Laanchan by Munshi Premchand
Laanchan by Munshi Premchand

देवी – ‘मैं उसे कल ही निकाल दूंगी।’

मुंशीजी लेटे, पर चित्त अशांत था। वह दिन-भर दफ्तर में रहते थे। क्या जान सकते थे कि उनके पीछे देवी क्या करती है। वह यह जानते थे कि देवी पतिव्रता है, पर यह भी जानते थे कि अपनी छवि दिखाने का सुंदरियों को मर्ज होता है। देवी जरूर बन-ठन कर खिड़की पर खड़ी होती है, और मुहल्ले के शोहदे उसको देख-देखकर मन में न जाने क्या-क्या कल्पना करते होंगे। इस व्यापार को बंद कराना उन्हें अपने काबू से बाहर मालूम होता था। शोहदे वशीकरण की कला में निपुण होते हैं। ईश्वर न करे, इन बदमाशों की निगाह किसी भले घर की बहू-बेटी पर पड़े! इनसे पिंड कैसे छुड़ाऊं?’

बहुत सोचने के बाद अन्त में उन्होंने वह मकान छोड़ देने का निश्चय किया। इसके सिवा उन्हें दूसरा कोई उपाय न सूझा।

देवी से बोले – ‘कहो, तो यह घर छोड़ दूं। इन शोहदों के बीच में रहने से आबरू बिगड़ने का भय है।’

देवी ने आपत्ति के भाव से कहा – ‘जैसी तुम्हारी इच्छा।’

श्याम – ‘आखिर तुम्हीं कोई उपाय बताओ।’

देवी – ‘मैं कौन-सा उपाय बताऊं, और किस बात का उपाय? मुझे तो घर छोड़ने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती। एक-दो नहीं, लाख-दो लाख शोहदे हों तो क्या। कुत्तों के भौंकने के भय से भला कोई अपना मकान छोड़ देता है?’

श्याम – ‘कभी-कभी कुत्ते काट भी तो लेते हैं।’

देवी ने इसका कोई जवाब न दिया और तर्क करने से पति की दुश्चिंताओं के बढ़ जाने का भय था। यह शक्की तो हैं ही, न जाने उसका क्या आशय समझ बैठें।

तीसरे ही दिन श्याम बाबू ने वह मकान छोड़ दिया।

इस नए मकान में आने के एक सप्ताह के पीछे एक दिन मुन्नू सिर में पट्टी बांधे, लाठी टेकता हुआ आया और आवाज दी। देवी उसकी आवाज पहचान गई, पर उसे दुत्कारा नहीं। किवाड़ खोल दिए। पुराने घर के समाचार जानने के लिए उसका चित्त लालायित हो रहा था। मुन्नू ने अन्दर आकर कहा – ‘सरकार, जब से आपने मकान छोड़ दिया, कसम ले लीजिए जो उधर एक बार भी गया हूं। उस घर को देखकर रोना आने लगता है। मेरा भी जी चाहता है कि इसी मुहल्ले में आऊं। पागल की तरह इधर-उधर मारा-मारा फिरा करता हूं सरकार किसी काम में जी नहीं लगता। बस, हर घड़ी आप ही की याद आती रहती है। हुजूर जितनी परवरिस करती थी, उतनी अब कौन करेगा? यह मकान तो बहुत छोटा है।’

देवी – ‘तुम्हारे ही कारण तो वह मकान छोड़ना पड़ा।’

मुन्नू – ‘मेरे कारण! मुझसे कौन-सी खता हुई, सरकार?’

देवी – ‘तुम्हीं तो तांगे पर राजा के साथ बैठे मेरे पीछे-पीछे आ रहे थे। ऐसे आदमी पर आदमी का शक होता ही है।’

मुन्नू – ‘अरे सरकार, उस दिन की बात न पूछिए। राजा मियां को एक वकील साहब से मिलने जाना था। वह छावनी में रहते थे। मुझे भी साथ बिठा लिया। उनका साईस कहीं गया हुआ था। मारे लिहाज के आपके तांगे के आगे न निकलते थे। सरकार उसे शोहदा कहती हैं। उसका-सा भला आदर्श मुहल्ले भर में नहीं है। पांचों बख्त की नमाज पढ़ता है, हुजूर तीस रोज़े रखता है। घर में बीबी-बच्चे सभी मौजूद हैं। क्या मजाल कि किसी पर बदनिगाह हो।’

देवी – ‘खैर होगा, तुम्हारे सिर में पट्टी क्यों बंधी है?’

