Hindu darsan ka Rahasya in Hindi
यथार्थ की परख के लिए जो दृष्टिकोण अपनाया जाता है, उसे दर्शन कहते हैं। परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का दूसरा नाम दर्शन है। भारतीय परंपरा में दर्शन का व्यापक महत्त्व है। क्या है दर्शन तथा हमारे जीवन को राह दिखाने में इनकी क्या भूमिका है, जानें इस लेख से।
मानव जीवन का चरम लक्ष्य दुखों से छुटकारा प्राप्त करके चिर आनंद की प्राप्ति करना है। समस्त दर्शनों का भी एक ही लक्ष्य दुखों के मूल कारण अज्ञानता से मानव को निवृत्त कराकर मोक्ष की प्राप्ति करना है। इस प्रकार अज्ञानता एवं परंपरावादी रूढ़िग्रस्त विचारों को नष्ट करके सत्य ज्ञान को प्राप्त करना ही समस्त दर्शन का प्रमुख उद्देश्य है। प्रकृति के एक छोटे से छोटे अणु से लेकर परमात्मा तक का ज्ञान कैसे संभव है? इसलिए दर्शनों में इस ज्ञान प्राप्ति के लिए कुछ निर्देश दिए गये हैं।
सनातन काल से ही मानव में जिज्ञासा और अन्वेषण की प्रवृत्ति रही है। प्राकृतिक वस्तुओं की उत्पत्ति तथा सूर्य, चन्द्र और ग्रहों की स्थिति के अलावा परमात्मा के बारे में भी जानने की जिज्ञासा मानव में रही है। इन जिज्ञासाओं का शमन करने के लिए उनके अनवरत प्रयास का ही यह फल है कि हम लोग इतने विकसित समाज में रह रहे हैं। परंतु प्राचीन ऋषि-मुनियों को इस भौतिक समृद्धि से न तो संतोष हुआ और न चिर आनंद की प्राप्ति ही हुई है।
अत: उन्होंने इसी सत्य और ज्ञान की प्राप्ति के क्रम में सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं गूढ़तम साधनों को करना प्रारंभ किया और उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। उसी सत्य ज्ञान का नाम दर्शन है।
‘दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम’ अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है।
कैसे हुई दर्शन की शुरुआत
भारत में दर्शन या दार्शनिक विचार का आरंभ कब और कैसे हुआ, इसके विषय में दो प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं और ये दोनों दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से एक दृष्टिकोण यह मानता है कि आदिकालीन आर्य मूलत: भारत में नहीं थे, वे भारत में बाहर से आए थे और उनके सामने परब्रह्मï की चिंता इतनी नहीं थी जितनी अपने जीवन में सुखमय स्वरूप की।
भारत के आर्य मृत्यु के बाद जीवन के विषय में उतने चिंतित नहीं थे जितने जीवन के जीने में। उनकी कुछ विशेषताएं इस प्रकार थीं-
1. जीवन को पूर्णता और विविधता में देखना।
2. रहस्यमयता के प्रति उपेक्षा का भाव।
3. यथार्थ के प्रति लगाव।
अर्थात् भारत के मूल निवासियों (उनके अनुसार जो आर्यों को मूल निवासी नहीं मानते) के पास एक विचार प्रक्रिया थी, चिंतन का स्वरूप था तथा लिपि और वर्णमाला भी थी। अब वे लोग क्या थे, इस पर अलग-अलग विचार मिलते हैं और यह कहा जाता है कि जीवन को जीने वाले आर्य इन मूल लोगों पर आक्रमण करते थे और इनकी धन-संपत्ति लूट लेते थे। इस प्रकार दो प्रकार की संस्कृतियों के संघर्ष में एक वैचारिक भूख का आविर्भाव हुआ।
प्रकृति ने हमेशा ही जहां मनुष्य का मनोरंजन किया है, वहां उसके सामने बहुत सारी चुनौतियां भी खड़ी की हैं। अनेक बार उसके जीवन को बहुत कठिनाई में डाला और प्रारंभ से ही अब तक मनुष्य की सारी संस्कृति और सभ्यता प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने में लगी है। इस तरह मनुष्य-सूर्य, चंद्रमा, प्रकाश, अंधकार, मेघों का गर्जन, बाढ़, जल प्लावन, भूकंप आदि से बहुत डरता रहा है और इनके विषय में सोचता रहा है।
सामान्यत: प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने की प्रक्रिया में संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ एवं ब्रह्मïांड के स्वरूप को समझने और विश्लेषण करने में दर्शनों का आविर्भाव हुआ। भारत के सभी छहों दर्शनों का विश्लेषण आस्थावादी दृष्टि से भी किया जाता है और भौतिकवादी दृष्टि से भी।
वह मतभेदों से परिपूर्ण है, मतभेद विवेचक आचार्यों के हैं, क्योंकि उनके अनुभव एक दूसरे की दृष्टि में अलग रहे हैं और दर्शन मूलत: अनुभव पर आघात करने वाली जागतिक स्थितियों का विश्लेषण है। भारतीय दर्शनों में जो परस्पर विरोधी बातें लगती हैं वे दृष्टिकोण के आधार पर हैं, मूल में विरोध नहीं है।
