Osho: जब भी मैं ओशो की बात करती हूं लगता है कि खामोशी की ओर एक संकेत भर हो पाया है, इससे अधिक कुछ नहीं हुआ। खामोशी का अनुवाद नहीं होता, यह सिर्फ उसकी गाथा है जो कुछ-कुछ अनुवाद में उतरती है और अंतर अनुभव का संकेत सा बनती चली जाती है। इसलिए गाथा की अहमियत आज भी है और हर काल में बनी रहेगी।
मुझे सिर्फ इतना भर कहना है कि ओशो-गाथा को पढ़ने वाले अक्षरों के अंतराल में धड़कती हुई खामोशी को भी सुन लें।
मैं समझती हूं कि ओशो हमारे युग की एक बहुत बड़ी प्राप्ति है, जिन्होंने सूरज की किरण को लोगों के अंतर की ओर मोड़ दिया, और सहज मन से उस संभोग की बात कह पाए- जो एक बीज और किरण का संभोग है और जिससे खिले हुए फूल की सुगंध इंसान को समाधि की ओर ले जाती है, मुक्ति की ओर ले जाती है, मोक्ष की ओर ले जाती है।
मानना होगा कि ओशो ही यह पहचान दे सकते थे, जिन्हें चिंतन पर भी अधिकार है और वाणी पर भी अधिकार है। ओशो एक अकेला नाम है, सदियों में अकेला नाम, जिसने दुनिया को भय-मुक्त होने का संदेश दिया।
कुछ लोग होते हैं- चिंतन, कला या विज्ञान के क्षेत्र में, जो प्रतिभाशाली होते हैं, और कभी-कभी यह दुनिया उन्हें सम्मानित करती है, लेकिन रजनीश अकेले हैं, बिलकुल अकेले, जिनके होने से यह दुनिया सम्मानित हुई, यह देश सम्मानित हुआ। ओशो ने कहा है- ‘मुझे कभी ‘था’
कहकर याद नहीं करना, ‘मैं हूं’ और काया के भार से मुक्त होकर मेरा अस्तित्व आपको पहले से भी ज्यादा अनुभव होगा।’
मानना होगा कि, सत्य कभी ‘था’ नहीं होता। ‘वो है’ और ‘वो था’ इसके बीच का फासला सिर्फ दुनिया वाले तय करते हैं, लेकिन मुहब्बत करने वाले यह फासला तय करना नहीं जानते।
ओशो की आवाज हवा में बहती हुई सुनाई देती है। वह बहती हुई पवन की तरह किसी के अंतर में सरसराती है, एक बादल की तरह घिरती हुई बूंद-बूंद बरसती है, और सूरज की एक किरण होकर कहीं अंतर्मन में उतरती है तो कह सकती हूं, वहां चेतना का सोया हुआ बीज पनपने लगता है। फिर कितने ही रंगों का जो फूल खिलता है उसका कोई भी नाम हो सकता है। वो बुद्ध होकर भी खिलता है, महावीर होकर भी खिलता है, और नानक होकर भी खिलता है।
ओशो का चिन्तन जिस गहराई में उतरता है, वहां किसी दूसरे के लिए कहने को कुछ नहीं बचता। मैं मानती हूं कि हर चिन्तनशील साधक के लिए, हर बना हुआ रास्ता संकरा होता है। अपना रास्ता तो उसे अपने पैरों से बनाना होता है। लेकिन श्री रजनीश इस रहस्य को सहज मन से कह पाए, इसके लिए हमारा युग इन्हें धन्यवाद देता है।
अपनी इसी चेतना की रोशनी में देखती हूं कि एक ओशो हैं, जो इस युग की आवाज बन पाए हैं।
ओशो-गाथा सदियों तक लोगों की छाती में बहती रहेगी। हम कितना भी कुछ कहें, कितना भी सुनें, यह कहने और सुनने की सीमा में नहीं आएगी, पर अनुभव की खामोशी होगी जो अक्षरों के अंतराल में धड़कती हुई हर काल की रगों में चलती रहेगी।
ओशो जब कायामय हुए तो आकाशगंगा का पानी कायामय हुआ और जब सितारों ने उस पानी से अपनी-अपनी मटकियां भर लीं तो कुछ-एक कतरे थे जो उन मटकियों से छलक गए और वही ओशो की आवाज के अक्षर हुए। और जिसने भी उन अक्षरों का स्पर्श पा लिया वह अपने अंतर के अनुभव में उतर गया।
अंतर का अनुभव सिर्फ एक ही भाषा जानता है- खामोशी की। मैं कितना भी कुछ कहूं वह मेरी उस खामोशी को छूकर गुजर जाता है, और खामोशी के कण मेरी कलम में नहीं उतरते।
मैं समझती हूं ओशो दुनिया के सबसे बड़े साहित्यकार है। साहित्य जिंदगी के लिए है, जिंदगी के उत्सव के लिए है। ओशो से बड़ा जिंदगी को सेलीब्रेट करने वाला आदमी नहीं है। साहित्य में ओशो जहां पहुंचे हैं वहां कोई नहीं पहुंचा।
जहां मीरा के नृत्य और बुद्ध के मौन का संगम होता है, वहां रजनीश का वास्तविक दर्शन पुष्पित-पल्लिवत होता है।
ओशो स्वयं तूफानों के पाले हुए थे और उनका अक्षर-अक्षर मुहब्बत का दीया बनकर उन तूफानों में जलता रहा… जलता रहेगा।
