Laanchan by Munshi Premchand
Laanchan by Munshi Premchand

देवी – ‘सबसे मिलने मैं थोड़े ही जा रही हूं?’

श्याम – ‘तो राजा क्या मेरा साला है या ससुरा?’

देवी – ‘तुम तो जरा-सी बात पर झल्लाने लगते हो।’

श्याम – ‘यह जरा-सी बात है। एक भले घर की स्त्री एक शोहदे से बातें करे, यह जरा-सी बात है। तो बड़ी-सी बात किसे कहते हैं? यह जरा-सी बात नहीं है कि यदि में तुम्हारी गर्दन घोंट दूं तो मुझे पाप न लगेगा, देखता हूं फिर तुमने वही रंग पकड़ा। इतनी बड़ी सजा पाकर भी तुम्हारी आंखें नहीं खुली। अबकी क्या मुझे ले बीतना चाहती हो।’

देवी सन्नाटे में आ गई। एक तो लड़की का शोक उस पर यह अपशब्दों की बौछार और भीषण आक्षेप उसे सिर में चक्कर-सा आ गया। बैठकर रोने लगी। ‘इस जीवन से तो मौत कहीं अच्छी।’ केवल यही शब्द उसके मुंह से निकले।

बाबू साहब गरजकर बोले – ‘यही होगा। मत घबराओ, मत घबराओ, यही होगा। तुम मरना चाहती हो, तो मुझे भी तुम्हारे अमर होने की आकांक्षा नहीं है। जितनी जल्द तुम्हारे जीवन का अंत हो जाय, उतना ही अच्छा। कुल में कलंक तो न लगेगा?

देवी ने सिसकियां लेते हुए कहा – ‘क्यों एक अबला पर इतना अन्याय करते हो? तुम्हें जरा भी दया नहीं आती।’

श्याम – ‘मैं कहता हूं चुप रह।’

देवी – ‘क्यों चुप रहूं? क्या किसी की जबान बन्द कर दोगे?’

श्याम – ‘फिर बोले जाती है? मैं उठकर सिर तोड़ दूंगा?

देवी – ‘क्या सिर तोड़ दोगे, कोई जबरदस्ती है?’

श्याम – ‘अच्छा तो बुला, देखें तेरा कौन हिमायती हैं?’

यह कहते हुए बाबू साहब झल्लाकर उठे, और देवी को कई थप्पड़ और घूंसे लगा दिये, मगर वह न रोयी, न चिल्लायी, न जबान से एक शब्द निकाला, केवल अर्थ-शल्य नेत्रों से पति की ओर ताकती रही, मानो यह निश्चय करना चाहती थी कि यह आदमी है या कुछ और। जब श्याम किशोर मार-पीटकर अलग खड़े हो गए, तो देवी ने कहा – ‘दिल के अरमान अभी न निकले हों तो और निकाल लो। फिर शायद अवसर न मिले।’

श्याम किशोर ने जवाब दिया – ‘सिर काट लूंगा, सिर। तू है किस फेर में?’

यह कहते हुए वह नीचे चले गये, झटके के साथ किवाड़ खोले, धमाके के साथ बंद किए और कहीं चले गये।

अब देवी की आंखों से आंसू की नदी बहने लगी।

रात के दस बज गए, पर श्याम किशोर घर न लौटे। रोते-रोते देवी की आंखें सूज आईं। क्रोध में मधुर-स्मृतियों का लोप हो जाता है। देवी को ऐसा ज्ञान होता था कि श्याम किशोर को उसके साथ कभी प्रेम ही न था। हां, कुछ दिनों वह उसका मुंह अवश्य जोहते रहते थे, लेकिन वह बनावटी प्रेम था। उसके यौवन का आनंद लूटने ही के लिए उसमें मीठी-मीठी प्यार की बातें की जाती थी। उसे छाती से लगाया जाता था, उसे कलेजे पर सुलाया जाता था। वह सब दिखावा था, स्वांग था। उसे याद ही न आता कि कभी उससे सच्चा प्रेम किया गया हो। अब वह रूप नहीं रहा, वह यौवन नहीं रहा, वह नवीनता नहीं रही। फिर उसके साथ क्यों न अत्याचार किए जायें, उसने सोचा – कुछ नहीं। अब इनका दिल मुझसे फिर गया है, नहीं तो क्या इस जरा-सी बात पर यों पर टूट पड़ते। कोई-न-कोई लांछन लगाकर मुझसे गला छुड़ाना चाहते हैं। यही बात है, तो मैं क्यों इनकी रोटियां और इनकी मार खाने के लिए इस घर में पड़ी रहूं? जब प्रेम ही नहीं रहा, तो मेरे यहां रहने को धिक्कार है। मैके में कुछ न सही, यह दुर्गति न होगी। इनकी यही इच्छा है, तो यही सही। मैं भी समझ लूंगी कि विधवा हो गई।

ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, देवी के प्राण सूखे जाते थे। उसे यह धड़का समाया हुआ था कि कहीं वह आकर फिर न मार-पीट शुरू कर दें। कितने क्रोध में भरे हुए यहां से गए। वाह री तकदीर अब मैं इतनी नीच हो गई कि मेहतरों से, जूते वालों से आशनाई करने लगी। इस भले आदमी को ऐसी बातें मुंह से निकालते हुए शर्म भी नहीं आती। न जाने इनके मन में ऐसी बातें कैसे आती हैं। कुछ नहीं, वह स्वभाव के नीच, दिल के मैले, स्वार्थी आदमी हैं। नीचों के साथ नीच ही बनना चाहिए। मेरी भूल थी कि इतने दिनों से उनकी घुड़कियां सहती रही। जहां इज्जत नहीं, मर्यादा नहीं, प्रेम नहीं, विश्वास नहीं, वहां रहना बेहयाई है। कुछ मैं इनके हाथों बिक तो गई ही नहीं कि यह जो चाहें करें, मारे या काटे, पड़ी सहा करूं। सीता-जैसी पत्नियां होती थीं, तो राम-जैसे पति भी होते थे।

देवी को अब ऐसी शंका होने लगी कि कहीं श्याम किशोर आते ही सचमुच उसका गला न दबा दें, या छुरी भोंक दें। वह समाचार-पत्रों में ऐसी कई हरजाइयों को खबरें पड़ चुकी थी। शहर ही में ऐसी घटनाएं हो चुकी थी। मारे भय के वह थरथरा उठी। यहां रहने से प्राणों की कुशल न थी।

देवी ने कपड़ों की एक छोटी-श्री बकुची बांधी और सोचने लगी – यहां से कैसे निकलूं और फिर यहां से निकलकर जाऊं कहां? कहीं इस वक्त मुन्नू का पता लग जाता, तो बड़ा काम निकलता। वह मुझे क्या मैके न पहुंचा देता? एक बार मैके पहुंच भर जाती। फिर तो लाला सिर पड़कर रह जाय, भूलकर भी न आऊं। वह भी क्या याद करेंगे, रुपये क्यों छोड़ूं दूं। जिसमें यह मजे में गुलछर्रे उड़ाए मैंने ही तो काट-छांटकर जमा किए हैं। इनकी कौन-सी ऐसी बड़ी कमाई थी। खर्च करना चाहती, तो कौड़ी न बचती। पैसा-पैसा बचाती रहती थी। देवी ने जाकर नीचे के किवाड़ बन्द कर दिए। फिर संदूक खोलकर अपने सारे जेवर और रुपये निकालकर बकुची में बांध लिये। सब-के-सब करेंसी नोट थे विशेष बोझ भी न हुआ। एकाएक किसी ने सदर दरवाजे में जोर से धक्का मारा। देवी सहम उठी। ऊपर से झांककर देखा, श्याम बाबू थे। उसकी हिम्मत न पड़ी कि जाकर द्वार खोल दे, फिर तो बाबू साहब ने इतने जोर से धक्के मारने शुरू किए, मानो किवाड़ ही तोड़ डालेंगे। इस तरह द्वार खुलवाना ही उनके चित्त की दशा का साफ प्रकट कर रहा था। देवी शेर के मुंह में जाने का साहस न कर सकी।

आखिर श्याम किशोर ने चिल्लाकर कहा – ‘ओ डैम! किवाड़ खोल, ओ ब्लड़ी! किवाड़ खोल, अभी खोल।’

