खिड़की खुली थी। ताजी हवा के झोंके मनु के बालों से खिलवाड़ कर रहे थे। पूरब की दिशा से चांद निकल आया था। वातावरण पर दूधिया चांदनी छिटकी थी। किन्तु मनु की दृष्टि अपनी उंगली में सजी हीरे की अंगूठी पर टिकी थी। निखिल यही तो चाहता था कि वह सुहागरात वाले दिन उसकी दी हुई अंगूठी को पहने।
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निखिल की इस अंगूठी को देखते-देखते उसके मन-मस्तिष्क में बेचैनी-सी भर गई। उसे यों लगा कि निखिल को उसने वास्तव में चाहा था! पहले भी और आज भी। वह समझ न पा रही थी-कि आज से एक वर्ष पहले उसे हो क्या गया था? क्यों इतनी घृणा उत्पन्न हो गई थी उसके हृदय में निखिल के लिए? क्यों इतनी निष्ठुर हो गई थी वह कि उसने निखिल से साफ-साफ कह दिया था-
‘निखिल! आज के पश्चात् हम दोनों की राहें अलग-अलग होंगी। न तुम मुझसे मिलने का प्रयास करोगे और न ही मैं तुमसे मिलूंगी। हम भूल जाएंगे एक-दूसरे को। हम यह भूल जाएंगे कि कभी एक ही राह पर चले थे। हम यह भूल जाएंगे कि हमने कभी एक-दूसरे को चाहा था। पापा मेरा विवाह एक अन्य युवक से करना चाहते हैं और मेरी विवशता यह है कि मैं उनके निर्णय को बदल नहीं सकती। आशा है तुम मुझे माफ कर दोगे और हमेशा के लिए भूल जाओगे।’ इसके उपरांत मानो सब कुछ बीत गया था। प्रेम का एक युग, एक प्रेम कहानी-जो पूरी होने से पहले ही पूरी हो गई थी।
किन्तु आज मनु को लग रहा था कि वह कहानी फिर दुहराई जा रही थी। शायद-शायद उस कहानी का अंत ही न हुआ था। अंत होता तो यह कहानी फिर क्यों शुरू होती। फिर क्यों आता निखिल उसके जीवन में? फिर क्यों इतनी तड़प उठती उसके हृदय में? फिर क्यों सोचती वह निखिल के विषय में?
सोचते हुए मनु ने गहरी सांस ली और फिर एकाएक ही उसकी नजरें आकाश की ओर उठ गईं। एक छोटी-सी बदली बड़ी तेजी से चांद की ओर बढ़ रही थी। तभी आहिस्ता से द्वार खुला। मनु चौंक गई। चेहरा घुमाकर देखा-यह आनंद था।
आनंद ने अंदर आते ही द्वार बंद कर दिया और जूते उतारकर बिस्तर पर बैठ गया। इसके पश्चात् वह मनु से बोला- ‘यह दूरी, यह खामोशी इस रात ठीक नहीं।’
‘और क्या करूं?’ मनु ने आनंद से पूछा। सच्चाई यह थी कि उसने यह प्रश्न अपने हृदय से किया था।
आनंद ने उसे अपनी ओर खींच लिया। बोला- ‘कुछ गुनगुनाओ-कुछ गाओ। किन्तु तुम्हारे इन गुलाबी होंठों से फूटने वाला गीत ऐसा हो, जिसमें गुलाब की महक हो और फूलों का रस घुला हो।’
‘मैंने आज तक कुछ गाया होता-तो यह जीवन संगीतमय न बन जाता?’
