Sama Chakeva: रक्षाबंधन और भाईदूज के बारे में तो हम सभी जानते हैं यह भाई बहनों का त्योहार है। अलग-अलग प्रांत में कुछ खास पर्व मनाए जाते हैं जो बहनें भाई की लंबी आयु के लिए मनाती हैं और भाई का बहन के प्रति प्रेम और विश्वास दिखाता है। ऐसे ही बिहार के मिथिलांचल का एक प्रसिद्ध पर्व है जो कार्तिक मास में छठ के बाद यानी सप्तमी तिथि से कार्तिक की पूर्णिमा तक मनाया जाता है। सात दिनों का यह पर्व बहनों के लिए विशेष होता है। अपनी मूर्ति कला रचनात्मकता और गायकी प्रदर्शन भी इस त्यौहार में बहने पूरी दिखातीं हैं। इसमें प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक रंग प्रयोग में लिए जाते हैं। मिट्टी से तरह- तरह के खिलोने बनाए जाते हैं जिन्हें देवोत्थान एकादशी के दिन भगवान की पूजा के लिए उपयोग में लाए जाने वाले सिंदूर और पिठार (जो कि चावल के आटे से बनता है) उसे सामा चकेवा की सभी मूर्तियों और खिलौनों पर लगाया जाता है फिर उन्हें सुंदर सुंदर रंगों से रंगा जाता है और सजाया जाता है।
मिट्टी की मूर्ति और तरह तरह के खिलौने तो बनाए ही जाते हैं साथ में खर (एक प्रकार की लंबी सूखी घास), सोन (एक प्रकार की रस्सी बनाने का समान) और लकड़ी का टुकड़ा या बांस की करची लेकर इनसे चुगला वृंदावन बनाया जाता है। वृंदावन को सुंदर बनाते हैं मिट्टी का सुंदर सा मुंह बनाकर और उसके नीचे धर के लिए खर एक प्रकार की घास प्रयोग करते हैं जो वृंदावन के जंगल का प्रतीक है। चुगला को बहुत ही बदसूरत बनाया जाता है लंबी टेढ़ी मेढ़ी नाक, सिर पर टेढ़ी मेंढ़ी लंबी सी टीक और बड़ी-बड़ी मूंछें और आंखें। जिसे जलाया जाता है जैसे दीपावली पर फुलझड़ी जलाई जाती है।
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सामा पर्व में लोकगीतों का विशेष महत्व है। बहनें अपने भाई की लंबी आयु, अच्छे स्वास्थ्य और उनकी धन संपत्ति में वृद्धि की मंगल कामनाओं के गीत गाती हैं। चुगला जिसके चुगली करने के कारण ही सामा के श्राप मिला था उसको कोसती हैं। हंसी मजाक के गीत गाती हैं। परिवार के सभी सदस्य मिलकर इस पर्व को मनाते हैं जो आपसी रिश्तों को मजबूत करते हैं। भाईदूज के दिन ही कई लोग मिट्टी और अन्य समान इक्कठा करना शुरू करते हैं। उस दिन बहनें मिट्टी छूकर मानती हैं कि भाई की आयु लंबी होगी। ज्यादातर सभी मूर्तियों और खिलौनों में चिड़िया और जंगल में पाए जाने वाले पक्षियों और पशुओं की मुर्तियां ही होती है। मुर्तियों के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने के लिए बांस की पतली-पतली डंडियों का प्रयोग किया जाता है।
आस्था और विश्वास का प्रतीक यह त्यौहार मनोरंजन से भी भरपूर होता है। ऐसा माना जाता है कि इन दिनों बेटी ससुराल से मायके आई है और घर में रौनक छा जाती है। दिन भर सामा चकेवा और सुगा-मैना, ढोलकी- बाजा, डोली-कहार, हाथी-घोड़ा और कृष्ण भगवान की मूर्ति बनाने में बीतता है और शाम होते ही उन मुर्तियों को ओस चटाने और संध्या भोजन के लिए खुले आंगन में ले जाया जाता है। नया धान और दूबा ही इनका भोजन होता है।
सामा की पौराणिक कहानी
इस पर्व को मनाने के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है…
