Hindi Kahani: ढलते सूरज की सिंदूरी चमक में अपनी पसंदीदा कुर्सी पर बैठे किशोरी लाल आसमान के बदलते रंगों को देख रहे थे कि तभी किसी ने उनके पैरों को छुआ। “अरे अमन तुम! वाह बेटा कितना गर्व हो रहा है आज तुम्हें फौजी यूनिफॉर्म में देखकर” कहते-कहते किशोरी लाल जी की आंखों से पहली बार आंसू झड़ने लगे। अमन देखता रह जाता है, “ बाबूजी, यह आंसू! क्या हुआ”? किशोरी लाल मुस्कुराते हैं तो अमन बोलता है, “मेरे फौजी बनने की खुशी के आंसू है ना?” किशोरी लाल कहते हैं, “ नहीं बेटा, यह सुकून के आंसू हैं। “सुकून!!! आपके पास तो भगवान का दिया कितना कुछ है तो फिर आज ऐसा कौन सा सुकून मिला कि आप जैसा मज़बूत इंसान रो पड़ा? अमन पूछता है। किशोरी लाल कहते हैं, “ चल आज तुझे इस सुकून के आंसुओं की कहानी सुनाता हूं…
“हम लोग बहुत गरीब थे। मेरे पिताजी एक गैराज में मैकेनिक थे और मां घरों में खाना बनाती थीं। मुझे पढ़ने
के लिए पास के छोटे से सरकारी स्कूल में भेजा जाता था। किताबें भी मैं दूसरों की पुरानी इस्तेमाल करता
था। मुझे पढ़ने का शौक था बचपन से ही। इसी तरह ज़िंदगी बसर करते हुए मैं बड़ी कक्षा में आ गया।
छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करके अपनी आगे की पढ़ाई का खर्चा मैंने उठा लिया। शुरू से मां-बाप को
तकलीफें सहते और अपना मन मारते देखा था। इसलिए सिर्फ़ एक ही जज़्बा था मन में की एक दिन बहुत
अमीर आदमी बनूं। हर सुविधा का मज़ा लूं और मां-बाप को भी दे सकूं। इसी जुनून में आगे की पढ़ाई करने
लगा।
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जब मुझे नौकरी मिली तो थोड़ा अच्छा लगा की मां-बाप की कुछ तकलीफ मैं कम कर पाया था। अपने
लिए मैं बहुत कम पैसा खर्च करता और ज़्यादा जोड़ता था। जब लगा कि अपना बिज़नेस खड़ा करने लायक
पैसा जोड़ पाया हूं तो धीरे-धीरे मैं यह कार का बिज़नेस सेट करता रहा और आखिरकार मैंने नौकरी छोड़ दी।
उसके बाद एक बार जो बिज़नेस शुरू करा तो ना तो पीछे मुड़कर देखा और ना ही कुछ सोचा। बस कमाता ही
रहा। बंगला, गाड़ी, नौकर और बैंक में लाखों से करोड़ों हो गए थे। मुझे खुशी थी अपने ऊपर लेकिन न जाने
सुकून क्यों नहीं मिलता था। मेरा बिज़नेस शुरू होते-होते मां-बाप भी चल बसे थे। अमीर बनने की धुन में कभी
शादी और परिवार के बारे में सोच ही नहीं पाया।
एक पंडित जी को जानता था मैं। एक दिन उनके पास गया तो वह बोले दान पूर्ण करो, गरीबों को खाना
खिलाओ, संस्थानों में दान करो। उनकी बात मानकर मैं मंदिरों और सामाजिक संस्थाओं में दान और भंडारे
आयोजित करने लगा। हर त्यौहार पर संस्थानों में दान देता। शुभ दिन जैसे एकादशी, अमावस्या को मंदिरों में
भंडारे करवाने लगा। कईं बार कपड़े, कंबल और राशन बंटवाता। इसी में व्यस्त भी रहता तो मेरा अकेलापन
दूर होता और मन लगा रहता। इस वजह से कईं लोगों से मिलना जुलना भी हुआ। कब दिन निकलता और
रात होती मुझे पता ही नहीं चलता था। अब मुझे काफी अच्छा लगने लगा था। लगने लगा था कि यही सच्ची
मन की शांति है, पर धीरे-धीरे मुझे एहसास होने लगा कि वह सब तो मेरी दौलत का खेल है।
मेरी जान
पहचान वाले मेरी नहीं मेरी दौलत का मान करते हैं। मैं सोचने लगा कि मंदिरों और संस्थाओं को वैसे ही बहुत
दान आता रहता है, फिर मैं ऐसा क्या करूं जिसकी सच्ची कीमत हो और जिससे मुझे आंतरिक सुकून मिले।
मैं दूसरे कईं दौलतमंद लोगों की तरह किसी भी तरह की प्रतियोगिता में शामिल नहीं होना चाहता था। मैं