‘जीवन संगत का ही दूसरा नाम है। इसमें सुर भी है और ताल भी है। दिक्कत तो यह है कि कुछ लोग इस संगीत को समझ नहीं पाते। जो नहीं समझते-उन्हें यह जीवन जीवन नहीं-बल्कि कांटों की राह लगता है।’
‘मेरी समझ में तुम्हारा यह दर्शन कभी नहीं आया। कितना अच्छा होता-यदि तुम दार्शनिक होने के स्थान पर एक कवि होते।’
‘और कविता लिखते तुम पर-क्यों?’ आनंद ने मनु की आंखों में झांकते हुए कहा- ‘तुम्हारे इन होंठों को गुलाब की पंखुड़ियां कहा जाता। तुम्हारी इन आंखों को झील की संज्ञा दी जाती और तुम्हारे इस गोरे-गोरे मुखड़े को चांद कहा जाता। न बाबा न! इतना झूठ मैं नहीं बोल सकता था। तुम भी जानती हो कि चांद-चांद होता है-किसी के मुख को चांद नहीं बनाया जा सकता। कवि और दार्शनिक में सबसे बड़ा अंतर यही होता है। कवि झूठ बोलता है-दार्शनिक झूठ नहीं बोल सकता। कवि उपमाएं देता है-जबकि एक दार्शनिक प्रत्येक वस्तु को वह जैसी है-उसी रूप में संसार के सामने रखता है। क्या सोचने लगीं?’
मनु वही सोच रही थी कि जो उसकी सखी संध्या ने कहा था। उसने कहा था-तुम्हारा प्रोफेसर तो सुहागरात वाले दिन भी अपना दर्शन बघारेगा। और-यही हो भी रहा था।
‘बोलो न?’ आनंद ने उससे फिर कहा।
‘क्या बोलूं?’
‘कुछ भी।’
‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम बोलते रहो और मैं आंखें बंद किए चुपचाप सुनती रहूं?’
‘ऊंहु! भला ऐसा कैसे हो सकता है। आज हमारा प्रथम मिलन है। मिलन की यह रात हम दोनों की है। अतः मेरे होंठ खुले और तुम्हारे बंद रहें-यह तो प्रेम नहीं।’
‘तो फिर प्रेम क्या है?’ मनु ने उसकी गोद से उठकर पूछा।
आनंद बोला- ‘दो आत्माओं का मिलन। दो हृदयों का संगम और भावनाओं की ऐसी अभिव्यक्ति, जिसे कोई तीसरा न जान सके।’
‘क्या आत्माओं के मिले बिना प्रेम संभव नहीं?’
‘नहीं! उसे प्रेम नहीं कहा जा सकता। ऐसा प्रेम केवल शारीरिक प्रेम हो सकता है।’ आनंद ने कहा, तभी उसकी नजर मनु की उंगली में पहनी डायमंड रिंग पर पड़ी और वह चौंककर बोला- ‘यह रिंग तुम्हें किसने दी?’
‘क्यों?’
‘बहुत कीमती है न-20-25 हजार की होगी। इसलिए पूछ बैठा।’
‘मेरी एक सखी ने दी है।’
‘नाम?’
‘न पूछो तो ठीक है। वैसे-अच्छी है न?’ मनु ने अंगूठी वाली उंगली को आनंद के सामने नचाते हुए उससे पूछा।
‘हां! बहुत सुंदर है।’ आनंद बोला- ‘बहुत चाहती होगी तुम्हें।’
‘कौन?’
‘तुम्हारी वही सहेली।’
‘न चाहती तो इतनी सुंदर उपहार क्यों देती?’
‘उपहार तो मैं भी लाया था तुम्हारे लिए। जानती हो-क्या हो सकता है?’
‘आं-दर्शन शास्त्र की कोई पुस्तक। एक दार्शनिक अपनी पत्नी को इसके अलावा और दे भी क्या सकता है।’ मनु ने कहा और हंस पड़ी।
‘क्यों! दार्शनिक के हृदय में भावनाएं नहीं होतीं?’
‘होती हैं बाबा! अच्छा-अब इस बहस को छोड़ो और सो जाओ। मैं तो बुरी तरह से थक गई हूं।’ कहकर मनु लेट गई।
आनंद बोला- ‘आज की रात नींद कहां आएगी?’
‘प्रयास करोगे तो आ जाएगी।’
‘उपहार न लोगी?’
‘दे दो-मना कौन करता है।’
आनंद ने लेटकर मनु को अपनी ओर खींच लिया और बोला- ‘मनु! कहते हैं कि आज की रात पति अपनी पत्नी को कोई-न-कोई उपहार अवश्य देता है।’
‘तुम क्या दे रहे हो?’
