dosti ho to aisi
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एक जगह दो राज्यों के बीच युद्ध हो रहा था। एक राज्य की सेना में से कुछ सैनिक एक दस्ता बनाकर शत्रु सीमा में घुस गए। दुर्भाग्य से शत्रु के सैनिकों का पलड़ा भारी पड़ा और उन्हें अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। वापस लौटने के बाद उन्होंने पाया कि एक सैनिक कम है।

टुकड़ी में एक और सैनिक था, जो उस सैनिक का घनिष्ठ मित्र था। उसने अपने सेनापति से अनुमति माँगी कि वह जाकर अपने दोस्त को वापस लेकर आना चाहता है। सेनापति बोला कि मैं तुम्हारी मित्र भावना का सम्मान करता हूँ, लेकिन मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे वहाँ जाने का कोई फायदा होगा, क्योंकि अब तक तुम्हारे दोस्त को शत्रु सैनिकों ने मार डाला होगा, उल्टे तुम वहाँ गए तो तुम्हारे प्राण भी संकट में पड़ जाएंगे। इस पर सैनिक बोला कि फिर भी मैं जाना चाहता हूँ। सेनापति ने इजाजत दे दी।

कुछ देर बाद घायल अवस्था में वह सैनिक लौटा। उसके कंधे पर उसके मित्र का मृत शरीर लदा हुआ था। सेनापति दुख भरे स्वर में बोला कि मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि तुम्हारे जाने का कोई लाभ नहीं। इस पर सैनिक संतुष्ट स्वर में बोला कि जब मैं इसके पास पहुँचा तो इसकी सांस अटकी हुई थी। मुझे देखकर इसकी आंखों में चमक आ गई और यह बोला कि मैं जानता था कि तुम जरूर आओगे। यह कहकर इसने दम तोड़ दिया। मेरे जाने का कम से कम यह लाभ हुआ कि अंतिम समय में मेरे मित्र ने स्वयं को अकेला नहीं पाया।

सारः सच्ची मित्रता हर कसौटी पर खरी उतरती है।

ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंIndradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)