पैंतालीस का प्रेम
Pentalish ka Prem

Hindi Prem Kahani: विवाह के पच्चीस साल के दरम्यान उसने जितनी बार मेरे बनाए खाने और मेरी तारीफ की होगी, उसे अंगुलियों पे गिना जा सकता है। कुछेक बार उसने मुझे गजरा भी लाकर दिया है पर इसलिए कि मेरे जन्मदिन पर ऑफिस स्टाफ ने उन्हें समझाया था कि पत्नी के लिए कुछ लेकर जाना।

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कई दिनों से देख रही थी कि सामने वाले मकान में सफाई हो रही थी। मेरी बालकनी से सामने वाले फ्लैट के अन्दर तक दिखाई देता है। अगर पर्दा ठीक से न लगा हो। फिर हफ्ते भर दीवाली की साजो-सफाई में इतनी व्यस्त रही कि सामने वाले फ्लैट में कोई आ भी गया यह तब पता चला जब एक दिन सवेरे कुकर की सीटी सुनाई दी। विनीत जब ऑफिस से आए तो मैंने पूछा, क्या आपको पता है हमारा नया पड़ोसी कौन है? मुझे क्या पता, वैसे टहलते समय किसी मिस्टर बनर्जी की बात कर रहे थे सभी। वह यहीं फॉरेस्ट ऑफिसर हैं। विनीत ने एक संक्षिप्त परिचय दिया और फिर टीवी देखने में मशगुल हो गए।
मैंने डिनर टेबल पर लगाते हुए कहा, कल थोड़ा जल्दी आना। दीवाली के पहले परदे खरीदने हैं। अरे अकेली चली जाओ न। मुझे यह शॉपिंग-वॉपिंग बड़ी बोरिंग लगती है। विनीत बड़े ही शांत स्वभाव वाले इंसान हैं। उन्हें केवल ऑफिस के काम से ही मतलब होता है। विवाह के पच्चीस साल के दरम्यान उसने जितनी बार मेरे बनाए खाने और मेरी तारीफ की होगी, उसे अंगुलियों पे गिना जा सकता है। कुछेक बार उसने मुझे गजरा भी लाकर दिया है पर इसलिए कि मेरे जन्मदिन पर ऑफिस स्टाफ ने उन्हें समझाया था कि पत्नी के लिए कुछ लेकर जाना। दूसरे दिन शनिवार था। विनीत के जाने के बाद घंटी की आवाज सुनाई दी। मुझे लगा हमेशा की तरह घड़ी छूट गयी होगी। जैसे ही दरवाजा खोला, सामने एक 30-32 साल का युवक खड़ा था।
हाथ में एक भगोना, जिसे देते हुए उसने कहा। मैं आशीष बनर्जी, सामने वाली बिल्डिंग में शिफ्ट हुआ हूं। मेरे फ्लैट में सभी कामकाजी हैं इसलिए वे सब नौ बजते-बजते ऑफिस के लिए निकल जाते हैं। शाम 4 बजे दूधवाला आएगा, प्लीज आप यह भगोना रख लीजिए। दूध ले लीजियेगा। मैंने उस समय ज्यादा कुछ नहीं पूछा। अब तो हर तीसरे-चौथे दिन यह सिलसिला सा हो गया। भगोना देने और लेने के साथ-साथ दो-चार बातें खड़े-खड़े ही हो जाती थी, मसलन, शर्ट अच्छा लग रहा है। आज क्या खाया कैंटीन में? वगैरह-वगैरह धीरे-धीरे बातों का दौर भी बढ़ने लगा। एक दिन शाम को ऑफिस से लौटने के बाद जब वह दूध का भगोना लेने आया तो मैंने उससे चाय पी कर जाने का अनुरोध किया चाय की तलब उसे भी थी। साथ ही बैचलर हूड से उकताहट भी होती होगी शायद इसलिए वह सहर्ष अंदर आ गया। बातों-बातों में उसने बताया कि वह गोरखपुर का रहने वाला है। तीन विवाहित बहनों और माता-पिता के साथ का एक मध्यमवर्गीय परिवार। उसके लिए भी विवाह हेतु रिश्ते देखे जा रहे हैं पर उसने मां-पिताजी के हाथों यह जिम्मेवारी दे रखी है। इसी बीच विनीत भी ऑफिस से आ गए। मैंने उसका परिचय कराते हुए कहा, ये हैं बनर्जी साहब। नहीं आप मुझे केवल आशीष कहें, आशीष ने झट सुधारा। फिर विनीत और आशीष के बीच लंबी बातचीत हुई। ऑफिस से लेकर शहर के मनोरंजन केंद्र तक। अधिकतर समय आशीष के ही बोलने की आवाज आ रही थी।