‘यही सब सोचते-सोचते दिन बीत गया-किन्तु समझ न पाया कि क्या दूं। सोचता हूं-आज की रात तुम्हें एक वचन दे दूं।’
‘वचन!’ मनु ने कहा और अनायास ही हंस पड़ी। एक दार्शनिक के पास उसे देने के लिए और हो भी क्या सकता था।
‘हां!’ आनंद बोला- ‘यूं समझो कि एक सौगंध! एक वादा-और वो यह है कि मैं तुम्हें जीवन भर उतना ही प्यार करूंगा-जितना आज करता हूं।’
‘उपहार अच्छा है।’
‘और मैं चाहता हूं कि तुम भी मुझे यही उपहार दो। वचन दो कि हमारे प्रेम में कभी कोई कमी न आएगी। तुम मुझे भविष्य में भी उतना ही चाहोगी-जितना आज चाहती हो।’
‘भविष्य का क्या पता।’
‘क्यों?’
‘भविष्य एवं वर्तमान के बीच अंधकार की बहुत बड़ी दीवार होती है। वर्तमान में बैठकर भविष्य को देखना बहुत कठिन होता है। अतः भविष्य में क्या होगा-कोई नहीं जान पाता। फिर भी मैं कोशिश करूंगी कि ऐसा हो। हम दोनों एक-दूसरे को यूं ही चाहते रहें।’
‘ऐसा ही होगा मनु! ऐसा ही होगा।’ आनंद ने कहा और इसके साथ ही उसने मनु के होंठों से अपने होंठ सटा दिए।
मनु ने आंखें मूंद लीं। उसके होंठों पर अब दूर-दूर तक भी मुस्कुराहट न थी।
निखिल ने फिल्म का प्रिंट देखा और इसके उपरांत वह खुश होकर पाशा से बोला- ‘थैंक्यू मिस्टर पाशा!’
‘फिल्म अच्छी है न सर?’
‘अच्छी ही नहीं-बहुत अच्छी। हमारी यह फिल्म हांगकांग में तलहका मचा देगी। अब आप ऐसा करें कि इसी सप्ताह दूसरी फिल्म की तैयारी शुरू कर दें।’
‘सर! स्क्रिप्ट तो उसी की रहेगी न?’
‘मिस्टर पाशा! इस प्रकार की फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट का कोई महत्व नहीं होता। कहानियां सभी एक जैसी होती हैं और उद्देश्य भी एक जैसा ही होता है।’
‘मैं समझ गया सर!’
‘गुड! अब आप जा सकते हैं।’
पाशा फिल्म का प्रिंट लेकर बाहर चला गया।
उसके जाते ही गोपीनाथ आ गए। निखिल ने अभिवादन के उपरांत उनका स्वागत किया- ‘आइए अंकल! बैठिए।’
‘निखिल!’ गोपीनाथ बैठकर बोले- ‘मुझे तुमसे बहुत बड़ी शिकायत है।’
‘वह क्या अंकल?’
‘तुम मनु के विवाह में क्यों नहीं आए?’
‘आपकी यह शिकायत उचित है। किन्तु विश्वास कीजिए-मैं उस दिन शाम की फ्लाइट से हांगकांग चला गया था। काम ही कुछ ऐसा था। आशा है इस अपराध के लिए आप मुझे माफ करेंगे।’
‘नहीं! अपराध जैसी बात नहीं निखिल! असल में तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे पूरे दिन खलती रही।’
‘चलिए कोई बात नहीं।’ निखिल ने कहा फिर कुछ सोचकर वह बोला- ‘आपका काम कैसा चल रहा है?’
‘ठीक है और आशा भी है कि ठीक समय पर पूरा भी हो जाएगा। मैं अगले सप्ताह आठ-दस आदमी और बढ़ा रहा हूं।’
‘पैसे संबंधी कोई समस्या हो तो आप सक्सेना से चैक ले लें। मैंने उससे कह दिया है।’
‘नहीं! अभी ऐसी कोई समस्या नहीं।’ गोपीनाथ ने कहा।
निखिल ने चपरासी को बुलाकर उससे कॉफी लाने के लिए कहा और फिर एकाएक वह बोला- ‘अंकल! एक शिकायत तो मुझे भी है आपसे।’
‘मुझसे! वह क्या?’
