nithalloopur ka raja Motivational story
nithalloopur ka raja Motivational story

एक था निठल्लूपुर। एकदम वैसा ही, जैसा निठल्लूपुर हो सकता था। और इस विचित्र निठल्लूपुर का ऐसा ही अजीबोगरीब राजा था थुम्मनदास। ऐसा मूर्ख और सनकी कि उसकी बात चलती, तो लोग पेट पकड़कर हँसते, ‘हा-हा, हो – हो – हो…!’ हँसते-हँसते उनके गाल लाल चुकंदर हो जाते और आँखों में शरारत भर जाती। मगर कभी-कभी दाएँ-बाएँ देखकर वे लंबी साँस भरते।

फिर खुस – फुस करके, धीरे से एक-दूसरे से कहते, “भैया, सच्ची बात तो यह कि जैसा निठल्लूपुर है, वैसा ही वहाँ का राजा थुम्मनदास भी है। दोनों की जोड़ी निराली है, एकदम अजब निराली समझो!” पर थुम्मनदास अकेला मूर्ख नहीं था। उसके दरबार में ऐसे एक से एक जबर मूर्ख थे, जिनका वर्णन करना ही मुश्किल है। कोई इधर मुँह उठाए बैठा है, कोई उधर हवा में मक्खियाँ मार रहा है। कोई बैठा-बैठा अकेले ही बिना बात खी खी कर रहा है, तो कोई मार तमाम उछल-कूद करके हल्ला मचा रहा है।…फिर नाम भी सबके निराले। कोई घसीटाराम तो कोई पपोटानंद। कोई ढचरूमल तो कोई ढिल्लाराम। पोलाराम, ढोलाराम, गड़बड़राम, झंझटिया और घुग्घूमल भी थे। और भी न जाने कौन-कौन से अफलातून। ये सभी थुम्मनदास के मुँहलगे दरबारी थे। सो दरबार में सारे दिन मूर्खता ही बरसती। लोग उस मूर्खता की बारिश में छप छप करके नहाते, उछलते-कूदते और हा-हा-हू-हू करते। यों कुछ थोड़े से समझदार दरबारी भी थे। पर भला थुम्मनदास के आगे उनकी कहाँ चल सकती थी? सो उन्हें जरा दबकर रहना पड़ता। वे थुम्मनदास के सामने तो हाँ-हाँ करते, ही – ही करते। पर अकेले में सिर पर हाथ मारकर कहते, “बाप रे बाप! यह हम कहाँ आ फँसे? राम बचाए इस निठल्ले थुम्मनदास से!” पर थुम्मनदास ऐसा अजीबोगरीब प्राणी था कि उस पर किसी का जोर नहीं चलता था। खुद थुम्मनदास का भी नहीं। वह कब क्या कर बैठेगा, खुद उसे भी पता नहीं था। पूरा हड़बड़िया। हमेशा हवा में रहता और खूब ऊँची हाँकता। किसी भी काम को वह बिना सोचे- विचारे, हड़बड़ी में करता था। बाद में काम बिगड़ जाने और प्रजा में बदनामी होने पर सिर धुनता। पर फिर जल्दी ही उसे भूल भी जाता था, क्योंकि उसे मूर्खता का कोई नया काम जो करना होता था। अकसर राजा थुम्मनदास के दिमाग में बेसिर-पैर के अजीबोगरीब खयाल आते थे। उन्हीं के बार में सोचने और उन्हें पूरा करने में उसका सारा वक्त बर्बाद होता था। फिर दरबारी भी उस पर जी भरकर चोंचें लड़ाते। बात में से बात निकलती और कहीं से कहीं जा पहुँचती। फिर एक से एक ऊटपटाँग कामों का फरमान जारी हो जाता। बस, अपने इन्हीं ऊटपटाँग कामों के कारण थुम्मनदास लोगों में हँसी का पात्र बन जाता था। जहाँ भी वह जाता, लोग गरदन नचाकर कहते, “वाह जी, वाह, थुम्मनदास…! आपने तो कमाल कर दिया।” थुम्मनदास सोचता, लोग मेरी तारीफ कर रहे हैं। इसलिए घमंड के मारे उसकी गरदन और तन जाती। पर कुछ दिनों बाद असलियत सामने आती तो बेचारा बहुत शर्मिंदा होता। थुम्मनदास के आसपास हमेशा चापलूस लोगों की भीड़ लगी रहती थी। वे झूठी तारीफ करके उसे खुश करते और अपना काम निकालते थे। राजदरबार के लोग भी हर वक्त बेसिर-पैर की बातें करते रहते थे। राजा थुम्मनदास उन्हीं में उलझा रहता। प्रजा के दुख और कष्टों का उसे कुछ पता ही नहीं चल पाता था। उसका मंत्री दुक्खूमल तो यह चाहता ही था। वह पूरा घाघ और मतलबी था।