मुन्नू – ‘इसका माजरा न पूछिए, हुजूर! आपकी बुराई करते किसी को देखता हूं तो बदन में आग लग जाती है। दरवाजे पर जो हलवाई रहता था, कहने लगा – मेरे कुछ पैसे बाबूजी पर आते हैं। मैंने कहा – वह ऐसे आदमी नहीं हैं कि तुम्हारे पैसे हजम कर जाते।’

बस, हुजूर, इसी बात पर तकरार हो गई। मैं तो दुकान के नीचे गली धो रहा था। वह ऊपर से कूदकर आया और मुझे धकेल दिया। मैं बेखबर खड़ा था, चारों खाने चित्त सड़क पर गिर पड़ा। चोट तो आई, मगर मैंने भी दुकान के सामने बच्चा को इतनी गालियां सुनाई कि याद ही करते होंगे। अब घाव अच्छा हो रहा है, हुजूर।’

देवी – ‘राम! राम! नाहक लड़ाई लेने गए। सीधी-सी बात तो थी। कह देते – तुम्हारे पैसे आते हैं, तो जाकर मांग लाओ। हैं तो शहर ही में, दूसरे देश में तो नहीं भाग गए?’

मुन्नू – ‘हुजूर, आपकी बुराई सुन के नहीं रहा जाता, फिर चाहे वह अपने घर लाट ही क्यों न हो, भिड़ पडूंगा। वह महाजन होगा, तो अपने घर का होगा। यहां कौन उसका दिया खाते हैं।’

देवी – ‘उस घर में अभी कोई आया कि नहीं?’

मुन्नू – ‘कई आदमी देखने आए हुजूर, मगर जहां आप रह चुकी हैं, वहां अब दूसरा कौन रह सकता है? हम लोगों ने उन लोगों को भड़का दिया। राजा मियां तो हुजूर, उसी दिन से खाना-पीना छोड़ बैठे हैं। बिटिया को याद कर-करके रोया करते हैं। हुजूर को हम गरीबों की याद काहे को आती होगी?’

देवी – ‘याद क्यों नहीं आती? मैं आदमी नहीं हूं? जानवर तक थान छूटने पर दो-चार दिन चारा नहीं खाते। यह पैसे लो, कुछ बाजार से लाकर खा लो, भूखे होंगे।’

मुन्नू – ‘हुजूर की दुआ से खाने की तंगी नहीं है। आदमी का दिल देखा जाता है, हुजूर! पैसों की कौन बात है। आपका दिया तो खाते ही हैं। हुजूर का मिज़ाज ऐसा है कि आदमी बिना कौड़ी का गुलाम हो जाता है। तो अब चलूंगा, हुजूर, बाबूजी आते होंगे। कहेंगे – यह शैतान यहां फिर आ पहुंचा।’

देवी – ‘अभी उनके आने में बड़ी देर है।’

मुन्नू – ‘ओ हो, एक बात तो भूल ही जाता था। राजा मियां बिटिया के लिए ये खिलौने दिये थे। बातों में ऐसा भूल गया कि इनकी सुध ही न रही। कहां है बिटिया?’

देवी – ‘अभी तो मदरसे से नहीं आई, मगर इतने खिलौने लाने की क्या जरूरत थी? अरे! राजा ने तो गजब ही कर दिया। भेजना ही था, तो दो-चार आने के खिलौने भेज देते। अकेली मेम तीन-चार रुपये से कम की न होगी। कुल मिलाकर तीस-पैंतीस रुपये से कम के खिलौने नहीं हैं।’

मुन्नू – ‘क्या जाने सरकार, मैंने तो कभी खिलौने नहीं खरीदे। तीस-पैंतीस रुपये के ही होंगे, तो उनके लिए कौन-सी बड़ी बात है? अकेली दुकान से पचास रुपये रोज की आमदनी है, हुजूर।’

देवी – ‘नहीं, इनको लौटा ले जाओ। इतने खिलौने लेकर वह क्या करेगी? मैं सिर्फ एक मेम रखे लेती हूं।’

मुन्नू – ‘हुजूर, राजा मियां को बड़ा रंज होगा। मुझे तो जीता ही न छेड़ेगा। बड़े ही मोहब्बती आदमी हैं, हुजूर! बीबी दो-चार दिन के लिए मैके चली जाती है, तो बेचैन हो जाते हैं।’

सहसा शारदा पाठशाला से आ गई और खिलौने देखते ही उन पर टूट पड़ी। देवी ने डांटकर कहा – ‘क्या करती है? मेम ले ले, और सब लेकर क्या करेगी?’