श्यामा (जिन्हें मिथिला में सामा के नाम से जाना जाता है) को कृष्ण भगवान की बेटी माना जाता है और साम्ब को उनका भाई जो अपनी बहन से बहुत प्रेम करता है और उसे अपनी बहन पर पूरा विश्वास होता है कि वो गलत नहीं कर सकती। सामा को पशु पक्षियों और पेड़ पौधों से बहुत ही लगाव था इसलिए वो अपना अधिकतर समय वृंदावन के जंगलों में ही बिताती थी। वो अपनी दासी डिहुली के साथ राजमहल से निकल वृंदावन के जंगल में दिन भर पशु पक्षियों के साथ खेलती रहती। वो सच्चे मन से ऋषि-मुनियों की सेवा भी करतीं। जब वो विवाह योग्य हुईं तब उनका विवाह चकेवा (चारुदत्र नाम के ऋषि पुत्र) से हुआ। चकेवा को भी अपनी पत्नी सामा से बहुत प्रेम था और वो भी उन पर बहुत विश्वास करते थे।
चुरक नाम का एक सामंत जो सामा के सौंदर्य रूप पर मोहित था परंतु सामा अपने पति चकेवा के अतिरिक्त किसी गैर पुरुष के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। जब चुरक को लगा सामा उसके जाल में फंसने वाली नहीं है तो उसने कृष्ण भगवान से उसकी चुगली कर दी कि उसका संबंध किसी गैर पुरुष से है जिसे मिलने के बहाने ही वो वृंदावन के जंगल में हमेशा जाती है। यह भगवान की लीला ही थी कि उन्होंने चुरक की बात पर अपनी पुत्री को श्राप या कहें तो आशिर्वाद दे दिया किया कि वो चिड़िया बन जाए जिससे चुरक जैसे लोगों की बुरी दृष्टि से बची रहें।
पिता कृष्ण के श्राप देते ही सामा चिड़िया बन गई और वृंदावन के जंगलों में अन्य पक्षियों के साथ रहने लगीं। उसके पति चकेवा को जब अपनी पत्नी सामा को मिले श्राप के बारे में पता चला तो उन्होंने कृष्ण से प्रार्थना की कि उन्हें भी सामा के समान चिड़िया बना दें वो उसके बिना मनुष्य योनि में नहीं रह सकते और विष्णु भगवान की तपस्या में लीन हो गए। चकेवा भी चिड़िया बन अपनी पत्नी को ढूंढ़ते हुए जंगल में रहने लगे। इस शोक में आश्रम के ऋषि मुनियों ने भी पक्षियों में परिवर्तित हो वृंदावन के जंगलों में ही रहने लगे।
साम्ब अपनी बहन और जीजा के साथ साथ सभी ऋषि मुनियों को मानव रूप में लाने के लिए अपने पिता से निवेदन करने लगे और घोर तपस्या में लीन हो गए। उन्हें चुरक की बात पर जरा भी विश्वास नहीं था वो जानते थे कि चुरक झूठ बोल रहा है उसकी बहन वैसी नहीं है जैसा उसने उनके पिता को बताया। भगवान कृष्ण भी भाई बहन के इस प्रेम को देख अभिभूत हो श्राप मुक्ति का उपाय बताया। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष के सप्तमी तिथि को सामा चकेवा मानव रूप में बदल जाएंगे और अपने भाई से मिलने आएगी सामा और पुर्णिमा को पुनः लौट जाएगी। इस पौराणिक कथा में हमें एक भाई का अपनी बहन के प्रति प्रेम और विश्वास दिखता है।
सामा की विदाई
कार्तिक मास की पूर्णिमा को सामा को उनके ससुराल विदा किया जाता है। मिट्टी की सामा की मुर्तियों में बनी चिड़िया को पूर्णिमा के दिन भाईयों को घुटनों से अलग करने के लिए बहने कहती हैं जिसका अर्थ होता है सामा को चिड़िया बनने वाले श्राप से मुक्ति मिलना। फिर अपने भाईयों को गुड़ और नए धान का चूड़ा मुरही उपहार स्वरूप देती हैं । सामा के सभी खिलौनों को भगवती ओसरा (पूजा घर) में चावल पिठार और सिंदूर से पटिया बना कर उसमे सजा कर चूड़ा दही का भोग लगाते हैं,पानी पिलाते हैं और भगवती गीत, सामा गीत और समदाउन बेटी विवाह गीत गाते हैं। बहनें भाभीयां सब मिलकर सामा चकेवा का खेल खेलती हैं। अपने भाई को लंबी आयु की कामना करती हैं और उनके शरीर के हर अंग की तुलना प्रकृति से करते हुए अपने आंचल में पान के पत्ते पर सामा रख फेर बदल करते हुए गाती है” ..