अकसर राजा को अपनी चक्करदार बातों में लगाए रखता। एक बार की बात, राजा थुम्मनदास ने सोचा कि उसे प्रजा के बीच जाकर लोगों के दुख-दर्द और परेशानियों के बारे में जानना चाहिए। उसने मंत्री से कहा, “मंत्री जी, आपने बहुत दिनों से प्रजा के हालचाल के बारे में कुछ नहीं बताया। हमारे राज्य में सब लोग ठीक से हैं न? मेरा मन है कि कभी प्रजा के बीच जाकर उनका हालचाल पता करूँ…!” मंत्री दुक्खूमल उस समय अकेला बैठा हवा में मक्खियाँ मार रहा है। इस काम में उसे बड़ा मजा आ रहा था। सो राजा थुम्मनदास की बात सुनकर चौंका। बोला, “महाराज, आप इस बात की बिल्कुल चिंता न करें। निठल्लूपुर में सब लोग ठीक हैं, एकदम ठीक…! सभी बड़े आनंद में हैं।” पपोटानंद बोला, “महाराज, आप जैसे उदार हृदय राजा के होते हुए भला किसी को चिंता करने की क्या जरूरत है…?” घुग्घूमल ने कहा, “निठल्लूपुर की प्रजा तो इस बात से ही बड़ी प्रसन्न है महाराज, कि उसे आप जैसा राजा मिला…!” ढोलाराम ने भी गरदन उचकाई, “महाराज, पूरी पृथ्वी पर ढूँढ़ा जाए तो आप जैसा महान राजा मिलना मुश्किल है…!” मंत्री ने मुसकराते हुए कहा, “देखिए, सब लोग आपको कितना चाहते हैं।” राजा थुम्मनदास का चेहरा खिल गया। बोला, “फिर भी प्रजा के सुख-दुख की खोज-खबर तो हमें लेनी ही चाहिए मंत्री दुक्खूमल जी!” मंत्री बोला, “महाराज, आप इसकी क्यों चिंता करते हैं? इस काम के लिए हम सब हैं ही न। दिन-रात हम इसी काम में तो लगे रहते हैं। कभी-कभी तो हमें रात को नींद तक नहीं आती…!” सुनकर राजा थुम्मनदास ने गद्गद होकर कहा, “सच्ची, मुझे यह जानकर बड़ा अच्छा लग रहा है कि मंत्री जी, कि आप सब लोग अपना-अपना काम इतनी जिम्मेदारी से कर रहे हैं।” “इसीलिए तो महाराज… इसीलिए मैं कहता हूँ, कि आपके राज्य में सब सुखी हैं, एकदम सुखी, सिवाय मेरे…!” मंत्री ने मुँह लटकाकर कहा। “क्यों – क्यों, आपको क्या हुआ मंत्री जी…?” राजा थुम्मनदास चौंक उठा। “महाराज, आप भूल गए कि मेरा तो नाम ही दुक्खूमल है, तो भला मुझसे बड़ा दुखी और कौन हो सकता है?” कहकर मंत्री ने खीसें निपोर दीं। फिर कहा, “वैसे महाराज, मेरा सबसे बड़ा दुख तो यह है कि आपने बहुत समय से भत्ते ही नहीं बढ़ाए। जबकि महँगाई कहाँ से कहाँ पहुँच गई…!” “महाराज, भत्ते तो हमारे भी नहीं बढ़े।” सेनापति खटपट सिंह ने याद दिलाया। फिर और दरबारी भला क्यों पीछे रहते? सब एक साथ बोल उठे, “महाराज, भत्ते तो बहुत दिनों से हमारे भी नहीं बढ़े, हमारे भी …!” “ठीक है, ठीक है..! यह काम भी होगा, बहुत जल्दी होगा। आप लोग बिल्कुल चिंता न कीजिए।” राजा थुम्मनदास ने मुसकराते हुए कहा, “हमारे राज्य में कोई दुखी और परेशान नहीं होना चाहिए। फिर आप सब लोग तो मेरे राज्य की शोभा हैं।” इस पर सभी ने मिलकर कहा, “राजा थुम्मनदास की जय…!” फिर अगले ही पल पूरा दरबार जोरदार नारों की आवाज से गूँज उठा, “हमारे महान राजा थुम्मनदास, जिंदाबाद… जिंदाबाद…!” आनंद के मारे राजा थुम्मनदास ने आँखें बंद कर लीं। मन ही मन कहा, ‘आह, सब लोग मुझे कितना चाहते हैं…! सच्ची, राजा हो तो मेरे जैसा…!!’ * फिर कुछ दिन बाद का किस्सा है। निठल्लूपुर का एक प्रमुख दरबारी घसीटाराम अपने साथ भूरे रंग के एक कुत्ते को लेकर राजदरबार में आया। इस पर सारे दरबारी चौकन्ने हो गए। वे फुसफुसाकर एक-दूसरे से कहने लगे, “देखना, अब जरूर कोई न कोई मजेदार बात होगी।” वाकई हुआ भी यही। राजा थुम्मनदास ने हँसते हुए कहा, “यह क्या घसीटाराम! यह किस दोस्त को साथ ले आए?” सारे दरबारी इस बात पर ठहाका मारकर हँसने लगे। घसीटाराम पहले तो सकपकाया। फिर बड़े अदब से सिर झुकाकर बोला, “क्षमा करें महाराज, ये कुत्ते बड़े समझदार होते हैं। वफादारी के मामले में तो आदमियों से भी बढ़-चढ़कर हैं। फिर हम उनसे दोस्ती क्यों न करें?” राजा थुम्मनदास को उसकी बात जँच गई। बोला, “वाह घसीटाराम, वाह! तुमने बात तो बड़ी अच्छी कही।… हमने पहले यह बात कभी सोची ही नहीं।” “तो महाराज, अब सोचिए। जरूर सोचिए। … इससे दुनिया के सारे कुत्ते मन ही मन आपको धन्यवाद देंगे कि किसी ने तो उनकी कद्र की। आप जैसा कोई दूसरा कद्रदान मिलना मुश्किल है।” घसीटाराम ने खीसें निपोरते हुए कहा। “ही – ही – ही…! कद्र होगी, जरूर होगी।” थुम्मनदास के मुँहलगे दरबारी पपोटानंद ने गरदन नचाकर कहा, “भला राजा थुम्मनदास के दरबार में कुत्तों की कद्र न होगी तो और कहाँ होगी?” “ठीक है, घसीटाराम। तुम्हें इस बात की इजाजत दी जाती है कि तुम राज दरबार में अपने प्यारे कुत्ते को लेकर आओ।” राजा थुम्मनदास ने हँसते हुए कहा, “इससे देखना तुम, हमारे दरबार की रौनक कितनी बढ़ जाएगी। और फिर हमारे दरबारी भी इनसे वफादारी का पाठ सीखेंगे।… सच्ची, कुत्ते कितने अच्छे होते हैं, यह तो हमें आज पता चला।” “लेकिन महाराज, इस पर हमारा इनाम तो बनता है…!” घसीटाराम ने मुसकराते हुए कहा। “हाँ भई, बनता है, बनता है, जरूर बनता है।… तुमने अच्छा याद दिलाया।” राजा थुम्मनदास ने गरदन हिलाई। उसी समय थुम्मनदास ने खजाँची अशर्फीमल को आदेश दिया, “खजाँची जी, फौरन घसीटाराम को एक हजार अशर्फियों की थैली निकालकर दीजिए।” “जी महाराज…! जी…अभी देता हूँ…!!” खजाँची ने सिर झुकाकर कहा। तभी मंत्री दुक्खूमल बोल पड़ा, “महाराज, आप इनाम दे रहे हैं, यह तो बड़ी अच्छी बात है। पर शायद इनाम थोड़ा ज्यादा है। मेरी प्रार्थना है कि इस पर आप फिर से विचार करें।” “आप तो जानते हैं मंत्री जी, कि थुम्मनदास के राज्य में किसी बात पर फिर से विचार नहीं होता।…हाँ, आप भी लाइए, कोई ऐसा ही बढ़िया आइडिया। और आप भी ले जाइए इनाम। क्यों, मैंने कुछ गलत कहा…?” “नहीं महाराज, आप तो कभी गलत कह ही नहीं सकते।” मंत्री ने सिर झुकाकर बड़े अदब से कहा। पपोटानंद बोला, “वाह, हमारे राजा थुम्मनदास कितने महान हैं। तभी तो पूरी दुनिया में निठल्लूपुर का नाम चमक रहा है…!” ढोलाराम बोला, “और कुत्ते…? सच, मुझे आज पता चला कि कुत्ते तो आदमी से भी बढ़कर हैं!” पोलाराम ने लंबी साँस लेकर कहा, “आह, हम कुत्ते क्यों न हुए…!” ढचरूमल और गड़बड़राम भी कहे बिना न रह पाए, “हाय-हाय, हम कुत्ते क्यों न हुए…!” राजा थुम्मनदास के आदेश पर उसी दिन दरबार में कुत्ते के बैठने और खाने-पीने के लिए अलग इंतजाम कर दिया गया। उसकी निगरानी और सेवा के लिए एक आदमी को भी तैनात कर दिया गया। राजा थुम्मनदास को घसीटाराम का भूरे रंग का गदबदा कुत्ता काफी पसंद आया था। पर उस कुत्ते को क्या कहकर बुलाया जाए? उसे समझ में नहीं आ रहा था। तो उसने घसीटाराम से ही पूछा, “भई घसीटाराम, तुमने कुत्ते का नाम तो बताया ही नहीं। तो हम उसे क्या कहकर बुलाएँ?” “महाराज, हम इसे घर में भूरा कहकर बुलाते हैं। आप भी भूरा ही कह लीजिए।” घसीटाराम ने हाथ जोड़कर, खीसें निपोरते हुए कहा। “क्या कहा, भूरा…?” थुम्मनदास ने बुरा सा मुँह बनाया। फिर बोला, “न-न-न घसीटाराम, दरबार में यह नाम नहीं चलेगा। इसका तो कोई बड़ा सुंदर सा, प्यारा सा नाम होना चाहिए। बहुत ही प्यारा….!” “तो महाराज, आप ही कोई अच्छा सा नाम रख दीजिए ना।” घसीटाराम ने अपनी बला टालते हुए कहा। “अच्छा, हम…! हम रख दें? तो ठीक है, हम रख देते हैं।” थुम्मनदास ने कहा। फिर कुछ सोचते हुए बोला, “झुमरू..! अहा – हा, झुमरू…! कैसा नाम है, जरा बताइए तो आप लोग?” इस पर सारे दरबारी सतर्क हो गए। जैसे एकाएक नींद से जागे हों। “वाह वाह महाराज! झुमरू बड़ा प्यारा नाम है।… सच्ची, बड़ा ही प्यारा।” ढोलाराम ने अपना ढोल जैसा पेट हिलाते हुए कहा। “हाँ महाराज, झुमरू से प्यारा तो कोई नाम हो ही नहीं सकता।” पोलाराम ने भी दाद दी। सुनकर राजा थुम्मनदास ने गर्व से चारों ओर देखा, “झुमरू नाम अच्छा है न! हमने अच्छा नाम रखा…?” “हाँ महाराज, अच्छा है, बहुत अच्छा…!” ढिल्लाराम ने थोड़ा अपने आसन से उछलकर कहा। “बहुत – बहुत अच्छा…!” पपोटानंद ने खीसें निपोरीं। “बहुत – बहुत… बहुत अच्छा…!” झंझटिया ने भी तारीफ कर ही दी। “अरे महाराज, इससे अच्छा नाम तो दुनिया में कोई और हो नहीं सकता।” गड़बड़राम ने खुश होते हुए कहा, “झुमरू कहो तो ऐसा अच्छा लगता है, जैसे आसपास घुँघरू बज रहे हैं…!” “हः हः हः, जैसे घुँघरू बज रहे हों। वह तो लगेगा ही, लगेगा ही, क्योंकि हमने जो रखा है।…तो ठीक है घसीटाराम, आज से यह भूरा नहीं, झुमरू है, झुमरू। समझ गए न?” “जी महाराज, समझ गया।” “क्या समझे…?” “बस, यही महाराज, कि यह झुमरू है, झुमरू… झुमरू…! और झुमरू के सिवाय तो कुछ और हो ही नहीं सकता।” “तो यह बात अपने झुमरू को भी अच्छी तरह समझा देना। कल जब हम इसे झुमरू कहकर पुकारेंगे, तो यह अपनी पूँछ जरूर हिलाए। … यह बात अच्छी तरह बता देना इसे। वरना घसीटाराम, तुम्हारी खैर नहीं।” सुनते ही डर के मारे घसीटाराम की सिट्टी-पिट्टी गुम।

माथे पर पसीना छलछला आया। पर अगले ही पल मुसकराते हुए बोला, “आप चिंता न करें महाराज। अपना झुमरू पूँछ हिलाएगा, जरूर हिलाएगा महाराज। पूँछ नहीं हिलाएगा तो खाएगा क्या?” * अब तो दरबार में अजब नजारा दिखाई देने लगा। हर कोई झुमरू के इर्द-गिर्द खड़ा होकर उसे समझाने पर तुल गया था, “बेटा, तुम्हारा नाम झुमरू है, झुमरू। इसे याद रखोगे ना?” पपोटानंद ने बड़े प्यार से झुमरू को समझाया। “समझ गए ना बेटा झुमरू…?” ढिल्लाराम ने भी बड़ा लाड़ दिखाते हुए कहा। “और बेटा, कल जब महाराज झुमरू कहकर बुलाएँ तो पूँछ जरूर हिलाना। हिलाओगे ना, वरना बेचारा घसीटाराम तो गया काम से…!” ढचरूमल ने धीरे से गरदन हिलाई। इतने में मंत्री दुक्खूमल का ध्यान भी इस ओर गया। अभी तक वह हवा में मक्खियाँ मारने के अपने मनपसंद काम में जुटा था। बीच में बिना बात खी-खी करने लगता। झुमरू के इर्द-गिर्द भीड़ देखकर, वह धीरे से उठकर वहाँ आया। फिर प्यार से झुमरू की ओर देखते हुए कहा, “बेटा झुमरू, हम तुम्हारे चाचा होते