हम इस बात को नहीं मानते कि आर्य लोग प्रकृति के नियमों से अनभिज्ञ थे और उन्होंने भय से सामान्य जीवन को नियंत्रित करने वाली शक्तियों को अलौकिक शक्तियां बना दिया। किंतु वेदों में प्राप्त बहुत सारे कथनों से एक विशेष प्रकार के संघर्षों का अनुमान होता है।
जैसे एक स्थान पर कहा गया है-
हे इंद्र! हमें आनंद और अमरता दो। शत्रुओं का नाश करने के लिए हमें आवश्यक बल दो। हमें समृद्धि दो और संरक्षण प्रदान करो। इस प्रकार की अभिव्यक्ति में मूल भाव, जिसकी ओर हम ध्यान दिलाना चाहते हैं, वह यह है कि प्रकृति की शक्तियों के प्रति एक रहस्य भाव उस समय के आर्यों में था। वहां हमें महज शक्ति के रूप में इंद्र, वरुण, अग्नि आदि मिलते हैं। जैसे अग्नि के लिए कहा गया है-
अग्निदेव! तुम शरीर के रक्षक हो, हमारी रक्षा करो। तुम दीर्घायु देने वाले हो, हमें दीर्घायु दो। वेदों में एक विशेष बात यह देखने को मिलती है कि वहां शिव का उल्लेख नहीं है किंतु रुद्र का है। रुद्र और पर्जन्य आदि वायुमंडल के देवता माने जाते हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि दर्शन के एकत्व का प्रारंभ शायद उस स्थान में होता है, जहां सबको एक कहा गया है। उदाहरण के लिए- अग्नि भी वही है, आदित्य भी वही, वायु भी वही है, चंद्रमा भी वही, प्रकाश भी वही है, ब्रह्मï भी वही, जल भी वही है, प्रजापति भी वही।
अब यदि इसकी हम बाद के उस एकत्व से तुलना करें जिसमें आत्मा परमात्मा को अलग और एक माना गया है, जहां पर ब्रह्मï के अनेक नामों में परम, अनादि, अनंत, पुरुष की भी गिनती की गई है तो मूलत: दर्शन के स्वरूप का वहां प्रारंभ माना जा सकता है, जहां परम को पुरुष के रूप में माना गया है और संसार को उसका एक अंग। उस पुरुष को ब्रह्मïांड पुरुष कहा गया है। इस प्रकार सृष्टि की स्तुति भी आर्यों की ऐसी अनुसंधानपरक अभिव्यक्ति है, जिसे दर्शन के प्रारंभ के रूप में देखा जा सकता है।
असत् नहीं था, सत् भी नहीं था। रज नहीं था, न ही उसके पार का आकाश था। क्या ऊंचा और क्या नीचा था? गहन गंभीर पानी कहां था? और ब्रह्मïांड कहां था? मृत्यु नहीं थी, अमरत्व भी नहीं था। न तो रात का कोई चिह्न था और न दिन का। अपनी आंतरिक शक्ति से परमेश्वर ने वायुहीन श्वास लिया। उनसे परे और कुछ नहीं था। पहले अंधकार था- अंधकार से ही आवृत्त। अन्य किसी चिह्न के बिना, जो भेद का सूचक हो, सर्वत्र जल था। अमूर्त से सब ढका हुआ था। अपनी स्वयं की महिमा और तप से वह स्थित था। सबसे पहले कामना उत्पन्न हुई। फिर मन से सर्वप्रथम बीज उत्पन्न हुआ था।
ऋषियों ने अपने हृदय से, बुद्धिमता से सोचते हुए, असत् में सत् को देखा। किंतु निश्चित रूप से कौन जानता है? किसने बताया है कि उद्भव किसमें से हुआ और यह सृष्टि कहां से आई? देवगण भी सृष्टि के बाद के हैं। तब कौन जान सकता है कि इसका उद्भव कहां से हुआ? इसे किसने रचा? या नहीं भी रचा? परम आकाश में जो नियामक के रूप में स्थित है, वह जागता होगा। न भी जाऌगता हो।
यह सारा विवेचन भारतीय दर्शनों के स्वरूप में थोड़ा बहुत मिलता है क्योंकि हमारी मूल जिज्ञासा यही है कि हम क्या हैं और हमारे होने और न होने के बीच इस अज्ञात शक्ति से हमारा क्या संबंध है? जो कुछ भी हम देखते हैं इसका विकास तो हमारी बुद्धि के वृत्त में आ जाता है, किंतु इसकी उत्पत्ति पर ही सबसे बड़ा प्रश्न है और इस प्रश्न से ही दर्शन का आविर्भाव होता है।
क्या कहते हैं दर्शन
वैसे तो समस्त दर्शन की उत्पत्ति वेदों से ही हुई है। फिर भी समस्त भारतीय दर्शन को आस्तिक एवं नास्तिक दो भागों में विभक्त किया गया है।
जो ईश्वर और वेदोक्त बातों पर विश्वास नहीं करता है वे नास्तिक वर्ग में परिगणित किये जाते हैं। जैसे चार्वाक, बौद्ध तथा जैन दर्शन इत्यादि।
हमारी मूल जिज्ञासा यही है कि हम क्या हैं तथा हमारे होने और न होने के बीच इस अज्ञात शक्ति से हमारा क्या संबंध है? जो कुछ भी हम देखते हैं उसका चतुर्दिक विकास हमारी बुद्धि के वृत्त में आ जाता है, वस्तुत: यहीं से दर्शन का आविर्भाव होता है।
दर्शन वे शास्त्र हैं जिनमें प्रकृति, आत्मा, परमात्मा और जीवन के अंतिम लक्ष्य का विवेचन है, जिनमें मोक्ष प्राप्त करना तथा ईश्वर में लीन हो जाना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया गया है। दर्शन छह बताए गए हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत।
