एक भिक्षुक एक ऐसे गाँव से गुजर रहा था, जहां के लोग अपनी – नास्तिकता के लिए विख्यात थे। वहाँ एक आदमी ने अकारण ही उसे आवाज देकर रोका और वहीं पेड़ के नीचे पड़ी एक सूखी शाखा उठाकर उसकी पीठ पर प्रहार किया। भिक्षुक ने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़ने लगा। इस पर वहाँ मौजूद दूसरे लोगों ने कहा कि भाई, इसने तुम्हें चोट पहुँचाई और तुमने इसे कुछ भी नहीं कहा।
इस पर भिक्षुक ने उत्तर दिया कि मैंने तो यही माना कि यह शाखा पेड़ से गिरकर मुझे लग गई। अब क्या मैं पेड़ को बुरा-भला कहूँगा। इस पर लोग बोले कि पेड़ की बात और है, वह तो जड़ है। इस पर भिक्षुक ने कहा कि मेरे लिए यह व्यक्ति भी जड़ सदृश ही है, क्योंकि यह अपने अस्तित्व को लेकर चेतन नहीं है। जब मैं पेड़ को कुछ नहीं कह सकता तो इसे ही क्यों कुछ कहूँ। इस पर उस व्यक्ति का सिर शर्म से झुक गया और उसने भिक्षुक से क्षमा माँगी।
सारः क्षमा प्रतिशोध से ज्यादा प्रभावी होती है।
ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं– Indradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)
