साड़ी हमारी संस्कृति की पहचान-गृहलक्ष्मी की कविता: Hindi Poem
Saree Hamari Sanskriti ki Pehchan

Hindi Poem: कुछ एक बुद्धिजीवियों को,
साड़ी में गंव‌ई नजर आती है,
पर सच कहूं मित्रों मुझे तो,
साड़ी में शालीनता नजर आती है।

नहीं है कोई दोष हमारे अन्य परिधानों में,
पर कुछ झूठे दिखावे की खातिर,
क्यों जुटें हैं हम……
अपनी पहचान मिटाने में?

यह सब साजिश ही है उठीं,
संस्कृति हमारी मिटाने को।
जो बढ़ावा दे रहे हम,
पाश्चात्य परिधानों को।

पहले बिंदिया माथे से हुई लुप्त,
अब आंचल की बारी है।
कुछ एक बुद्धिजीवियों को,
साड़ी में गंव‌ई नजर आती है।

साड़ी पहने इसरो की वैज्ञानिक महिलाएं,
साड़ी में जंचती राष्ट्रपति हमारी हैं।
साड़ी में सजे हर नारी,
फिर साड़ी क्यों बिचारी है?

अब तो विदेशी महिलाएं भी,
साड़ी की बड़ी प्रशंसक है।
कैसी ये मानसिकता हमारी बनी,
क्यों साड़ी को हीन मानें हम।

आओ हम सब करें मंथन,
हर नारी का मान बढाएं हम।
साड़ी में सजे बेटी बहुएं,
साड़ी की पहचान बढ़ाएं हम।