shaanti by munshi premchand
shaanti by munshi premchand

जब मैं ससुराल आयी, तो बिलकुल फूहड़ थी। न पहनने-ओढ़ने का सलीका, न बातचीत करने का ढंग। सिर उठाकर किसी से बातचीत न कर सकती थी। आंखें अपने-आप झपक जाती थीं। किसी के सामने जाते शर्म आती, स्त्रियों तक के सामने बिना घूंघट के झिझक होती थी। मैं कुछ हिन्दी पढ़ी हुई थी, पर उपन्यास, नाटक आदि के पढ़ने में आनंद न आता था। फुरसत मिलने पर रामायण पढ़ती। उसमें मेरा मन बहुत लगता था। मैं उसे मनुष्य-कृत नहीं समझती थी। मुझे पूरा-पूरा विश्वास था कि उसे किसी देवता ने स्वयं रचा होगा। मैं मनुष्यों को इतना बुद्धिमान और सहृदय नहीं समझती थी। मैं दिन भर घर का कोई-न-कोई काम करती रहती। और कोई काम न रहता, तो चरखे पर सूत कातती। अपनी बूढ़ी सास से थर-थर कांपती थी। एक दिन दाल में नमक अधिक हो गया। सासजी ने भोजन के समय सिर्फ इतना ही कहा – ‘नमक जरा अंदाज से डाला करो।’ इतना सुनते ही हृदय कांपने लगा। मानो इससे अधिक कोई वेदना नहीं पहुंचायी जा सकती थी।

लेकिन मेरा यह फूहड़पन मेरे बाबूजी (पतिदेव) को पसंद न आता था। वह वकील थे। उन्होंने शिक्षा की ऊंची-से-ऊंची डिग्रियां पायी थीं। वह मुझ पर प्रेम अवश्य करते थे, पर उस – प्रेम में दया की मात्रा अधिक होती थी। स्त्रियों के रहन-सहज और शिक्षा के संबंध में उनके विचार बहुत ही उदार थे। वह मुझे उन विचारों से बहुत नीचे देखकर कदाचित् मन-ही-मन खिन्न होते थे, परन्तु उसमें मेरा कोई अपराध न देखकर हमारे रस्म-रिवाज पर झुंझलाते थे। उन्हें मेरे साथ बैठकर बातचीत करने में जरा आनंद न आता सोने आते, तो कोई-न-कोई अंग्रेजी पुस्तक साथ लाते, और नींद न आने तक पढ़ा करते। जो कभी मैं पूछ बैठती कि क्या पढ़ते हो, तो मेरी ओर करुणा दृष्टि से देखकर उत्तर देते – तुम्हें क्या बताऊं, यह आस्कर वाइल्ड की सर्वश्रेष्ठ रचना है। मैं अपनी योग्यता पर बहुत लज्जित थी। अपने को धिक्कारती, मैं ऐसे विद्वान् पुरुष के योग्य नहीं हूं। मुझे तो किसी उजड्ड के घर पड़ना था। बाबूजी मुझे निरादर की दृष्टि से नहीं देखते थे, यही मेरे लिए सौभाग्य की बात थी।

एक दिन संध्या समय मैं रामायण पढ़ रही थी। भरत जी रामचन्द्रजी की खोज में निकले थे। उनका करुण विलाप पढ़कर मेरा हृदय गदगद हो रहा था। नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। हृदय उमड़ आता था। सहसा बाबूजी कमरे में आए। मैंने पुस्तक तुरन्त बंद कर दी। उनके सामने मैं अपने फूहड़पन को भरसक प्रकट न होने देती थी। लेकिन उन्होंने पुस्तक देख ली, और पूछा – रामायण है न?

मैंने अपराधियों की भांति सिर झुकाकर कहा – हां, जरा देख रही थी।

बाबूजी – इसमें शक नहीं कि पुस्तक बहुत ही अच्छी, भावों से भरी हुई है, लेकिन इसमें मानव-चरित्र वैसी खूबी से नहीं दिखाया गया, जैसा अंग्रेज या फ्रांसीसी लेखक दिखलाते हैं। तुम्हारी समझ में तो न आयेगा, लेकिन कहने में क्या हर्ज है, यूरोप में आजकल ‘स्वाभाविकता’ (Realism) का जमाना है। वे लोग मनोभावों के उत्थान और पतन का ऐसा वास्तविक वर्णन करते हैं कि पढ़कर आश्चर्य होता है। हमारे यहां कवियों को पग-पग पर धर्म तथा नीति का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए कभी-कभी उनके भावों में अस्वाभाविकता आ जाती है, और यही त्रुटि तुलसीदास में भी है।