देवी की रही-सही हिम्मत भी जाती रही। श्याम किशोर नशे में चूर थे। होश में शायद दया आ जाती, इसलिए शराब पीकर आये हैं। किवाड़ तो न खोलूंगी चाहे तोड़ ही डालो। अब तुम इस घर में आने पाओगे ही नहीं, मारोगे तो कहां से? तुम्हें खूब पहचान गई।

श्याम किशोर पन्द्रह-बीस मिनट तक शोर मचाने और किवाड़ हिलाने के बाद ऊल-जलूल बकते चले गये। दो-चार पड़ोसियों ने फटकार भी सुनाई। आप भी तो पढ़े-लिखे आदमी होकर आधी रात को घर चलते हैं। नींद ही तो है, नहीं खुलती, तो क्या कीजिएगा? जाइए, किसी यार-दोस्त के घर लेट रहिए, सवेरे आएगा।

श्याम किशोर के जाते ही देवी ने बकुची उठाई और धीरे-धीरे नीचे उतरी। जरा देर उसने कान लगाकर आहट ली कि कहीं श्याम किशोर खड़े तो नहीं है। जब विश्वास हो गया कि वह चले गये तो धीरे से द्वार खोला और बाहर निकल आई। उसे जरा भी क्षोभ, जरा भी दुःख न था। बस, केवल एक इच्छा थी कि यहां से भाग जाऊं। कोई ऐसा आदमी न था, जिस पर वह भरोसा कर सके, जो इस संकट में काम आ सके। बस वही मुन्नू मेहतर। अब उसी के मिलने पर उसकी सारी आशाएं अवलम्बित थी। उसी से मिलकर वह निश्चय करेगी कि कहां जाय, कैसे रहे। मैके जाने का अब उसका इरादा न था। उसे भय होता था कि मैके में श्याम किशोर से वह अपनी जान न बचा सकेगी। उसे यहां न पाकर वह अवश्य उसके मैके जायेंगे, और उसे जबरदस्ती खींच लाएंगे। वह सारी यातनाएं, सारे अपमान सहने को तैयार थी, केवल श्याम किशोर की सूरत नहीं देखना चाहती थी। प्रेम अपमानित होकर द्वेष में बदल जाता है।

थोड़ी ही दूर पर चौराहा था, कई तांगे वाले खड़े थे। देवी ने एक इक्का किया और उससे स्टेशन चलने को कहा।

देवी ने रात स्टेशन पर काटी। प्रातःकाल उसने एक तांगा किराए पर किया। और परदे में बैठकर चौक जा पहुंची। अभी दुकानें न खुली थी लेकिन पूछने से राजा मियां का पता चल गया। उसकी दुकान पर एक लौंडा झाडू दे रहा था। देवी ने उसे बुलाकर कहा – ‘जाकर राजा मियां से कह दे कि शारदा की अम्मा तुमसे मिलने आई हैं, अभी चलिए।’

दस मिनट में राजा और मुन्नू आ पहुंचे।

देवी ने सजल नेत्र होकर कहा – ‘तुम लोगों के पीछे मुझे घर छोड़ना पड़ा। कल रात को तुम्हारा मेरे घर जाना गजब हो गया। जो कुछ हुआ, वह फिर कहूंगी। मुझे कहीं एक घर दिला दो। घर ऐसा हो कि बाबू साहब को मेरा पता न मिले। नहीं तो वह मुझे जीती न छोड़ेंगे।

राजा ने मुन्नू की ओर देखा, मानो कह रहा है – देखो, चाल कैसी ठीक थी! देवी से बोला – ‘आप निसाखातिर रहें, ऐसा घर दिला दूंगा कि बाबू साहब के बाबा साहब को भी पता न चलेगा। आपको किसी बात की तकलीफ न होगी। हम आपके पसीने की जगह खून बहा देंगे। सच पूछो तो बहूजी, बाबू साहब आपके लायक थे नहीं।’

मुन्नू – ‘कहां की बात भैया, आप रानी होने लायक हैं। मैं मालकिन से कहता था कि बाबूजी को दालमंडी की हवा लग गई है, पर आप मानती ही न थी। आज रात ही को मैंने गुलाबजान के कोठे पर से उतरते देखा। नशे में धुत थे।’