एक दिन सवेरे जब आशीष दूध का भगोना देने आया, तब मैं नहा कर निकली थी। सफेद साड़ी में गीले बालों के साथ जैसे ही उसकी नजर पड़ी, वह देखता ही रह गया। मैंने जब भगोना उसके हाथ से लिया, तब उसकी तन्द्रा टूटी। आशीष कह उठा, आप तो गुलाब पर पड़ी शबनम की मोती सी लग रही हैं। गजब की सुंदर। अपनी तारीफ सुने एक अरसा बीत गया था। पहले तो मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि अब भी उसकी सुंदरता कायम है। दिन का खाना बनाते समय पुरानी यादें ताजा हो गयीं।
स्कूल-कॉलेज में सखियां मुझसे यह कह कर जलती थीं, तुम हमारे साथ मत चलो। सब तुम्हें ही देखते हैं। हमारी तरफ तो कोई नहीं देखता। फेयरवेल में मुझे ही ब्यूटी क्वीन का खिताब मिला था। पर शादी के बाद विनीत की उदासीनता और गृहस्थी के भंवर में फंस कर रह गयी। आशीष के प्रशंसा भरे शब्द उसे जब न तब गुदगुदाते रहते। दूसरे दिन रविवार होने के कारण आशीष नहीं आएगा, उसे पता था। फिर भी किसी खटके से उसकी नजर दरवाजे की ओर उठ जाती। सोमवार का तेजी से इंतजार होने लगा। उस दिन मैंने जानबूझ कर दरवाजा खुला छोड़ा था। आशीष ने भगोना पकड़ाने के साथ कहा मां कहती थी कि सुबह-सुबह सुंदर चीज देखने से सारे दिन ताजगी बनी रहती है। मां ने गलत नहीं कहा था। मेरी गालों में लालिमा छा गयी। मुस्कुरा कर मैंने उसे विदा किया। जाने क्या कशिश थी आशीष की आंखों में जोक उसे बारंबर अपनी ओर खींच रही थी। उम्र के पैंतालिसवें पड़ाव पर यह क्या हो रहा है! किसी का इंतजार, किसी के लिए बेचैनी। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। विनीत के घर पर होने से एक तनाव सा महसूस होता। अकेलापन अच्छा लगता था। ऐसा नहीं था कि मुझ में आया आकस्मिक बदलाव विनीत ने महसूस न किया हो।
शाम के समय का मेरा बनाव-श्रृंगार विशिष्ट हो गया था। पहले हर दो-एक दिन पर विनीत से मैं कहती थी कि घर के कामों से थकावट हो जाती है। ऑफिस से आते समय वह राशन आदि लेते आया करे। विनित अपनी सफाई देता, मैं भी आठ घंटे कोई आराम फरमा कर नहीं आ रहा हूं। तुम ही जा कर ले आओ, वैसे भी दिन भर से घर में पड़ी हो। लेकिन पिछले कई दिनों से ऐसी किच-किच नहीं हो रही थी। विनीत को चाय सौंपने के बाद मैं स्वयं ही झोला लेकर निकल पड़ती। एक दिन मुझे टोहते हुए विनीत ने पूछा, आशीष को किसी दिन खाने पर बुला लो, आखिर अकेला प्राणी है। किसी और के आने की बात रखने से भी मैं कभी इनकार नहीं करती थी पर कुछ कड़वा जरूर सुना देती, हां नौकरानी जो ठहरी, मुफ्त में खिलाते रहो। लेकिन इस बार सहर्ष स्वीकार कर लिया। डिनर टेबल सजा कर मैं खुद भी अच्छी साड़ी पहन कर, बालों में गजरा लगा कर तैयार हो गयी।
