Chitraketu
Chitraketu

Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है, शूरसेन नामक राज्य में चित्रकेतु नामक एक प्रतापी राजा राज्य करते थे । उनके राज्य में पृथ्वी स्वयं ही प्रजा की इच्छानुसार अन्न आदि दे दिया करती थी । चित्रकेतु की अनेक रानियाँ थीं, जिनमें सुंदरता, उदारता, कुलीनता आदि अनेक गुण विद्यमान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतान न हुई । वे सदा इसी चिंता में डूबे रहते थे । पृथ्वी के समस्त ऐश्वर्य भी उन्हें प्रसन्न नहीं कर पाते थे ।

विभिन्न लोकों का भ्रमण करते हुए एक दिन महर्षि अंगिरा चित्रकेतु के महल में पधारे । चित्रकेतु ने विधिपूर्वक उनकी पूजा की । अतिथि-सत्कार के बाद महर्षि अंगिरा श्रेष्ठ सिंहासन पर आरूढ़ हो गए । राजा चित्रकेतु भी उनके चरणों में बैठ गए ।

तत्पश्चात् चित्रकेतु दु:खी स्वर में बोले – “महर्षि ! सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य, सुख, सम्पति और सभी ऐश्वर्य मेरे अधीन हैं । किंतु संतान न होने के कारण मुझे इन सुखों से शांति नहीं मिल रही है । यही चिंता मुझे ग्रसित कर रही है । प्रभु! आप परम तपस्वी हैं; मुझे संतान प्रदान करने का उपाय बताकर मेरा उद्धार कीजिए । “

महर्षि अंगिरा ने चित्रकेतु को पुत्रेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया । तब शीघ्र ही चित्रकेतु ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया । महर्षि अंगिरा यज्ञ के आचार्य बने । यज्ञ सम्पन्न होने पर महर्षि अंगिरा चित्रकेतु की बड़ी रानी कृतद्युति को यज्ञ का प्रसाद देने के बाद बोले – “राजन ! इस यज्ञ के प्रसाद से उत्पन्न पुत्र से तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही प्राप्त होंगे ।” यह कहकर अंगिरा मुनि वहाँ से चले गए ।

उचित समय आने पर कृतद्युति ने एक पुत्र को जन्म दिया । समाचार सुनकर प्रजाजन खुशी से नाच उठे । इस शुभ अवसर पर राजा चित्रकेतु ने ब्राह्मणों को स्वर्ण चाँदी वस्त्राभूषण गाँव हाथी घोड़े और गाएँ दान में दीं । याचकों को भरपूर अन्न और धन का दान दिया गया । जिस प्रकार निर्धन को बड़ी कठिनता से प्राप्त हुए धन से बड़ा प्रेम हो जाता है, उसी प्रकार राजा चित्रकेतु भी अपने पुत्र के स्नेह-बँधन में बँधते गए । रानी कृतद्युति भी अपने पुत्र से बड़ा स्नेह करती थी । इस प्रकार वे महर्षि अंगिरा की चेतावनी भूलकर पुत्र के प्रेम में डूब गए ।

पुत्र स्नेह के कारण चित्रकेतु का प्रेम अन्य रानियों की अपेक्षा कृतद्युति के प्रति अधिक बढ़ गया । अब वे सदा रानी कृतद्युति के कक्ष में ही रहने लगे । उनकी अन्य रानियाँ संतान न होने के कारण पहले से ही दु:खी थी, ऊपर से चित्रकेतु का अपने प्रति उदासीन व्यवहार देखकर वे मन-ही-मन रानी कृतद्युति और उसके पुत्र से ईर्ष्या करने लगीं । धीरे-धीरे यह ईर्ष्या द्वेष में और द्वेष क्रूरता में बदलता चला गया ।

एक दिन उन्होंने कृतद्युति के पुत्र को विष दे दिया । कृतद्युति को उनके इस पाप कर्म का ज्ञान नहीं हुआ । जब पुत्र के कक्ष से उसे दासी का विलाप करता स्वर सुनाई दिया तो वह शीघ्रता से वहाँ पहुँची । पुत्र को मृत देख वह मूर्छित होकर गिर पड़ी । समाचार सुनकर चित्रकेतु भी वहाँ पहुँच गए । वे फूट-फूट कर रोने लगे । जब नारदजी और महर्षि अंगिरा ने देखा कि चित्रकेतु पुत्र शोक के कारण चेतनाहीन हो रहे हैं और उन्हें समझाने वाला वहाँ कोई नहीं है, तो वे अवधूत का वेश बनाकर वहाँ आए ।

