soma pema
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

जंगल के ऊपरी भाग में छोटा-सा एक तांडा था। वहाँ सोमा और पेमा नामक दो भाई रहते थे। उनकी एक बहन थी चम्पाबाई, जिसका विवाह नजदीक के एक तांडा में हुआ था। अब वह अपने पति डोंगरु के साथ ससुराल में बहुत ही आनंद से रहती थी। एक दिन पहली बार दोनों भाई मिलकर बहन चम्पाबाई के घर गये। बहुत दिनों बाद घर आये दोनों भाइयों को देखकर बहन और जीजा बहुत खुश नजर आये। साथ ही घरवालों का हालचल पूछा।

इन्होंने बताया कि सब लोग मस्त हैं, आप की चिंता करते रहते हैं। वह दोनों शाम ढलते आये थे इसलिए रात्रि के विशेष भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई। बहन के ससुराल में बहुत से भेड़-बकरे पाले हुए थे। दो बकरे के पिल्लों को सोमा और पेमा के नाम से बुलाते थे। इन भाईयों का नाम भी वही था। रात हो रही थी, साले लोग सोने के लिए निकले थे। जीजा जी कल किए जाने वाले विशेष पकवान के बारे में अपनी पत्नी के साथ चर्चा कर रहे थे। साले साब बहुत दिनों बाद पधारें हैं इसलिए मांस का विशेष भोजन बनाने के सम्बन्ध में पति, पत्नी के बीच सहमति हुई। पत्नी बकरे का बड़ा पिल्ला सोमा को काटकर भोजन बनाने के लिए कहती तो पति छोटा पिल्ला पेमा को कटवाकर सालन बनाने को कहता है।

दोनों के बीच कुछ समय तक चर्चा होती है। इधर सोमा और पेमा को अभी ठीक से नींद लगी नहीं थी। तो बहन-जीजा जी की चर्चा की बात इनके कानों ने सुनी। सुना कि हमें ही मार डालने की बातें हो रही है। दोनों भयभीत हो जाते हैं। सोचते हैं कि हमने ऐसा कौन-सा अपराध किया है जो हमें काटने पर तले हैं। गंभीर चर्चा करते हुए दोनों इससे बचने के लिए इस निर्णय पर आते हैं कि सुबह होते ही बाहर विसर्जन के बहाने भाग जायेंगे। इस जमाने में किसी पर भरोसा नहीं रहा। दोनों भाई अभी फिलहाल सो जाते हैं। सोमा और पेमा सूर्योदय की पहली किरण के साथ जैसे रात में निर्णय लिया था, उसी के तहत बाहर जाने के बहाने पानी लोटा लेकर तांडे का बाहरी रास्ता पकड़ते हैं। चलते-चलते बाद में इतनी तेजी से भागते हैं कि दोनों के हाथों से पानी के चम्बू कहाँ हाथ से छूटकर गिर पड़े, पता ही नहीं चला। साले लोगों को भागते देख उनके जीजा जी को पता चला, ठहरो-ठहरो कहाँ भागे जा रहे हो, सोमा को काटते हैं नहीं तो पेमा को काटते हैं, रुको-रुको कहते, बार-बार पुकारते उनके पीछे दौड़ते हैं। सोमा और पेमा नामों को सुनते ही गिरते, उठते और तेज दौड़ने लगते हैं दोनों भाई। इधर भाग भागकर, बार-बार चीलला-चीललाकर सुस्त हुए जीजा जी वापस घर लौट पडते हैं…

(मूल आधार : यह लोककथा ‘सोमा-भीमा’ नाम से कन्नड़ में डॉ. डी. बी. नायक की पुस्तक ‘बुडकट्टिन लम्बाणी जनपद कथेगलु’ में संकलित है। डॉ. भीमसिंह राठौड ने इसका हिंदी में अनुवाद किया है)

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’