मेरी समझ में उस समय कुछ भी न आया। बोली – मेरे लिए तो यही बहुत है, अंग्रेजी पुस्तकें कैसे समझूं।

बाबूजी – कोई कठिन बात नहीं। एक घंटे भी रोज पढ़ो, तो थोड़े ही समय में काफी योग्यता प्राप्त कर सकती हो, पर तुमने तो मानों मेरी बातें न मानने की सौगन्ध ही खा ली है। कितना समझाया कि मुझसे शर्म करने की आवश्यकता नहीं, पर तुम्हारे ऊपर कुछ असर न पड़ा। कितना कहता हूं कि जरा सफाई से रहा करो, परमात्मा सुन्दरता देता है तो चाहता है कि उसका श्रृंगार भी होता रहे, लेकिन जान पड़ता है, तुम्हारी दृष्टि में उसका कुछ मूल्य नहीं! या शायद तुम समझती हो कि मेरे जैसे कुरूप मनुष्य के लिए तुम चाहो जैसी रही, आवश्यकता से अधिक अच्छी हो। यह अत्याचार मेरे ऊपर है। तुम मुझे ठोक-पीटकर वैराग्य सिखाना चाहती हो। जब मैं दिन-रात मेहनत करके कमाता हूं तो स्वभावतः मेरी यह इच्छा होती है कि द्रव्य का सबसे उत्तम व्यय हो। परन्तु फूहड़पन और पुराने विचार मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर देते हैं। स्त्रियां केवल भोजन बनाने, बच्चे पालने, पति की सेवा करने और एकादशी व्रत रखने के लिए नहीं है। उनके जीवन का लक्ष्य इससे बहुत ऊंचा है। वे मनुष्यों के समस्त सामाजिक और मानसिक विषयों में समान रूप से भाग लेने की अधिकारिणी है। उन्हें भी मनुष्यों की भांति स्वतन्त्र रहने का अधिकार प्राप्त है। मुझे तुम्हारी यह बंदी-दशा देखकर बड़ा कष्ट होता है। स्त्री-पुरूष की अर्धांगिनी मानी गई है, लेकिन तुम मेरी मानसिक या सामाजिक, किसी आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकती। मेरा और तुम्हारा धर्म अलग, आचार-विचार अलग, आमोद-प्रमोद के विषय अलग। जीवन के किसी कार्य में मुझे तुमसे किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती। तुम स्वयं विचार सकती हो कि ऐसी दशा में मेरी जिन्दगी कैसी बुरी तरह कट रही है।

बाबूजी का कहना बिलकुल यथार्थ था। मैं उनके गले में एक जंजीर की भांति पड़ी हुई थी। उस दिन से मैंने उन्हीं के कहे अनुसार चलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली, अपने देवता को किस भांति अप्रसन्न करती।