हैं, चाचा। हमें पहचान लो अच्छी तरह से। … अब तो रोज मुलाकात होनी है ना!” और सचमुच झुमरू ने इतनी बार अपना नया नाम ‘झुमरू’ सुना कि उसे पक्का यकीन हो गया कि वह झुमरू है झमरू… और झुमरू के अलावा तो कुछ और हो ही नहीं सकता। अब राजा थुम्मनदास राजकाज और शासन के सब काम बीच में छोड़कर, अकसर झुमरू से खेलता रहता था। वह अपने सिंहासन पर बैठा, उचक-उचककर उसकी मुद्राएँ देखता और पेट पकड़कर हँसता। इस पर दरबारी भी जोर-जोर से हँसते। कुछ तो उछल-उछलकर हँसते। नाच-नाचकर हँसते। धीरे-धीरे झुमरू की राजदरबार में अहमियत बढ़ गई। यह देखकर दूसरे दरबारियों ने भी कुत्ते पालने शुरू किए। दरबार में कुत्ता पुराण की इतनी जबरदस्त चर्चा शुरू हो गई कि पूरा दरबार ही कुत्तामय हो गया। ऐसे ही कुछ दिन बीते। फिर एक दिन सबको हैरान करते हुए, ढोलाराम भी अपने साथ काले रंग का खूब बड़ा सा कुत्ता ले आया। उसे देखकर झुमरू जोर-जोर से भौंकने लगा। ढोलाराम के हट्टे-कट्टे कालू ने भी उसका वैसा ही जवाब दिया। दरबार के वातावरण में खासी गरमी पैदा हो गई। इस पर राजा थुम्मनदास का ध्यान भी ढोलाराम और उसके कुत्ते की ओर गया। खुशी के मारे उसके पपोटे फूल गए। बोला, “अरे वाह, ढोलाराम! तुम भी ले आए अपना दोस्त कुत्ता…?” ढोलाराम ने खी खी खी खी करके हँसते हुए कहा, “मैंने सोचा, महाराज, जब दरबार में आप जैसा कुत्तों का महान पारखी राजा मौजूद है, तो मुझे भी देर नहीं करनी चाहिए। मैंने अपने कालू से कहा कि बेटा कालू, तुम हमारे महाराज थुम्मनदास से मिलोगे ना? इस पर महाराज, कालू ने इतनी जोर-जोर से पूँछ पटपटाई कि मैं समझ गया कि यह तो हमारे राजा थुम्मनदास से मिलने को अकुला रहा है। तो फिर आप ही बताइए महाराज, मैं इसे क्यों न अपने साथ लाता? …” “ठीक किया…ठीक किया, ढोलाराम!” थुम्मनदास बोला, “बहुत ठीक किया तुमने। अब झुमरू और कालू की जोड़ी खूब जमेगी। हमारे दरबार की रौनक और बढ़ जाएगी।” उसी दिन ढोलाराम के कालू के लिए भी दरबार में झुमरू के नजदीक ही जगह बना दी गई। पहले कुछ देर तक तो दोनों कुत्ते एक-दूसरे पर गुर्राते रहे। फिर जल्दी ही उन्होंने दोस्ती कर ली। राजा थुम्मनदास यह अनोखा दृश्य देखकर गद्गद था। ढोलाराम की देखा-देखी अगले दिन पोलाराम भी अपनी प्यारी कुतिया चुलबुली को साथ ले आया। आते ही बोला, “महाराज, चुलबुली बड़ी प्यारी – दुलारी है। आपसे मिलने की जिद कर रही थी। तो मैं इसे भी साथ ले आया।” “ठीक किया, पोलाराम! ठीक… बहुत ठीक।” राजा थुम्मनदास ने अपनी खुशी प्रकट की। फिर ढिल्लाराम भी कैसे पीछे रहता? वह अगले दिन अपने चितकबरे मोती को साथ ले आया। इसके बाद तो गड़बड़राम, झंझटिया, पपोटानंद, ढचरूमल, खचेरूमल… सबके सब अपने साथ अपने – अपने कुत्ते लेकर आने लगे। राजदरबार में अब कुत्तों का काफी जमघट लग जाता था। वे एक-दूसरे को काटते और गुर्राते थे। फिर कुछ देर बाद पूँछ हिलाकर आपस में सुलह भी कर लेते। राजा थुम्मनदास की आज्ञा से इन कुत्तों के बैठने का अलग से खास इंतजाम कर दिया गया। कुछ कर्मचारी इन्हें खिलाने और टहलाने के लिए नियुक्त किए गए। हर कुत्ते के गले में सफेद रंग का एक पट्टा लटकाया गया, जिस पर उसका नाम और उसकी खास-खास बातें लिख दी गई थीं। राजा थुम्मनदास का दरबार अब पूरी तरह कुत्तामय हो गया था। राजदरबार