कहते हैं बारिश आती है तो अपने साथ बहुत कुछ लाती है। मिट्टी की खुशबू, कागज की नाव, सावन और इसमें लगने वाले झूले। लेकिन पिछली बारिश बिछोह के गीत को भी साथ लेकर आई। पिछली ७ जुलाई को दिलीप कुमार गुजर गए। उनका गुजर जाना भारतीय सिनेमा के प्रमुख अध्याय के अंत होने जैसा था। कुछ जादू सा था उनकी शख्सियत में, जो उनसे मिला वो उनका दीवाना हुआ और जो न भी मिला वो उनकी अदाओं से दीवाना हो गया। उनकी याद में कवि और अनुवादक गार्गी मिश्र लिखती हैं कि दिलीप कुमार (यूसुुफ साहब) हिंदी सिनेमा का कोहिनूर। पिछली बारिश और उनका जाना। पिछले बरस इन्हीं बारिशों में, मेरे जन्म के माह जुलाई में मेरे उस्ताद चले गए। उनके जाने पर उनके कई इंटरव्यू सुने, पढ़े और देखे। यह याद का टुकड़ा उनकी एक बातचीत से निकाला है। इतना थम कर बोलते थे साहब कि कई-कई बार रिवाइन्ड कर के सुना। उर्दू के ऐसे पारखी सुन कर लिखते हुए डर बना रहा कि कहीं कुछ गलत तो नहीं लिख रही हूं। मन माना नहीं। सुना और लिखा। जो जानकार हैं उन्हें कोई कमी दिखे तो जरूर बताएं। बाकी ये याद आप सब के लिए।
बचपन की बातें
बचपन की जो बातें होती हैं, वो जो नाते रिश्ते होते हैं, जब आदमी एक कोंपल को ले कर देखता रहता है और सोचता है कि ये कैसे बनी होगी और किस तरह से इसकी बनाई गई होगी, जब वो बादलों को लहराते हुए देखता है और मां से पूछता है कि क्यों होता है ऐसा, सूरज कैसे निकलता है और जब डूब जाता है तो कहां चल जाता है?
पेशावर की जिंदगी
मेरी पेशावर की जिंदगी ऐसी ही यादों से सजी हुई हैं। बारह बरस की उम्र तक आना-जाना होता रहा, वो मकान, वो दालान, वो घर, वो गलियां जो उस वक्त बड़ी कुशादा लगती थीं, अब जब उन्हें देखा तो बड़ी मुख़्तसर सी लगीं। कुछ तो दुकानें और छाबडें आगे बढ़ आई हैं। घर देखा, उस पर एक छोटा सा दरवाजा था। एक कुआं भी था और जीने में एक छोटा सा दरवाज था। अम्मी कहतीं है कि जब ईदी में पैसे मिलते हैं तो उन्हें जमा किया करो। तो मैं उस दराज में पैसे रख देता था। मैं समझता था कि पैसे को अगर रख दो तो वो खुद जमा होता जाता है। और कुछ दिनों के बाद जब उन्हें निकालूं तो वो उतने के उतने ही! मैं मां से कहूं कि ये तो जमा हुए ही नहीं…
जीने के उस दराज को मैंने देखा कि बंद कर दिया गया है। वो सब जो था उस लफ्जों में आदमी ढल नहीं सकता। वो शख्सियत से ताल्लुक रखती हैं। ये ऐसे जज्बात हैं जो ‘नाकाबिल ए बयां’ हैं। और बड़े ही बुनियादी हैं।
मैंने जो कुछ भी महसूस किया मुझे ऐसा लगता है जैसे अपनी जिंदगी की तारीख के बहुत से पल पलट कर वापस आए और ये एहसास हुआ कि ये अभी कल कि ही तो बात है। इसलिए लोगों ने जब मुझसे पूछा कि आप यहां से कब गए थे तो मैंने कहा कि मैं तो गया ही नहीं था। मैं तो यहीं पेशावर में था और अब भी हूं। यादें बड़ी खूबसूरत होती हैं। वो हुस्न और उसका सहर जो था वो अब भी मेरे जहन पर काबिज है।
वो उनके कोहिनूर और उनके साहब थे
खैर बात हो रही थी सायरा बानो की, हर किसी को पता है कि सायरा ने दिलीप कुमार से कितनी मोहब्बत की है। वो उनके कोहिनूर और उनके साहब थे। ये उनकी मोहब्बत थी कि दोनों के बीच उम्र का इतना फासला होने के बावजूद भी यह कभी उन दोनों के बीच में जगह नहीं बना पाई। दिलीप कुमार के साथ जब सायरा चलती थीं तो उनकी मुस्कुराहट देखते ही बनती थी। वहीं जब दिलीप कुमार बुजुर्ग हो गए थे तो उनको अस्पताल लाती ले जाती सायरा एक मजबूत साथी के तौर पर नजर आती थी। उनका हाथ थामे लगता था जैसे कि अपनी जिंदगी को थामें चल रही हों।

जिंदगी बस चलती ही रहती है
साहब के जाने के बाद सायरा की जिंदगी में भी बहुत कुछ बदल सा गया है। साहब के जाने के बाद से उनकी तबीयत भी कुछ खराब रहती है। इस साल बहुत बार वो अस्पताल में भर्ती हुईं।
वो मेरे पास ही हैं
यादों के इस सफर में उन्होंने बहुत सी बातें की हैं। उन्होंने लिखा था कि अब सुबह उठती हूं तो बेड के दूसरी ओर वो नहीं होते। मैं फिर से सो जाती हूं। चाहती हूं कि मेरी आंख खुले तो वो मुझे नजर आएं। हां मैं जानती हूं कि वो मेरे दिल में हैं। एक दिन ऐसा होगा कि जब मैं आंख खोलूंगी तो मुझे पास ही में सोते हुए नजर आएंगे।