यह तो कैसे कहूं कि – मुझे पहनने-ओढ़ने से प्रेम न था। था, और उतना ही था, जितना दूसरी स्त्रियों को होता है। जब बालक और वृद्ध तक श्रृंगार पसंद करते हैं, तो मैं युवती ठहरी। मन भीतर-ही-भीतर मचलकर रह जाता था। मेरे मायके में मोटा खाने और मोटा पहनने की चाल थी। मेरी मां और दादी हाथों से सूत कातती थी, और जुलाहे से उसी सूत के कपड़े बनवा लिए जाते थे, बाहर से बहुत कम कपड़े आते थे। मैं जरा महीन कपड़ा पहनना चाहती या श्रृंगार में रुचि दिखाती, तो अम्मा फौरन टोकती और समझाती कि बहुत बनाव-संवार भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देता। ऐसी आदत अच्छी नहीं। यदि कभी वह मुझे दर्पण के सामने देख लेती, तो झिड़कने लगती, परन्तु अब बाबूजी की जिद से मेरी यह झिझक जाती रही। मेरी सास और ननद मेरे बनाव-श्रृंगार पर नाक-भों सिकोड़ती, पर मुझे अब उनकी परवाह न थी। बाबूजी की प्रेम-परिपूर्ण दृष्टि के लिए मैं झिड़कियां भी सह सकती थी। अब उनके और मेरे विचारों में समानता आती जाती थी। वह अधिक प्रसन्नचित जान पड़ते थे। वह मेरे लिए फैशनेबुल साड़ियां, सुन्दर जाकेट, चमकते हुए जूते और कामदार स्लीपर लाया करते। मैं इन वस्तुओं को धारण कर किसी के सामने न निकलती, ये वस्त्र केवल बाबूजी के ही सामने पहनने के लिए रखे थे। मुझे इस प्रकार बनी-ठनी देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। स्त्री अपने पति की प्रसन्नता के लिए क्या नहीं कर सकती? अब घर के काम-काज से मेरा अधिक समय बनाव-शृंगार तथा पुस्तकावलोकन में ही बीतने लगा। पुस्तकों से मुझे प्रेम होने लगा था। यद्यपि अभी तक मैं अपने सास-ससुर का लिहाज करती थी, उनके सामने बूट और गाउन पहनकर निकलने का मुझे साहस न होता था, पर मुझे उनकी शिक्षापूर्ण बातें न भाती थीं। मैं सोचती, जब मेरा पति सैकड़ों रुपये महीने कमाता है तो घर में चेरी बनकर क्यों रहूं? यों अपनी इच्छा से चाहे जितना काम करूं, पर वे लोग मुझे आज्ञा देने वाले कौन होते हैं? मुझमें आत्माभिमान की मात्रा बढ़ने लगी। यदि अम्मा मुझे कोई काम करने को कहती तो मैं अदबदाकर टाल जाती। एक दिन उन्होंने कहा, सवेरे के जलपान के लिए कुछ दालमोट बना लो। मैं बात अनसुनी कर गई। अम्मा ने कुछ देर तक मेरी राह देखी, पर जब मैं अपने कमरे से न निकली, तो उन्हें तो गुस्सा हो आया। वह बड़ी ही चिड़चिड़ी प्रकृति की थी। तनिक-सी बात पर तुनक जाती थीं। उन्हें अपनी प्रतिष्ठा का इतना अभिमान था कि मुझे बिलकुल लौंडी समझती थी। हां, अपनी पुत्रियों से सदैव नम्रता से पेश आती, बल्कि मैं तो यह कहूंगी कि उन्हें सिर चढ़ा रखा था। वह क्रोध में भरी हुई मेरे कमरे के द्वार पर आकर बोली – तुमसे मैंने दालमोट बनाने को कहा था, बनाया?

मैं रुष्ट होकर बोली – अभी फुरसत नहीं मिली।

अम्मा – तो तुम्हारी जान में दिन भर पड़े रहना ही बड़ा काम है। यह आजकल तुम्हें हो क्या गया है? किस घमंड में हो? क्या सोचती हो कि मेरा पति कमाता है, तो मैं क्यों करूं? इस घमंड में न भूलना। तुम्हारा पति लाख कमाए लेकिन घर में राज मेरा ही रहेगा। आज वह चार पैसे कमाने लगा है, तो तुम्हें मालकिन बनने की हवस हो रही है लेकिन उसे पालने-पोसने तुम नहीं आयी थी, मैंने ही उसे पढ़ा-लिखा कर इस योग्य बनाया है। वाह! कल की छोकरी और अभी से यह गुमान।

मैं रोने लगी। मुंह से एक बात न निकली। बाबूजी उस समय ऊपर कमरे में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। ये बातें उन्होंने सुनी। उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। रात को जब वह घर आये तो बोले – देखा तुमने, आज अम्मा का क्रोध? यही अत्याचार है, जिससे स्त्रियों को अपनी जिन्दगी पहाड़ मालूम होने लगती है। इन बातों से हृदय में कितनी वेदना होती है, इसका जानना असम्भव है। जीवन भार हो जाता है, जर्जर हो जाता है और मनुष्य की आत्मोन्नति उसी प्रकार रुक जाती है, जैसे जल, प्रकाश और वायु के बिना पौधे सूख जाते हैं। हमारे घरों में यह बड़ा अंधेरा है। अब मैं उनका पुत्र ही ठहरा, उसके सामने मुंह नहीं खोल सकूंगा। मेरे ऊपर उनका बड़ा अधिकार है। अतएव उनके विरुद्ध एक शब्द भी कहना मेरे लिए लज्जा की बात होगी, और यही बंधन तुम्हारे लिए भी है। यदि तुमने उनकी बातें चुपचाप न सुन ली होती, तो मुझे बहुत ही दुःख होता। कदाचित? मैं विष खा लेता। ऐसी दशा में दो ही बातें सम्भव है, या तो सदैव उनकी घुड़कियों-झिड़कियां को सहे जाओ, या अपने लिए कोई दूसरा रास्ता चुनो। अब इस बात की आशा करना कि अम्मा के स्वभाव में कोई परिवर्तन होगा, बिलकुल भ्रम है। बोलो, तुम्हें क्या स्वीकार है?