में सारे काम-काज छोड़कर, अब अकसर कुत्तों की विशेषताओं और बहादुरी का जिक्र होता रहता। कुत्तों के प्यार, वफादारी और लड़ाकूपन की जमकर चर्चा होती। सब दरबारी अपने – अपने कुत्तों की शूरवीरता के ऐसे किस्से-कहानियाँ सुनाते, जिससे दूसरों पर उनका रोब पड़ जाए। अकसर मनोरंजन के लिए उन्हें आपस में लड़ाने के खेल भी होते रहते थे। * एक दिन राजा थुम्मनदास को एक नया खेल सूझा। बोला, “मंत्री जी, अभी-अभी एक बड़ा जोरदार आइडिया आया है दिमाग में।… आप कहिए तो कह ही दूँ।” “कहिए महाराज, कहिए! अब तो आप कह ही दीजिए। सुनकर हम सब निहाल हो जाएँगे।” मंत्री दुक्खूमल ने जमकर मक्खन लगाते हुए कहा। “बात यह है मंत्री जी!” राजा थुम्मनदास ने सब दरबारियों की ओर देखते हुए बड़ी गंभीरता से कहा, “अब इतने कुते अपने दरबार में आ गए हैं तो इनका एक अनोखा खेल अपन करते हैं।… आप कुत्तों की दो सेनाएँ बना दीजिए। एक छोटा सा किला भी बनवाइए। अब कुत्तों की एक सेना किले के भीतर रहेगी, दूसरी किले के बाहर। फिर जरा होने दीजिए दोनों की खुल्लमखुल्ला टक्कर। देखते हैं, कौन सी सेना जीतती है, और कौन सा कुत्ता सबसे ज्यादा अपनी बहादुरी और शूरवीरता प्रदर्शित करता है? बस, वही कुत्ता इन सारे कुत्तों का सेनापति कहलाएगा। उसका दर्जा भी औरों से ऊपर होगा…! कहिए कैसा रहेगा मंत्री दुक्खूमल जी?” “अच्छा है महाराज, अच्छा, बहुत अच्छा…!” मंत्री दुक्खूमल ने खुशी प्रकट करते हुए कहा। “और सेनापति खटपट सिंह जी, आपने तो कुछ बताया ही नहीं?” “असल में मैं तो महाराज, सोच रहा था और हैरान हो रहा था कि कैसे नए-नए विचार हमारे महाराज के दिमाग में आते हैं। और कुत्तों के युद्ध वाला तो सचमुच बड़ा ही कमाल का आइडिया सूझा है आपको।” सेनापति खटपट सिंह ने कहा, “कुत्ते वाकई बड़े पराक्रमी होते हैं महाराज। जब कुत्तों की दो सेनाएँ लड़ेंगी तो हम भी इनसे मोरचेबंदी के तमाम गुर सीख लेंगे। कल को दुश्मन से भिड़ना पड़ा, तो यह चीज हमारे सैनिकों के बहुत काम आएगी।… महाराज, आपने तो बड़ा अनमोल आइडिया दे दिया हमें।” “तो ठीक है, जल्दी ही कुत्तों के इस युद्ध का आयोजन कीजिए। हम खुद देखेंगे कि ये कुत्ते आखिर लड़ते कैसे हैं, और इनसे हम कौन-कौन से नए-निराले दाँव-पेंच सीख सकते हैं?” राजा थुम्मनदास ने खुश होकर कहा। और फिर सचमुच निठल्लूपुर में कुत्तों के युद्ध-प्रदर्शन का ऐसा जोरदार ड्रामा हुआ, जिस पर लाखों रुपए खर्च हुए। मगर राजा थुम्मनदास और दरबारियों का खासा मनोरंजन हो गया। ऐसे ही दिन बीत रहे थे। राजा थुम्मनदास के दिमाग में रोज नए-नए आइडिया आते और उस पर खूब ड्रामेबाजी होती। खयालों के पुलाव बनाए जाते। फिर राजा थुम्मनदास के दरबारी एक-दूसरे को दिखा-दिखाकर बड़े मजे में उन्हें खाते। निठल्लूपुर पूरी तरह से निठल्लूपुर ही बन गया। फिर एक दिन बड़ा ही जोरदार आइडिया मंत्री दुक्खूमल के दिमाग में आया। उसने सुझाव दिया, “महाराज, इन कुत्तों की योग्यता, समझदारी और लड़ाकूपन हमने खूब परख लिया है। वफादारी में तो इनसे बढ़कर कोई और जीव धरती पर होता नहीं। फिर इनके इन गुणों का उपयोग क्यों न किया जाए?…” “उपयोग…? मैं समझा नहीं मंत्री जी, आप क्या कहना चाहते हैं…?” राजा थुम्मनदास ने बड़ी उत्सुकता से पूछा। “यही कि महाराज, कुत्तों के इन गुणों का हमें राज-काज में कोई अच्छा उपयोग करना चाहिए।