अपना पैसा दिखाना नहीं चाहता था बल्कि पैसे को सही जगह पर सच्चे सुकून के लिए लगाना चाहता था।
कहते हैं ना भगवान उनकी मदद करते हैं जो खुद की मदद करना चाहते हैं। मेरे मन में मदद करने की
सच्ची भावना थी कि एक रात मुझे सपना आया। ऐसा लगा सामने भगवान हैं। एक तेज़ चमक महसूस होने
लगी थी और फिर एक आवाज़ आई, “ किशोरी लाल, सच्चे सुकून के लिए दिखावे का काम नहीं बल्कि
सच्ची मदद करो। वह करो जिससे किसी को तन और मन की शांति और हिम्मत मिले। यह सब जो तुम कर
रहे हो यह तो कभी भी कर सकते हो पर जो तुम अपने लिए चाहते थे दूसरों के लिए करो…..थोड़ा पीछे मुड़कर
देखो।”
यकायक मेरी आंख खुल गई। क्या मैं सपना देख रहा था या सचमुच कोई मेरे सामने था? ‘पीछे मुड़ के देखो’
यह बात मेरे दिमाग में घूमने लगी। पहले तो मैं समझ नहीं पाया पर बाद में समझ आया के प्रभु मुझे अपने
बचपन को याद कराना चाहते थे। मैं समझ गया था कि उसकी कठिनाई को मुझे याद करना होगा। मैंने अपने
मां-बाप और अपनी हर छोटी बड़ी तकलीफों की एक लिस्ट बनाई और उनको ध्यान में रखकर सेवा भाव
रखते हुए काम शुरू करे।
लोगों को काम से लौटते समय पानी की प्यास के लिए मैंने कहीं जगह प्याऊ लगवाए; उनके आराम के लिए
बेंच और पेड़ लगवाए। सबसे बड़ी चीज़, मेरी शिक्षा के लिए जद्दोजहद करते हुए अपने मां-बाप याद आए।
इसलिए मैं बाज़ारों में और छोटे सरकारी स्कूलों में जाने लगा। वहां पता लगाता कि कोई बच्चा है जो दिल से
पढ़ना चाहता है पर पैसे की कमी की वजह से पढ़ नहीं पाता है। तुझे याद होगा तू कपड़े बेचता था सड़क के
किनारे। अमन कहता है, “हां जी बाबूजी याद है। शाम को मैं कपड़े बेचता था, सुबह स्कूल जाता था और रात में
घर जाकर पढ़ता था।” किशोरी लाल बोले, “ हां! यही बात तेरी मैंने कईं बार ध्यान करी। जब मुझे विश्वास हो
गया कि तू सचमुच मेहनती बच्चा है और तेरे मन में पढ़ने की बहुत इच्छा है तो मैंने तेरा सारा खर्चा उठा लिया।
तेरे मां-बाप ने भी उस कोशिश में मेरी मदद की कदर करी। बस तेरे बाद मैंने तेरे जैसे कईं बच्चों को ढूंढा और
उनकी पढ़ाई और नौकरी में मदद करी।
आज एक खास बात बताता हूं तुझे। अमन ने पूछा, “ वह क्या बाबूजी?” किशोरी लाल बताने लगे, “एक
गाना और उसकी एक खास पंक्ति मुझे सबसे ज़्यादा पसंद थी। अमन ने पूछा, “कौन सा गाना बाबू जी?”
“घर से मस्ज़िद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए…” किशोरी लाल कहते-कहते
मुस्कुराने लगे। यह पंक्ति मुझे अपने लिए सच होती नज़र आने लगी। जैसे-जैसे मैं सही मायने में जरूरतमंद
बच्चों की मदद करने लगा हर एक दिन के साथ मेरे मन के सच्चे सुकून का एहसास बढ़ने लगा। प्रभु की बात
मेरे ज़हन में पूरी तरह साफ़ हो गई.. ‘पीछे मुड़कर देख’ । मैं हर बच्चे में अपना बचपन देखने लगा, उसे सुधारने
लगा। उनके मां-बाप की चिंता दूर करके एहसास होता कि मैं अपने मां-बाप के लिए कुछ कर पा रहा हूं।
और आज जब तू, मेरा पहला बच्चा मेरे सामने देश सेवा का ओहदा लेकर आया है तो सही मायने में सच्चे
सुकून की अनुभूति हुई है। यह आंसू उसी अनुभूति का रूप हैं। अमन किशोरी लाल के पैर पकड़ कर उनके
पास बैठ जाता है, “ बाबूजी आपने मुझे शिक्षा दी, बचपन संवारा लेकिन आज अपनी कहानी बता कर आपने
यह भी सिखाया कि सच्चा सुकून पैसे लुटा कर सेवा करने में नहीं बल्कि किसी और के चेहरे पर मुस्कान लाने
में है। अमन कह रहा होता है और घर में पीछे वही गाना चलने लगता है, ‘किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया
जाए…।