देवी – ‘झूठी बात। उनकी यह आदत नहीं। गुस्सा उन्हें जरूर बहुत है, और गुस्से में आकर उन्हें नेक-बद कुछ नहीं सूझता लेकिन निगाह के बुरे नहीं।’

मुन्नू – ‘हुजूर मानती ही नहीं, तो क्या करूं। अच्छा, कभी दिखा दूंगा, तब, तो मानिएगा।’

राजा – ‘अबे दिखाना पीछे, इस वक्त आपको मेरे घर पहुंचा दे। ऊपर ले जाना। तब तक मैं एक मकान देखने जाता हूं। आपके लायक बहुत ही अच्छा है।’

देवी – ‘तुम्हारे घर में बहुत-सी औरतें होंगी?’

राजा – ‘कोई नहीं है, बहूजी, सिर्फ एक बुढ़िया मामी है। वह आपके लिए एक कहारिन बुला देगी। आपको किसी बात की तकलीफ न होगी। मैं मकान देखने जा रहा हूं।’

देवी – ‘जरा बाबू साहब की तरफ भी होते आना। देखना, घर आये कि नहीं?’

राजा – ‘बाबू साहब से तो मुझे चिढ़ हो गई है। शायद नजर में आ जायें तो मेरी उनसे लड़ाई हो जाय। जो मर्द आप जैसी हुस्न की देवी की कद्र नहीं कर सकता, वह आदमी नहीं।’

मुन्नू – ‘बहुत ठीक कहते हो, भैया। ऐसी शरीफजादी को न जाने किस मुंह से डांटते है। मुझे इतने दिन हुजूर की गुलामी करते हो गए, कभी एक बात न कही।’

राजा मकान देखने गया, और तांगा राजा के घर की तरफ चला।

देवी के मन में इस समय एक शंका का आभास हुआ – कहीं ये दोनों सचमुच शोहदे तो नहीं है? लेकिन कैसे मालूम हो? यह सत्य है कि देवी ने जीवन पर्यन्त के लिए स्वामी का परित्याग किया था, पर इतनी ही देर में उसको कुछ पश्चात्ताप होने लगा था। अकेली घर में कैसे रहेगी, बैठी-बैठी क्या करेगी, यह कुछ उसकी समझ में न आता था। उसके दिल ने कहा – ‘क्यों न घर लौट चलूं ईश्वर करे, वह अभी घर न आये हों। मुन्नू से बोली – ‘तुम जरा दौड़कर देखो तो, बाबूजी घर आये कि नहीं?’

मुन्नू – ‘आप चलकर आराम से बैठे, मैं देख आता हूं।’

देवी – ‘मैं अंदर न जाऊंगी।’

मुन्नू – ‘खुदा की कसम खाके कहता हूं घर बिलकुल खाली है। आप हम लोगों पर शक करती हैं। हम वह लोग हैं कि आपका हुक्म पाएं तो आग में कूद पड़े।’

देवी इक्के से उतरकर अंदर चली गई। चिड़िया इस बार पकड़े जाने पर भी फड़फड़ायी किन्तु पैरों में लासा लगे होने के कारण उड़ न सकी, और शिकारी ने उसे अपनी झोली में रख लिया। वह अभागिनी क्या फिर कभी आकाश में उड़ेगी? क्या फिर उसे डालियों पर चहकना नसीब होगा?

श्याम किशोर सवेरे घर लौटे, तो उनका चित्त शांत हो गया था। उन्हें शंका हो रही थी कि कदाचित् देवी घर में न होगी। द्वार के दोनों पट खुले देखे तो कलेजा सन्न-से हो गया। इतने सवेरे किवाड़ों का खुला रहना अमंगल सूचक था। एक क्षण द्वार पर खड़े होकर अंदर की आहट ली। कोई आवाज न सुनाई दी। आंगन में गये, वहां भी सन्नाटा, ऊपर चारों तरफ सूना। घर काटने को दौड़ रहा था। श्याम किशोर ने अब जरा सतर्क होकर देखना शुरू किया। संदूक में रुपये नदारद। गहने का संदूक भी खाली। अब क्या भ्रम हो सकता था? कोई गंगा-स्नान के लिए जाता है, तो घर के रुपये नहीं उठा ले जाता, वह चली गई। अब इससे लेश-मात्र भी संदेह नहीं था। यह भी मालूम था कि वह कहां गई है। शायद उसी वक्त लपक कर जाने से वह वापस भी लाई जा सकती है, लेकिन दुनिया क्या कहेगी?