‘मैंने सुना है-आपने सेठ जानकीदास से पांच लाख का ऋण ले रखा है और मनु के विवाह के लिए भी दो लाख का ऋण लिया है।’
‘हां!’ गोपीनाथ बोले- ‘किन्तु विवशता थी। पिछले एक वर्ष में इतना घाटा उठाया कि ऋण लेना पड़ा। कोठी गिरवी रखनी पड़ी। मनु के विवाह के लिए भी मेरे पास कुछ नहीं था-अतः दो लाख का ऋण विवाह के लिए लेना पड़ा। काम अच्छा चल गया तो उतर जाएगा।’
‘हूं-इस समय कितना कर्ज है आप पर?’
‘कुल मिलाकर सात लाख।’
‘और ब्याज मिलाकर?’
‘साढ़े सात लाख मान लो।’
‘आप इस विषय में मुझसे भी तो कह सकते थे।’
‘एक बार सोचा भी था, किन्तु साहस न हुआ।’
‘साहस आपको करना चाहिए था अंकल! मैं तो आपके बेटे के समान हूं। मुझसे कैसा संकोच।’ इतना कहकर निखिल ने इंटरकॉम का रिसीवर उठाया और सक्सेना से कहा- ‘मिस्टर सक्सेना! गोपीनाथ जी को साढ़े सात लाख का चैक दे दें-इसी समय।’ कहते ही उसने रिसीवर रख दिया।
गोपीनाथ उसे अचरज एवं अविश्वास से देखने लगे। बात प्रसन्नता की थी किन्तु अविश्वासपूर्ण भी। निखिल एक दिन उनका समस्त ऋण चुका देगा-ऐसा तो वे ख्वाब में भी नहीं सोचते थे।
तभी रिसीवर रखकर निखिल ने उनसे कहा- ‘अंकल! मैं आपको साढ़े सात लाख का चैक दे रहा हूं। जानकीदास का ऋण आप आज ही चुका दीजिए।’
‘लेकिन-लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया निखिल?’
‘मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं किया अंकल! मेरे पास पैसा था और आप कर्ज के बोझ से दबे थे। ऐसे में आपको चिंता मुक्त करना मेरा फर्ज था। मैंने तो केवल आपको चिंता मुक्त किया है।’
उसी समय सक्सेना चैक लेकर आ गया।
निखिल ने सक्सेना से चैक लेकर गोपीनाथ को दिया और बोला- ‘लीजिए अंकल! और कुछ मत सोचिए।’
‘निखिल! निखिल तुम तो वास्तव में देवता निकले।’ मैं-मैं तुम्हारे इस उपकार को कभी नहीं भूल पाऊंगा। लेकिन-यह रकम मैं चुकाऊंगा कैसे?’
‘उसकी आप चिंता न करें।’
तभी चपरासी कॉफी ले आया।
कॉफी पीकर गोपीनाथ चले गए।
निखिल ने शिल्पा को बुला लिया। शिल्पा उसकी सेक्रेटरी ही नहीं, सब कुछ भी थी। निखिल उसे लेकर दूसरे कमरे में पहुंचा और सोफा-कम-बैड पर लेटते हुए बोला- ‘बहुत थक गए हैं शिल्पा!’
‘सेवा बताइए सर!’
‘सेवा तुम भली प्रकार जानती हो। कुछ गाओ-कुछ गुनगुनाओ। कुछ अपनी कहो-कुछ हमारी सुनो।’
‘आप बहुत रोमांटिक हैं सर!’
‘थे।’ निखिल बोला- ‘किन्तु पिछले कई दिनों से ऐसा लग रहा है-जैसे हम सब कुछ भूलते जा रहे हैं। हमें-हमें चैन नहीं है शिल्पा! हमें एक पल के लिए भी चैन नहीं है।’
‘मनु के कारण?’