मैंने डरते-डरते कहा – आपकी जो आज्ञा हो, वह करूं। अब कभी न पढ़ू लिखूंगी और जो कुछ कहेंगी, वह करूंगी। यदि वह इसी में प्रसन्न हैं, तो यही सही। मुझे पढ़-लिखकर क्या करना है।

बाबूजी – पर यह मैं नहीं चाहता। अम्मा ने आज आरम्भ किया है। अब रोज बढ़ती ही जाएंगी। मैं तुम्हें जितनी ही सभ्य तथा विचारशील बनाने की चेष्टा करूंगा उतना ही उन्हें बुरा लगेगा और उनका गुस्सा तुम्हीं पर उतरेगा। उन्हें पता नहीं कि जिस आब-हक में अपनी जिंदगी बितायी है, वह अब नहीं रही। विचार-स्वातंत्र्य और समयानुकूलता उनकी दृष्टि में अधर्म से कम नहीं। मैंने यह उपाय सोचा है कि किसी दूसरे शहर में चलकर अपना अड्डा जमाऊं। मेरी वकालत भी यहां नहीं चलती इसलिए किसी बहाने की भी आवश्यकता न पड़ेगी।

मैं इस तजवीज के विरुद्ध कुछ न बोली। यद्यपि अकेले रहने से भय लगता था, तथापि वहां स्वतन्त्र रहने की आशा ने मन को प्रफुल्लित कर दिया।

उसी दिन से अम्मा ने मुझसे बोलना छोड़ दिया। महरियों, पड़ोसियों और ननदों के आगे मेरा परिहास किया करती। यह मुझे बहुत बुरा मालूम होता था। इसके पहले यदि वह कुछ बातें कह लेती, तो मुझे स्वीकार था। मेरे हृदय से उनकी मान-मर्यादा घटने लगी। किसी मनुष्य पर इस प्रकार कटाक्ष करना उसके हृदय से अपने आदर को मिटाने के समान है। मेरे ऊपर सबसे गुरुतर दोषारोपण यह था कि मैंने बाबूजी पर कोई मोहन-मंत्र फूंक दिया है, वह मेरे इशारों पर चलते हैं पर यथार्थ में बात उलटी ही थी।

भाद्र मास था। जन्माष्टमी का त्यौहार आया। घर में सब लोगों ने व्रत रखा। मैंने भी सदैव की भांति व्रत रखा। ठाकुरजी का जन्म रात के बार बजे होने वाला था, हम सब बैठकर गाती-बजाती थीं। बाबूजी इस असभ्य व्यवहारों के बिलकुल विरुद्ध थे। हम सब होली के दिन रंग भी न खेलते, गाने-बजाने की तो बात ही अलग। रात को एक बजे जब मैं उनके कमरे में गयी, तो मुझे समझाने लगे – इस प्रकार शरीर को कष्ट देने से क्या लाभ? कृष्ण महापुरुष अवश्य थे, और उनकी पूजा करना हमारा कर्त्तव्य है पर गाजे-बाजे से क्या फायदा? इस ढोंग का नाम धर्म नहीं है। धर्म का सम्बन्ध सच्चाई और ईमान से है, दिखावे से नहीं। बाबूजी स्वयं इसी मार्ग का अनुकरण करते थे। वह भगवद्गीता की अत्यन्त प्रशंसा करते, पर उसका पाठ कभी न करते थे। उपनिषद पढ़ते नहीं देखा। वह हिंदू-धर्म के मूढ़ तत्त्वज्ञान पर लट्टू थे, पर उसे समयानुकूल नहीं समझते थे। विशेषकर वेदांत को तो भारत की अवनति का मूल कारण समझते थे। वह कहा करते कि इसी वेदांत ने हमको चौपट कर दिया, दुनिया के पदार्थों को तुच्छ समझने लगे, जिसका फल अब तक भुगत रहे हैं। अब उन्नति का समय है। चुपचाप बैठे रहने से निर्वाह नहीं। संतोष ने ही भारत को गारत कर दिया।