श्याम किशोर ने अब चारपाई पर बैठकर ठंडे दिल से इस घटना की विवेचना करनी शुरू की। इसमें तो संदेह न था कि राजा और उसका पिट्ठू मुन्नू ने ही बहकाया है। आखिर बाबूजी का कर्तव्य क्या था? उन्होंने वह पुराना मकान छोड़ दिया, देवी को बार-बार समझाया। इसके उपरांत वह क्या कर सकते? क्या मारना अनुचित था? अगर एक क्षण के लिए अनुचित ही मान लिया जाये, तो क्या देवी को इस तरह घर से निकल जाना चाहिए था! कोई दूसरी स्त्री, जिसके हृदय में पहले ही से विष न भर दिया गया हो, केवल मार खाकर घर से न निकल जाती? अवश्य ही देवी का हृदय कलुषित हो गया।

बाबू साहब ने फिर सोचा – अभी जरा देर में महरी आएगी। वह देवी को घर में न देखकर पूछेगी, तो क्या जवाब दूंगा? दम-के-दम में सारे मुहल्ले में यह खबर फैल जायेगी। हाय भगवान क्या करूं? श्याम किशोर के मन में इस वक्त जरा भी पश्चात्ताप, जरा भी दया न थी। अगर देवी किसी तरह उन्हें मिल सकती तो वह उसकी हत्या कर डालने में जरा भी पशोपेश न करते। उसका घर से निकल जाना, चाहे आवेश के सिवा उसका कोई कारण न हो, उनकी निगाह में अक्षम्य था। क्रोध बहुधा विरक्ति का रूप धारण कर लिया करता है। श्याम किशोर को संसार से घृणा हो गई। जब अपनी पत्नी ही दगा कर जाय तो किसी से क्या आशा की जाए? जिस स्त्री के लिए हम जीते भी हैं और मरते भी, जिसको सुखी रखने के लिए हम अपने प्राणों का बलिदान कर देते है, जब वह अपनी न हुई, तो फिर दूसरा कौन अपना हो सकता है? इसी स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया? घरवालों से लड़ाई की, भाइयों से नाता तोड़ा, यहां तक कि वे अब उनकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। उसकी कोई ऐसी इच्छा न थी, जो उन्होंने पूरी न की हो। उसका जरा-सा सिर भर दुखता था, तो उनके हाथों के तोते उड़ जाते थे। रात-की-रात उनकी सेवा-सुश्रूषा में बैठे रह जाते थे। वह स्त्री आज उनसे दगा कर गई, केवल एक गुंडे के बहकावे में आकर उनके मुंह में कालिख लगा गई। गुंडे पर इल्जाम लगाना तो एक प्रकार से मन को समझाना है। जिसके दिल में खोट न हो, उसे कोई क्या बहका सकता है? जब इस स्त्री ने धोखा दिया, तो फिर समझना चाहिए कि संसार में प्रेम और विश्वास का अस्तित्व ही नहीं। यह केवल भावुक प्राणियों की कल्पना मात्र है। ऐसे संसार में रहकर दुःख और निराशा के सिवा और क्या मिलना है? हा दुष्टा! ले, आज से तू स्वतंत्र है, अब कोई तेरा हाथ पकड़ने वाला नहीं रहा। जिसे तू प्रियतम कहते हुए नहीं थकती थी, उसके साथ तूने यह कुटिल व्यवहार किया। चाहूं, तो तुझे अदालत में घसीटकर इस पाप का दंड़ दे सकता हूं मगर क्या फायदा! इसका फल तुझे ईश्वर देंगे। श्याम किशोर चुपचाप नीचे उतरे, न किसी से कुछ कहा, न सुना, द्वार खुले छोड़ दिए और गंगा-तट की ओर चले।