जीबो जीबो के तोर भईया जीबो के मोर भईया जीबो के लाख बरस जीबो, जैइसन कररी के थाम तईसन भईया के जांघ, जइसन समुद्र समाय तइसन भईया के पीठ, जईसन धोबिया के घाट तईसन भईया के लात, जईसन दाड़िम के बिया तइसन भईया के दांत, जइसन आमक फांक तइसन भईया के आंख…” इसका अर्थ है कि तेरा भाई दिर्घायु हो और मेरा भाई दिर्घायु हो। वो लाख वर्षों तक जीएं। जैसे पेड़ के वृक्ष के मजबूत तने वैसे ही मेरे भाई के पैर, जैसे विशाल समुद्र उसी तरह मेरे भाई की पीठ, जैसे धोबी का घाट उसी तरह मेरे भाई का गुस्सा उसकी लात है, अनार के सफेद चमकते बीजों की तरह ही मेरे भाई के दांत और आम के फांकें की तरह उसकी सुंदर आंखें हैं।
शारदा सिन्हा के सामा गीत गाम के अधिकारी और सामा खेला चलली बहुत ही प्रसिद्ध हैं। बहन भाई को संदेश भेजती है अपने ससुराल आने का जब वो मायके नहीं आ पाती। उसे धन संपत्ति का कोई लोभ लालच नहीं है वो तो सिर्फ भाई की मंगलकामना करती है। पूर्णिमा के दिन सामा की विदाई के समय आंसू आ ही जाते हैं हर भाई बहन की आंखों में। अगले साल पुनः लौट आना सामा कहकर उनके साथ मिट्टी के बनाए बर्तनों पोठी पटार में गुड़ चूड़ा अरबा चावल धान भरकर उन्हें जुते हुए खेत में ही भसा दिया जाता है। बांस की डालियों में सामा चकेवा रखकर दीया जलाकर खेल खेलती हैं। चुरक जिसका नाम उसके चुगली करने के कारण चुगला पड़ा उसे खूब गालियां देती हैं और उसकी मिटृटी से बनी मूर्ती के मूछ और मुंह को जला देती हैं।
वृंदावन में आइग लागे कियो ने मिझाबे हे हमरो से फलां
भईया दौइड़ दौइड़ बुझाबे हे..
जिसका अर्थ है वृंदावन के जंगलों में आग लग गई जिसे मेरा भाई बुझा रहा है।
चुगला करे चुगलपन बिलाई करे म्याऊं धोले चुगला तोरा फांसी जाऊं
जैसे गाने गाकर चुरक को गाली दी जाती है। मिट्टी के इन खिलौनों और बाकी समानों को तालाब में नहीं डालकर मिट्टी में ही डालने का यह अर्थ भी होता है कि मिट्टी से बना हुआ मिट्टी में ही मिल जाए और पानी गंदा ना करें। कार्तिक मास में शरद ऋतु की शुरुआत हो जाती है इस समय प्रवासी पक्षि मिथिलांचल के तालाब पोखर में आने लगते हैं उन्हें शिकारियों से बचाने के लिए भी इन दिनों उनका विशेष रख रखाव किया जाता है।
छठ के बाद से लगातार सामा गीत गाती हैं बहनें लेकिन पुर्णिमा यानी सामा को विदा करने के बाद उनके वो गीत भी नहीं गाए जाते। पूर्णिमा के अगले दिन घर सूना सूना लगने लगता है बेटी के घर से जाने के बाद आए सन्नाटे के समान। बेटीयां हैं तो घर में रौनक है इसी का महत्व बताता है यह सामा पर्व।
आज के आधुनिक और एकल परिवार के युग में इस पर्व की महत्ता कम होती जा रही है। समय अभाव और आधुनिकीकरण के कारण लोग मिट्टी से खेलना ना ही पसंद करते हैं और ना ही उनके पास अब इतना समय ही है। फिर भी कई लोग आज भी इस पर्व को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। हमें अपनी आनी वाली पीढ़ी को इस सामा पर्व को विरासत के रूप में देना चाहिए। हमने अपनी मां बहन भाभीयों को सामा बनाते खेलते देखा है तभी आज भी समय निकालकर यह पर्व मनाते हैं , हमें देखकर ही हमारे बच्चे सीखेंगे। अपनी मिट्टी अपनी संस्कृति से जोड़ता यह पर्व भले अन्य पर्वों की तरह प्रसिद्ध नहीं है और आज भी कई लोग भाई बहन के इस पर्व के बारे में नहीं जानते हैं पर मिथिलांचल और झारखंड में भी यह बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।