इस वेश में चित्रकेतु उन्हें न पहचान सका । तब वे उसे समझाते हुए बोले – “हे राजन ! जिसके लिए आप इतना शोक कर रहे हैं, वह बालक इस जन्म और पूर्वजन्मों में आपका कौन था? आप उसके क्या लगते थे? जैसे जल के वेग से बालू के कण एक-दूसरे से जुड़ते और बिछड़ते हैं, वैसे ही समय के तेज प्रवाह में प्राणियों का मिलन और बिछोह होता रहता है । इस जगत् में केवल भगवान् विष्णु ही सदा से विद्यमान हैं । शेष तो उनकी मोह माया ही है । उनकी माया से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं और समय आने पर नष्ट हो जाते हैं । वे ही समस्त प्राणियों के अधिपति हैं । इसलिए आप शोक का त्याग कर उनकी आराधना करें । पूर्व समय में ब्रह्माजी और शिवजी ने भी उनकी आराधना कर परम पद को प्राप्त किया था । आप भी अपनी भक्ति से उन्हें प्राप्त कर लेंगे ।” यह बात सुनकर चित्रकेतु ने उनसे वास्तविक परिचय देने का अनुरोध किया ।

तब महर्षि अंगिरा परिचय देते हुए बोले – “राजन ! मैं अंगिरा हूँ और आप देवर्षि नारद हैं । जब हमने देखा कि आप पुत्र-शोक के कारण अज्ञानरूपी अंधकार में डूब गए हैं तो आपका उद्धार करने के लिए हम यहाँ आ गए । राजन ! जिस समय मैं प्रथम बार आपके पास आया था, उसी समय मैं आपको परम ज्ञान का उपदेश देना चाहता था, किंतु मैंने देखा कि आपके मन में पुत्र की कामना है, इसलिए मैंने ज्ञान न देकर पुत्र प्रदान कर दिया । तब आपकी कल्पना में पुत्र सुख सबसे बड़ा सुख था, किंतु अब आप स्वयं अनुभव कर रहे हैं कि पुत्रवानों को भी कितना दुःख भोगना पड़ता है? यह बात केवल पुत्र के लिए नहीं, अपितु स्त्री, घर, ऐश्वर्य, धन, राज्यादि सभी नाशवान पदार्थों पर सिद्ध होती है । अतः ये सब दुःख और शोक के कारण हैं । इसलिए आप अपने मन को शांत करें ।”

चित्रकेतु उन्हें प्रणाम कर बोले – “मुनिवर ! आपकी बात अति उत्तम और सर्वथा उचित है, लेकिन जिस प्राणी ने अभी इस संसार को जी- भर भी नहीं देखा, उसकी मृत्यु पर शोक अवश्य होता है । इतने ऐश्वर्य और भोगों के बीच उत्पन्न होने के बाद वह इन्हें बिना भोगे ही चला गया यह सोचकर मेरा मन दु:खी हो रहा हैं ।”

जब देवर्षि नारद ने देखा कि चित्रकेतु किसी भी प्रकार से मोह माया से मुक्त नहीं हो रहे हैं तो उन्होंने अपनी योगविद्या द्वारा मृत राजकुमार की जीवात्मा को वहाँ बुलाया और बोले – “वत्स ! देखो, तुम्हारे माता-पिता, बंधु-बांधव तुम्हारे वियोग में कितने दु:खी और शोकातुर हैं । अतएव तुम अपने इस शरीर में पुन: आ जाओ और शेष आयु इनके साथ व्यतीत कर ऐश्वर्य का भोग करो ।”

