Kartavirya
Kartavirya

Hindi Katha: प्राचीन समय की बात है – पृथ्वी पर हैहयवंश के राजा कृतवीर्य का राज्य था। कृतवीर्य बड़े वीर, दयालु, दानवीर और धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति व्याप्त रहती थी । कृतवीर्य की मृत्यु के बाद मंत्रियों और पुरोहितों ने महर्षि गर्ग से विचार-विमर्श कर उनके पुत्र कार्तवीर्य को बुलवाया और उनसे कहा – “युवराज ! महाराज को प्राण त्यागे बहुत समय हो गया है । सिंहासन को अब अधिक दिनों तक रिक्त रखना उचित नहीं है। पड़ोसी राजा राज्य पर गिद्ध दृष्टि जमाए हुए हैं। वे इस प्रतीक्षा में हैं कि कब अवसर मिले और वे इसे अपने अधीन कर लें। महाराज के बाद केवल आप ही उनके सिंहासन पर बैठने के योग्य हैं। आप में सभी श्रेष्ठ गुणों का समावेश है। अतः हमने निर्णय लिया है कि शुभ मुहूर्त में आपका राज्याभिषेक करके राज्य का कार्यभार आपको सौंप दिया जाए। यदि इस बारे में आपको कुछ कहना है तो निस्संकोच कहें।”

कार्तवीर्य हाथ जोड़कर बोले – ” मान्यवरो ! आप सभी परम ज्ञानी और विद्वान हैं। आपने सदा इस राज्य की भलाई के विषय में सोचा है । आज भी आपका निर्णय उचित और तर्कसंगत है। किंतु मुझे क्षमा करें। मैं ऐसा राज्य कभी स्वीकार नहीं करूँगा, जो भविष्य में मुझे नरक में ले जाए। “

उनकी बात सुनकर महर्षि गर्ग विस्मित होकर बोले “युवराज ! यह तुम क्या कह रहे हो? भला यह राज्य तुम्हें किस प्रकार नरक की ओर ले जाएगा? महाराज कृतवीर्य ने भी यही राज्य करते हुए स्वर्ग को प्राप्त किया है, फिर इसमें तुम्हें क्या दोष दिखाई देता है ? इसके विषय में स्पष्ट बताने की कृपा करें। “

कार्तवीर्य आदरपूर्ण स्वर में बोले – ” महर्षि ! जिस उद्देश्य के लिए प्रजा से कर लिया जाता है, उसका पालन न किया जाए तो कर लेना व्यर्थ है। वैश्य कर इसलिए देते हैं कि हम लुटेरों से उनकी रक्षा करें और वे सुरक्षित होकर व्यापार कर सकें। ग्वाले और किसान भी इसी उद्देश्य से कर देते हैं। पूर्व समय में ऋषि-मुनियों ने प्रजा से मिलने वाले कर को उनकी रक्षा के बदले राजा को दिए जाने वाले वेतन के रूप में निश्चित किया था। फिर कर लेने के बाद भी प्रजा की रक्षा राजा द्वारा न होकर अन्य व्यक्तियों द्वारा हो तो राजा अवश्य नरक का भागी बनता है । इसलिए पहले मैं तपस्या करके पृथ्वी के पालन की शक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ, तत्पश्चात् मैं यह राज्य स्वीकार करूँगा।’

महर्षि गर्ग बोले – “युवराज ! आपका कथन सत्य है। यदि आप ऐसा करना चाहते हैं तो मेरी बात ध्यान से सुनें । निकट के वन में मुनि दत्तात्रेयजी वास करते हैं। आप उनकी शरण में जाएँ। उनके आशीर्वाद से आप अपने प्रयोजन में अवश्य सफल होंगे।

कार्तवीर्य वन की ओर प्रस्थान कर गए। घने वन में उन्हें एक वृक्ष के नीचे महामुनि दत्तात्रेयजी बैठे दिखाई दिए। उनके निकट ही देवी लक्ष्मी बैठी हुई थीं। कार्तवीर्य ने भगवान् दत्तात्रेयजी को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की।