न्याय दर्शन- महर्षि गौतम द्वारा रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्त्व ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्त्व ज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है फिर क्रमश: राग, द्वेष, लोभादि दोषों की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मों में प्रवृत्ति न होने, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक, जीवात्मा को शरीर से अलग तथा प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण मानकर स्पष्ट रूप से द्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
वैशेषिक दर्शन- महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक माना गया है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय इन छह पदार्थों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्त्व ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है।
साधर्म्य तथा वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव-ब्रह्मï दोनों ही चेतन हैं, किन्तु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों का ईश्वरोक्त होने से परम-प्रमाण मानता है।
सांख्य दर्शन- इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत् से सत् की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत् कारण से ही सत्य कार्यों की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है।
साथ ही इसमें प्रकृति को परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित 24 कार्य पदार्थों का स्पष्ट दर्शन किया गया है और पुरुष 25वां तत्त्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदार्थों का कारण तो है, परन्तु प्रकृति का कारण कोई नहीं हैं, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्त्व है तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है प्रकृति स्वयं भोक्ता नहीं है।
योग दर्शन- इस दर्शन के रचियता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति की स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है। वैसे तो सांख्य और योग के सिद्धांतों में पर्याप्त समानता है। परन्तु इसमें ईश्वर के सत्य स्वरूप, मोक्ष प्राप्ति के उपाय तथा वैदिक उपासना पद्धति की मुख्य रूप से व्याख्या की गई है। इसके अलावा योग क्या है? जीव के बन्धन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं इसके निरोध के क्या उपाय हैं? इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है।
इस सिद्धांत के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इन्द्रियां बहिर्गमी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।
मीमांसा दर्शन- इस दर्शन में वैदिक यंत्रों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। इस दर्शन के रचयिता महर्षि जैमिनी हैं। यदि योग दर्शन अंत:करण शुद्धि का उपाय बताता है तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्यों और अकर्तव्यों का वर्णन करता है।
जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति संभव हो सके जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित है, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनी ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
वेदान्त दर्शन- वेदान्त का अर्थ है वेदों का अंतिम सिद्धांत। महर्षि व्यास द्वारा रचित इस दर्शन को ब्रह्मï सूत्र अथवा उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्मïा जगत के कर्ता, धर्ता, संहार कर्ता होने से जगत के निमित्त कारण हैं, उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्मïा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनन्दमय, नित्य, अनादि, अनन्तादि, गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता हैं।
साथ ही जन्म-मरणादि क्लेशों से रहित और निराकार भी हैं। इस दर्शन के प्रथम सूत्र अथातो ब्रह्मïजिज्ञासा से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है वह ब्रह्मï से भिन्न है। अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। यह सर्वविदित है कि जीवात्मा हमेशा से अपने दुखों से मुक्ति का उपाय कर्ता रहा है। परन्तु ब्रह्मï का गुण इससे भिन्न है।