…” मंत्री दुक्खूमल ने कहा, “मेरा सुझाव है महाराज, कि सेना में मनुष्यों की जगह अब कुत्तों को दे दी जाए। इनसे अच्छे और पराक्रमी सैनिक तो महाराज, दुनिया के किसी भी राज्य में न होंगे।” राजा थुम्मनदास इस सुझाव को सुनकर खुशी से उछल पड़ा। वह बोला, “वाह वाह मंत्री दुक्खूमल जी, वाह! आपने तो एकदम मेरे मन की बात कह दी। मैं खुद इस समय ठीक यही बात सोच रहा था। पर मैं कहता, इससे पहले ही आपने बात कह दी। मानना पड़ेगा मंत्री दुक्खूमल जी, आपका दिमाग वाकई बहुत तेज दौड़ता है।” “सीखा तो आपसे ही है महाराज।” मंत्री दुक्खूमल ने खीसें निपोरते हुए कहा। “हः हः हः…!” राजा थुम्मनदास ने अपनी खुशी प्रकट की, और गर्व से गरदन घुमाकर दरबार में हर किसी पर एक उड़ती हुई नजर डाली। फिर सेनापति खटपट सिंह को बुलाकर आदेश दिया, “आपने सुना सेनापति जी, मंत्री दुक्खूमल ने कितना अच्छा सुझाव दिया है। आप फौरन उसकी तैयारी शुरू कर दीजिए।” “जी, महाराज, जी…!” सेनापति ने कुछ असमंजस में पड़कर कहा। “जी महाराज, क्या…! आप मेरी बात अच्छी तरह समझ गए न?” “हाँ, महाराज, सेना में कुत्तों की भरती…!” “न-न-न, कुत्तों की भरती नहीं, सेनापति जी, बस, कुत्तों की ही सेना होगी निठल्लूपुर में! आप अच्छी तरह समझिए इस बात को।” राजा थुम्मनदास हँसा। फिर बोला, “बस, इसी की तैयारी करनी है आपको।…आप हमारे राज्य के कुत्तों को खूब अच्छी तरह प्रशिक्षित कीजिए। यह काम पंद्रह दिन में पूरा हो जाना चाहिए ।” “ठीक है महाराज, ठीक…! ऐसा ही होगा। बिल्कुल वैसे ही, जैसा आपने कहा….!” कहकर सेनापति खटपट सिंह ने बड़े अदब से सिर नवाया। और सचमुच पंद्रह दिन के भीतर ही सैनिकों को छुट्टी देकर उनकी जगह निठल्लूपुर की सीमा पर कुत्तों को खड़ा कर दिया गया। अजीब दृश्य था। जो भी देखता, ठठाकर हँसता। हालाँकि निठल्लूपुर में ऐसे लोग भी थे, जो यह देखकर हँसते। फिर हँसते-हँसते रो भी पड़ते थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, निठल्लूपुर का होगा क्या? पता नहीं राजा थुम्मनदास अभी क्या – क्या और करने वाला है! पड़ोसी राज्य भीमागढ़ के राजा विजयमल्ल ने यह सुना तो वह राजा थुम्मनदास की मूर्खता पर हैरान रह गया। उसने अपने दरबार में इसकी चर्चा करते हुए कहा, “निठल्लूपुर का राजा मूर्ख है, यह तो हमें पता था। पर वह इतना मूर्ख है, यह आज ही पता चला।” “महाराज, वहाँ की जनता भी बहुत परेशान है उसकी सनकों से। हर कोई उससे मुक्ति चाहता है….!” मंत्री देवल ने कहा। “हाँ महाराज, निठल्लूपुर पर आक्रमण करने का यह सही समय है। सेनापति राज्यवीर सिंह ने कहा, “मुझे यकीन है, निठल्लूपुर की पूरी जनता हमारा साथ देगी।” “तो ठीक है, आप और मंत्री जी मिलकर सारी तैयारियाँ कीजिए। बीच-बीच में मुझे भी बताते रहिए। कल सुबह ही सेना को कूच करना होगा।” राजा विजयमल्ल ने कहा। फिर अचानक उसे कुछ याद आया। बोला, “हाँ सेनापति जी, आप पचास बोरे भरकर मीठी रोटियाँ जरूर अपने साथ रख लें। सुबह – सुबह बेचारे कुत्तों को भूख भी तो लगी होगी।” “जी, महाराज…! जी, मैं सब समझ गया।” सेनापति राज्यवीर सिंह ने मुसकराते हुए कहा, “हम पचास बोरे भरकर रोटियाँ साथ ले जाएँगे हैं। जरूरत पड़ी तो और भी ताजा रोटियाँ बनाने का इंतजाम रहेगा। हमारे सैनिक समझदार हैं।