तब वह जीवात्मा बोली – “मुनिश्रेष्ठ ! मैं अपने कर्मानुसार देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अनेक योनियों में भटकती रही हूँ, उनमें से ये लोग किस जन्म में मेरे माता-पिता हुए, इसका मुझे ज्ञान नहीं है । इस जगत् में केवल श्रीविष्णु ही सब जीवों के उत्पत्तिकर्ता हैं । सभी जीवात्माएँ सदा उनमें विलीन होने की इच्छा करती हैं । किंतु अपने कर्मों का फल भोगे बिना वे उनके परम-धाम को प्राप्त नहीं कर सकतीं । अपने समस्त कर्म भोगने के बाद मनुष्य योनि से मेरा उद्धार हो गया है और अब मैं परब्रह्म में लीन हो जाऊँगा । अब भला मैं स्वयं को मोह माया के बंधन में क्यों डालूँ ।” यह कहकर वह जीवात्मा वहाँ से चली गई । उसके ये वचन सुनकर राजा चित्रकेतु और कृतद्युति का स्नेह-बंधन खण्डित हो गया और पुत्र की मृत्यु का शोक समाप्त हो गया । तत्पश्चात् राजा चित्रकेतु ने उसका दाह-संस्कार कर अपना कर्त्तव्य पूर्ण किया ।

जिन रानियों ने बालक को विष दिया था, वे श्रीहीन हो गईं । अंगिरा मुनि के परामर्श से उन्होंने यमुना के तट पर जाकर अपने पाप का प्रायश्चित्त किया । चित्रकेतु का मन पहले ही विरक्त हो गया था । इसके बाद देवर्षि नारद चित्रकेतु को उपदिष्ट नामक विद्या प्रदान कर अंगिरा मुनि के साथ ब्रह्मलोक लौट गए ।

चित्रकेतु ने निराहार रहकर उपदिष्ट विद्या का बड़ी एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया । अनुष्ठान के प्रभाव से उन्हें विद्याधरों का अखण्ड आधिपत्य प्राप्त हुआ । कुछ ही दिनों में उनका मन मोह-माया के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो गया । शीघ्र ही उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु ने उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान किया । अब वे भगवान् विष्णु की लीलाओं का गान करते हुए सुमेरु पर्वत पर विचरण करने लगे ।

एक बार चित्रकेतु श्रीविष्णु द्वारा दिए गए दिव्य विमान पर सवार होकर कहीं जा रहे थे । उसी क्षण उन्होंने देखा कि भगवान् शिव भगवती पार्वती को अपनी गोद में लिए ऋषि-मुनियों की सभा में बैठे हैं । यह देखकर चित्रकेतु बोले – “ओह ! ये समस्त जगत् के धर्म शिक्षक और गुरुदेव हैं । ये सभी प्राणियों में श्रेष्ठ हैं । किंतु इतने तपस्वी और ज्ञानवान होने के बाद भी अपनी पत्नी को गोद में लेकर मुनियों की सभा में बैठे हैं । साधारण मनुष्य भी लज्जावश ऐसा कार्य एकांत में करते हैं, किंतु ये तो निर्लज्जों की भांति भरी सभा में ऐसा कार्य कर रहे हैं ।”

भगवान् शिव परम ज्ञानी हैं । वे जानते थे कि चित्रकेतु को स्वयं के जितेन्द्रिय होने का अहंकार हो गया है, अतः उनका यह कटाक्ष सुनकर वे हँसने लगे । उस सभा में बैठे सदस्यगण शांत रहे, किंतु उसकी धृष्टता पर देवी पार्वती क्रोधित होकर बोलीं – “दुष्ट ! ब्रह्मा इन्द्र आदि देवता जिनके चरणों की पूजा करते हैं, तुमने अहंकार में भरकर उन भगवान् शिव का भरी सभा में अपमान कर दिया । तुम भगवान् विष्णु के भक्त कहलाने योग्य नहीं हो । अतः मैं शाप देती हूँ कि तुम पापमय असुर योनि में उत्पन्न होओ । इसके बाद तुम कभी किसी का अपमान नहीं कर सकोगे ।”

चित्रकेतु को अपने अपराध पर लज्जा अनुभव होने लगी । उन्होंने माता पार्वती का शाप स्वीकार कर लिया और उनसे क्षमा माँग कर वहाँ से चले गए । चित्रकेतु का यह व्यवहार देख वहाँ उपस्थित सभी ऋषिगण विस्मित रह गए ।

यही चित्रकेतु भगवती पार्वती के शाप के कारण अगले जन्म में त्वष्टा मुनि के पुत्र वृत्रासुर के रूप में उत्पन्न हुए । वहाँ भी ये भगवान् विष्णु की भक्ति और ज्ञान से परिपूर्ण थे । बाद में देवराज इन्द्र के हाथों मरकर इन्हें मुक्ति प्राप्त हुई ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)