आशीष बहुत खुले दिल से विनीत के स्वभाव और मेरे बनाए खाने की तारीफ करता रहा। जाते-जाते आशीष ने विनीत को धन्यवाद के साथ एक कमेंट भी दिया, ‘आप बड़े भाग्यशाली हैं जो नीला जी जैसी पत्नी मिली। मैंने गांव में इनका हवाला देते हुए खबर दे दी है कि इनके जैसी रूपवान और दक्ष लड़की से ही विवाह करूंगा। मैं सकपका गयी। रात को इस पूरे घटनाक्रम पर दोनों देर तक बातें करते रहे। विनीत चुटकी लेता रहा, आशीष तो तुम्हारा दीवाना हो गया है। हमेशा काम के बोझ तले मुरझाया मेरा चेहरा अब खिल रहा था जिसे शायद विनीत ने महसूस कर लिया था। विनीत को मेरी चुप्पी खलती। वह चाहता था कि मैं पहले की तरह उससे लडूं-झगडूं पर मैं एक नए जोश में सारे काम निबटाती। अगले रविवार को आशीष के आने का कोई सवाल नहीं उठता था क्योंकि उसकी छुट्टी होती थी। करीबन साढ़े दस बजे कॉल बेल बजी। दरवाजे पर आशीष खड़ा था। उसके हाथ में एक शादी का कार्ड भी। उसके इस अचानक आगमन पर मैं चहकते हुए बाहर आई, ‘अरे! आज कैसे? आशीष ने शादी का कार्ड उसकी और बढ़ाते हुए कहा, ‘अगले महीने की बीस तारीख को मेरी शादी तय हुई है। आप दोनों को गोरखपुर आना होगा। माता-पिता को पता था कि उनकी पसंद ही मेरी पसंद है इसलिए केवल तारीख की सूचना दे दी। लड़की को देखने-मिलने आदि की भी जरूरत नहीं। मेरा चेहरा एक बारगी उदास हो गया, फिर तुरंत संभालते हुए मैंने उसे बधाई दी।
इस घटना के बाद दो दिन यूं ही बीत गए। तीसरे दिन अचानक विनीत ने ऑफिस से आते समय एक गजरा खरीद लिया। शाम के छह बजे थे। मैं अपने कमरे की साज-सफाई में लगी थी। पिछले कई शामों की तरह बहुत उत्साहित नहीं। अचानक विनीत ने मुझे पीछे से आकर थाम लिया और कहा, ‘चलो तैयार हो जाओ। आज बाहर चलते हैं। दिन भर काम में लगी रहती हो। इस अप्रत्याशित प्यार भरे हमले को तो मैं जाने कब से भूल चुकी थी। इस प्यार से अभिभूत वह जल्दी ही तैयार हो गयी। आईने के सामने एक बड़ी बिंदी लगाते समय विनीत ने पीछे से उसके बालों में गजरा टांक दिया और फिर बाहों में भर कर कहा, ‘वाह! क्या लग रही हो। जन्नत की हूर कहूं या आंखों की नूर। शायरी अभी और होती कि मैंने उसके होंठों पर अंगुली रखते हुए कहा, ‘अब चलो भी। दिवाली की खरीदारी दोनों ने साथ-साथ करने की ठानी। विनीत के इस परिवर्तित व्यवहार पर मैं सोचती थी कि आशीष का उसके मोहल्ले में आना उसके जीवन में पुन: बहार लाने के लिए ही था। प्रशंसा ही वह कड़ी है जो तमाम खामियों के बावजूद एक-दूसरे को अपनाने और जोश के साथ जीवन जीने का आकर्षण पैदा करती है।
एक दिन सवेरे जब आशीष दूध का भगोना देने आया, तब मैं नहा कर निकली थी। सफेद साड़ी में गीले बालों के साथ जैसे ही उसकी नजर पड़ी, वह देखता ही रह गया। मैंने जब भगोना उसके हाथ से लिया, तब उसकी तन्द्रा टूटी।