Laanchan by Munshi Premchand
Laanchan by Munshi Premchand

मुंशी श्यामकिशोर के द्वार पर मुन्नू मेहतर ने झाडू लगायी, गुसलखाना धो-धोकर साफ किया और तब द्वार पर आकर गृहिणी से बोला – ‘मां जी, देख लीजिए, सब साफ कर दिया। आज कुछ खाने को मिल जायें सरकार।’

देवी रानी ने द्वार पर आकर कहा – ‘अभी तो तुम्हें महीना पाये दस दिन भी नहीं हुए। फिर इतनी जल्दी मांगने लगे?’

मुन्नू – ‘क्या करूं, मांजी, खर्च नहीं चलता। अकेला आदमी, घर देखूं कि काम करूं?’

देवी – ‘तो ब्याह क्यों नहीं कर लेते?

मुन्नू – ‘रुपये मांगते हैं सरकार! यहां खाने से ही नहीं बचता, थैली कहां से लाऊं।’

देवी – ‘अभी तो तुम जवान हो, कब तक अकेले बैठे रहोगे?’

मुन्नू – ‘हुजूर की इतनी निगाह है, तो कहीं-न-कहीं ठीक हो ही जायेगी, सरकार कुछ मदद करेंगी न?’

देवी – ‘हां-हां, तुम ठीक-ठाक करो। मुझसे जो कुछ हो सकेगा, मैं भी दे दूंगी।’

मुन्नू – ‘सरकार का मिजाज़ बड़ा अच्छा है। हुजूर इतना ख्याल करती है। दूसरे घरों में तो मालकिन बात भी नहीं पूछती। सरकार को अल्लाह ने जैसी शक्ल-सूरत दी है, वैसा ही दिल भी दिया है। अल्लाह जानता है, हुजूर को देखकर भूख-प्यास जाती रहती है। बड़े-बड़े घर की औरतें देखी हैं, मुदा आपके तलवों की बराबरी भी नहीं कर सकती।’

देवी – ‘चल झूठे! मैं ऐसी कौन खूबसूरत हूं।’

मुन्नू – ‘अब सरकार से क्या कहूं। बड़ी-बड़ी खत्रानियों को देखता हूं, मगर गोरेपन के सिवा और कोई बात नहीं।’ उनमें यह नमक कहां, सरकार!’

देवी – ‘एक रुपये में तुम्हारा काम चल जायेगा?’

मुन्नू – ‘भला सरकार, दो रुपये तो दे दें।’

देवी – ‘अच्छा, यह लो और जाओ।’

मुन्नू, – ‘जाता हूं सरकार! आप नाराज न हों तो एक बात पूछूं?’

देवी – ‘क्या पूछते हो, पूछो? मगर जल्दी, मुझे चूल्हा जलाना है।’

मुन्नू – ‘तो सरकार जायें, फिर कभी कहूंगा।’

देवी – ‘नहीं-नहीं, कहो क्या बात है? अभी कुछ ऐसी जल्दी नहीं है।’

मुन्नू – ‘दालमंडी में सरकार के कोई रहते हैं क्या?’

देवी – ‘नहीं, यहां तो कोई नातेदार नहीं है।’

मुन्नू – ‘तो कोई दोस्त होंगे। सरकार को अक्सर एक कोठे पर से उतरते देखता हूं।’

देवी – ‘दालमंडी तो रंडियों का मुहल्ला है?’

मुन्नू – ‘हां सरकार, रंडियां बहुत हैं यहां, लेकिन सरकार तो सीधे-सादे आदमी मालूम होते हैं। यहां रात को देर से तो नहीं आते?’

देवी – ‘नहीं, शाम से पहले ही आ जाते हैं और फिर कहीं नहीं जाते। हां, कभी-कभी लाइब्रेरी अलबत्ता जाते हैं।’

मुन्नू – ‘बस-बस, यही बात है, हुजूर? मौका मिले, तो इशारे से समझा दीजिएगा सरकार, कि रात को उधर न जाया करें। आदमी का दिल कितना ही साफ हो, लेकिन देखने वाले तो शक करने लगते हैं।’

इतने में ही बाबू श्याम किशोर आ गए। मुन्नू ने उन्हें सलाम किया, बाल्टी उठायी और चलता हुआ।

श्याम किशोर ने पूछा – ‘मुन्नू क्या कह रहा था।

देवी – कुछ नहीं, अपने दुखड़े रो रहा था। खाने को मांगता था। दो रुपये दे दिये हैं। बातचीत बड़े ढंग से करता है।’

श्याम – ‘तुम्हें तो बातें करने का मर्ज है। और कोई नहीं तो मेहतर ही सही। इस भूतने से न-जाने तुम कैसे बातें करती हो।’

देवी – ‘मुझे उसकी सूरत लेकर क्या करना है। गरीब आदमी है। अपना दुःख सुनाने लगता है, तो कैसे न सुनू। बाबू साहब ने बेले का गज़रा रूमाल से निकाला, देवी के गले में डाल दिया किंतु देवी के मुख पर प्रसन्नता का कोई चिह्न न दिखाई दिया। तिरछी निगाहों से देखकर बोली – ‘आप आजकल दालमंडी की सैर बहुत किया करते हो?’

श्याम – ‘कौन? मैं?’

देवी – ‘जी हां, तुम। मुझसे तो लाइब्रेरी का बहाना करके जाते हो, खैर वहां जलसे होते हैं।’

श्याम – ‘बिलकुल झूठ, सोलहों आने झूठ। तुमसे कौन कहता था? यही मुन्नू।’

देवी – ‘मुन्नू, ने मुझसे कुछ नहीं कहा, पर तुझे तुम्हारी टोह मिलती रहती है।’

श्याम – ‘तुम मेरी टोह मत लिया करो। शक करने से आदमी शक्की हो जाता है, और तब बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते हैं। भला, मैं दालमंडी क्यों जाने लगा? तुमसे बढ़कर दालमंडी में और कौन है? मैं तो तुम्हारी इन मदभरी आंखों का आशिक हूं। अगर अप्सरा भी सामने आ जाये, तो भी आंखें उठकर न देखूं। आज शारदा कहां है?’

देवी – ‘नीचे खेलने चली गयी है।’

श्याम – ‘नीचे मत जाने दिया करो। इक्के, मोटर गाड़ियां दौड़ती रहती हैं। न जाने कब क्या हो जाये। आज ही अरदली बाजार में एक वारदात हो गई। तीन लड़के एक साथ दब गए।’

देवी – ‘तीन लड़के! बड़ा गजब हो गया। किसकी मोटर थी।’

श्याम – ‘इसका अभी तक पता नहीं चला। ईश्वर जानता है, तुम्हें यह गज़रा बहुत खिल रहा है।’

देवी (मुस्कुराकर) – ‘चलो, बातें न बनाओ।’

तीसरे दिन मुन्नू ने देवी से कहा – ‘सरकार, एक जगह सगाई ठीक हो रही है, देखिए, कौल से फिर न जाइएगा। मुझे आपका बड़ा भरोसा है।’

देवी – ‘देख ली औरत? कैसी है।’

मुन्नू – ‘सरकार जैसी तकदीर में है, वैसी है। घर की रोटियां तो मिलेगी, नहीं तो अपने हाथों ठोकना पड़ता था। है क्या कि मिज़ाज की सीधी है। हमारे जात की औरतें बड़ी चंचल होती हैं, हुजूर! सैकड़े पीछे एक भी पाक न मिलेगी।’