‘ठीक समझीं तुम! उसी के कारण। उसी ने यह उलझनें पैदा की हैं हमारे दिमाग में। दुःख तो इस बात का है कि हमने जीती हुई बाजी हार दी। हमने उसे हमेशा के लिए खो दिया। यदि हम चाहते तो उसकी शादी रुक सकती थी। वह हमारी दुलहन बन सकती थी।’
शिल्पा अलमारी से पीने का सामान निकालने लगी। बोली- ‘आपने ऐसा क्यों नहीं चाहा?’
‘सोचते थे।’ निखिल उठा और दीर्घ निःश्वास खींचकर बोला- ‘हम उसे भूल जाएंगे। ख्वाब की भांति देखा और भुला दिया। हमने यह भी सोचा था कि शायद हम उसे सिर्फ नीचा दिखा रहे हैं। शायद हम उसे बीते हुए दिनों पर पछताने पर विवश कर रहे हैं और हम उसे बिलकुल भी नहीं चाहते। यह तो हमने उसके विवाह के पश्चात् जाना कि हम उसे आज भी उतना ही चाहते हैं।’

इतना कहकर निखिल नीचे उतरा और उसने सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की खोल दी। शाम बड़ी तेजी से डूबती जा रही थी। तभी शिल्पा उसके समीप आई और बोली- ‘सर! क्या आप अपनी ये पीड़ा मुझे नहीं दे सकते?’
‘कुछ पीड़ाएं बांटी नहीं जातीं शिल्पा! उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है।’
‘आप सोचते हैं-मैं आपसे प्यार मांगूंगी? नहीं सर! ऐसा बिलकुल नहीं है। वैसे भी आप प्यार पर विश्वास नहीं करते। आप विश्वास करते हैं इस बात पर कि संसार में जो कुछ है, सिर्फ दौलत है। मैं तो आपका मन बहलाने की बात कर रही हूं। आपकी पीड़ाओं को बांटने की बात कर रही हूं। आप प्रयास करेंगे तो मेरा साथ आपकी पीड़ाओं को कुछ कम कर देगा।’
निखिल ने इस बार कुछ न कहा।
शिल्पा ने उसकी ओर गिलास बढ़ा दिया। गिलास लेकर निखिल ने खिड़की बंद की और बैठ गया।
शिल्पा ने अपने ऊपरी वस्त्र उतार दिए। अपना कर्त्तव्य वह जानती थी। निखिल ने उसे इसी शर्त पर नौकरी दी थी। फिर जब निखिल अपना गिलास खाली कर चुका तो वह उसकी गोद में लेट गई और बोली- ‘अब छोड़िए भी सर! और मेरी आंखों में देखिए।’
‘इन आंखों में वह सम्मोहन नहीं।’
‘तो फिर मेरे इन गुलाबी होंठों को देखिए सर!’
‘तुम्हारे ये होंठ बहुत सुंदर हैं शिल्पा! बहुत सुर्ख हैं। किन्तु इनमें वह मधु नहीं जो मेरे जैसे इंसान की प्यास बुझा सके।’
‘और-मेरे यह यौवन पुष्प?’ शिल्पा ने निखिल का हाथ अपने वक्ष पर रखा।
निखिल बोला- ‘इनमें वासना का तूफान तो है, किन्तु आत्मा का समर्पण नहीं।’
शिल्पा क्रोध से तड़प उठी। अपमान से उसका रोम-रोम चीख उठा। फिर भी शांत स्वर में उसने कहा- ‘आश्चर्य है सर! मेरे पास आपके लिए कुछ भी नहीं है और फिर भी आप…।’
‘तुम्हारे पास वह खूबसूरत जिस्म है जो हमारी वासना की प्यास बुझा सकता है, किन्तु तुम्हारा यह जिस्म हमारे हृदय में उफनते प्यार के तूफान को शांत नहीं कर सकता। अच्छा होगा कि तुम सिर्फ अपने जिस्म को याद रखो और प्यार की भाषा को भूल जाओ।’ निखिल ने कहा और इसके साथ ही उसने शिल्पा को अपनी बांहों में भर लिया।
शिल्पा भी कुछ कहने का साहस न कर सकी।