उसकी स्तुति से संतुष्ट होकर दत्तात्रेयजी बोले – “ वत्स ! तुम कौन हो? इस भयानक वन में क्या रहे हो? तुम्हारे मुख की कांति से यह स्पष्ट होता है कि तुम किसी राज्य के राजकुमार हो । अपना परिचय देने का कष्ट करो।

कार्तवीर्य दत्तात्रेयजी के चरणों में फूल अर्पित करते हुए बोले भगवन् ! मैं महाराजा कृतवीर्य का पुत्र कार्तवीर्य हूँ । महर्षि गर्ग ने आपकी महानता की बड़ी प्रशंसा की थी। इसलिए मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ । कृपया मुझे सेवक रूप में स्वीकार करें।

दत्तात्रेयजी हँसते हुए बोले ‘कार्तवीर्य ! तुम्हें मेरी सेवा नहीं करनी चाहिए। यह निकट बैठी हुई स्त्री मेरी पत्नी है। मैं गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए प्रभु-भक्ति करता हूँ। मुझ साधारण मनुष्य की सेवा से तुम्हें कोई फल प्राप्त नहीं होगा। मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूँ । अतः अपने हित के लिए तुम किसी अन्य शक्तिशाली पुरुष की आराधना करो । ‘

कार्तवीर्य बोले – “ भगवन् ! मुझे अपनी माया से भ्रमित न करें। मुझ तुच्छ प्राणी के लिए आप ही सबकुछ हैं। सम्पूर्ण जगत् नित्य आपका स्मरण करता है । आप ही सृष्टि के पालनकर्ता भगवान् विष्णु हैं। आपके साथ सुशोभित ये देवी साक्षात् जगत्-जननी लक्ष्मी माता हैं । आपकी कृपा-दृष्टि से इस संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है।’

तब दत्तात्रेयजी बोले – ‘“वत्स ! तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने ये वचन उपनिषदों की कथाएँ अतः मैं कहे थे। किंतु तुमने मेरे कथन के गूढ़ रहस्य को समझ लिया, हूँ। माँगो, तुम्हें क्या वर चाहिए? मैं तुम्हें इच्छित वर प्रदान करूँगा । “

कार्तवीर्य वर माँगते हुए बोले – “प्रभु ! मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें, जिससे कि मैं भली-भाँति अपनी प्रजा का पालन कर सकूँ। मैं दूसरों के मन की बात जान लूँ। युद्ध में कोई मुझे पराजित न कर सके । युद्ध के समय मेरी एक हज़ार भुजाएँ हो जाएँ और इनका भार मेरे शरीर पर न पड़े। मेरी मृत्यु किसी श्रेष्ठ मनुष्य के हाथों हो । मैं तीनों लोकों में वायु के समान भ्रमण कर सकूँ। भरपूर दान करने के बाद भी मेरा धन कभी कम न हो। जब भी मैं कुमार्ग पर चलने लगूँ तो मुझे सन्मार्ग दिखाने वाला उपदेशक प्राप्त हो। ” दत्तात्रेयजी ने कार्तवीर्य को इच्छित वर प्रदान कर दिए।

तत्पश्चात् दत्तात्रेयजी और देवी लक्ष्मी को प्रणाम कर कार्तवीर्य अपने राज्य लौट आए। कुछ दिनों के पश्चात् कार्तवीर्य का राज्याभिषेक किया गया। तब उन्होंने राज्य में यह घोषणा करवा दी कि आज से राज्य में राजा के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति अस्त्र धारण नहीं करेगा। हज़ार भुजाओं के कारण कार्तवीर्य सहस्रार्जुन के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार दत्तात्रेयजी के वरदान से कार्तवीर्य प्रजा का पालन करने में सक्षम हुए।