वे जरूरत पड़ने पर सारे काम कर सकते हैं।…” “बस, बस, ठीक है, सेनापति जी। आप समझ गए मेरे मन की बात।” राजा विजयमल्ल ने कहा, “किसी और चीज की जरूरत हो तो मंत्री जी से कह दीजिए। वे पूरा इंतजाम करेंगे।” * अगले दिन ही राजा विजयमल्ल ने एक बड़ी सेना के साथ निठल्लूपुर पर आक्रमण कर दिया। भीमागढ़ के सैनिकों का जोश देखने लायक है। हालाँकि एक बड़ी मुसीबत का उन्हें सामना करना पड़ा। विजयमल्ल की सेना के आगे बढ़ते ही कुत्तों ने एक साथ भौंकना और काटना शुरू कर दिया। इस हालत में आगे बढ़ना वाकई कठिन था। राजा विजयमल्ल के आदेश पर सैनिकों ने दोनों हाथ भर-भरकर कुत्तों के आगे मीठी स्वादिष्ट रोटियाँ डालनी शुरू कीं। पर कुत्तों ने उन्हें मुँह तक नहीं लगाया। भीमागढ़ के सैनिक यह देखकर हैरान थे। सेनापति ने राजा विजयमल्ल से कहा, “महाराज, लगता है, कुत्ते काफी प्रशिक्षित हैं। वे हमारी रोटियों को मुँह तक नहीं लगा रहे हैं।” “इतनी स्वादिष्ट रोटियाँ हैं सेनापति जी। तो वे खाएँगे… जरूर खाएँगे। बस, उन्हें थोड़ा प्यार से पुचकारकर खिलाइए।…” राजा विजयमल्ल की यह सलाह काम कर गई। पहले तो कुत्ते असमंजस में, सहमे से दूर खड़े रहे। फिर अचानक उनमें से कुछ कुत्ते भागकर उन रोटियों को उठा-उठाकर खाने लगे। देखते-देखते सब कुत्ते अपनी-अपनी जगह से हटकर रोटियों की छीन – झपट में शामिल हो गए। इसी बीच विजयमल्ल के सैनिक राज्य की सीमा में प्रवेश कर गए। उन्होंने जल्दी ही मूर्ख राजा थुम्मनदास और उसके चापलूस दरबारियों को कैद करके राज्य पर अधिकार कर लिया। मंत्री दुक्खूमल और सेनापति खटपट सिंह पहले ही राज्य छोड़कर भाग गए थे। राजा थुम्मनदास ने भी अपने चापलूस दरबारियों के साथ भागने की योजना बना ली थी।

पर भीमागढ़ के सैनिकों ने बड़ी होशियारी ने उन्हें पकड़कर हथकड़ियों से जकड़ दिया। भीमागढ़ के राजा विजयमल्ल को इसकी सूचना मिली तो उसने आदेश दिया, “राजा थुम्मनदास और उसके चापलूस दरबारियों का इसी हालत में पूरे राज्य में जुलूस निकाला जाए। ताकि सारी प्रजा जान ले कि मूर्ख राजा थुम्मनदास के शासन का अब अंत हो गया है।” और सचमुच, हथकड़ियों से बँधे मूर्ख राजा थुम्मनदास का जुलूस निकला तो रास्ते में खड़े हजारों लोग उसे देख – देखकर हँस रहे थे। बेचारा थुम्मनदास किसी से आँख नहीं मिला पा रहा था। उसी दिन भीमागढ़ के राजा विजयमल्ल ने घोषणा करवा दी कि निठल्लूपुर का नाम अब पहले की तरह सोनलगढ़ कर दिया गया है। थुम्मनदास गया तो भला अब निठल्लूपुर भी क्यों रहे? सोनलगढ़ के ही एक योग्य युवक सोमभद्र को सारा राजकाज सौंपकर, विजयमल्ल अपने देश लौट गया। सोनलगढ़ की प्रजा अब खुश थी। कभी-कभी लोगों को राजा थुम्मनदास और निठल्लूपुर की याद आती, तो वे हँसकर कहते, “चलो, अच्छा रहा। थुम्मनदास गया तो उसके साथ ही निठल्लूपुर भी चला गया।… हमारे प्यारे सोनलगढ़ का कैसा अजीब नाम रख दिया था थुम्मनदास ने, निठल्लूपुर! ईश्वर की बड़ी कृपा है कि अब गया थुम्मनदास, और गया निठल्लूपुर भी…! अब तो ये केवल किस्से-कहानियों की ही चीज हैं।” “आह, नि-ठ-ल्लू-पु-र…!” लोग अजीब सा मुँह बनाकर हँसते, “ठी-ही-ही – ही…!” और राजा विजयमल्ल के गुण गाते, जिसने वाकई उनका सुख-चैन लौटा दिया था।