शारदा – ‘मैं तो सब लूंगी। मेम को मोटर पर बैठाकर दौड़ाऊंगी। कुत्ता पीछे-पीछे दौड़ेगा। इन बरतनों में गुड़िया के खाने बनाऊंगी। कहां से आये हैं अम्मा? बता दो।’

देवी – ‘कहीं से नहीं आये, मैंने देखने को मंगवाए थे। तू इनमें से कोई एक ले ले।’

शारदा – ‘कहां से लाये हो मुन्नू, बता दो?’

मुन्नू – ‘तुम्हारे राजा भैया ने तुम्हारे लिए भेजे हैं।’

शारदा – ‘राजा भैया ने भेजे हैं। ओ हो! (नाच कर) राजा भैया बड़े अच्छे हैं। कल अपनी सहेलियों को दिखाऊंगी। किसी के पास ऐसे खिलौने न निकलेंगे।’

देवी – ‘अच्छा, मुन्नू तुम अब जाओ। राजा मियां से कह देना, फिर यहां खिलौने न भेजे।’

मुन्नू चला गया, तो देवी ने शारदा से कहा – ‘ला बेटी, तेरे खिलौने रख दूं। बाबूजी देखेंगे, तो बिगड़ेगें और कहेंगे कि राजा मियां के खिलौने क्यों लिये? तोड़-ताड़ कर फेंक देंगे। भूलकर भी उनसे खिलौनों की चर्चा न करना।’

शारदा – ‘हां, अम्मा, रख दो। बाबूजी तोड़ देंगे।’

देवी – ‘उनसे कभी मत कहना कि राजा भैया ने खिलौने भेजे थे, नहीं तो बाबूजी राजा भैया को मारेंगे और तुम्हारे कान भी काट लेंगे। कहेंगे, लड़की भिखमंगी है, सबसे खिलौने मांगती फिरती है।’

शारदा – ‘हां, अम्मा, रख दो। बाबूजी तोड़ देंगे।’

इतने में बाबू श्याम किशोर भी दफ्तर से आ गए। भौहें चढ़ी हुई थीं। आते-ही-आते बोले – ‘वह शैतान मुन्नू इस मुहल्ले में भी आने लगा। मैंने आज उसे देखा। क्या यहां भी आया था?’

देवी ने हिचकिचाते हुए – ‘हां, आया तो था।’

श्याम – ‘और तुमने आने दिया? मैंने मना किया था कि उसे कभी अंदर कदम न रखने देना।’

देवी – ‘आकर द्वार खटखटाने लगा, तो क्या करती?’

श्याम – ‘तुमने आज भी न कहा होगा, यहां मत आया कर।’

देवी – ‘मुझे तो इसका ख्याल न रहा। और अब वह यहां क्या करने आएगा?’

श्याम – ‘जो करने आज आया था, वही करने फिर आएगा। तुम मेरे मुंह में कालिख लगाने पर तुली हुई हो।’

देवी ने क्रोध से ऐंठ कर कहा – ‘मुझसे तुम ऊटपटांग बातें मत किया करो, समझ गए? तुम्हें ऐसी बातें मुंह से निकालते शर्म भी नहीं आती? एक बार पहले भी तुमने कुछ ऐसी ही बातें कही थीं। आज फिर तुम वही बात कर रहे हो। अगर तीसरी बार ये शब्द मैंने सुने तो नतीजा बुरा होगा, इतना कहे देती हूं। तुमने कोई वेश्या समझ लिया है?’

श्याम – ‘मैं नहीं चाहता कि वह मेरे घर आये।’

देवी – ‘तो मना क्यों नहीं कर देते, मैं तुम्हें रोकती हूं?’

श्याम – ‘तुम क्यों नहीं मना कर देती?’

देवी – ‘तुम्हें कहते हुए शर्म आती है?’

श्याम – ‘मेरा मना करना व्यर्थ है। मेरे मना करने पर भी तुम्हारी इच्छा पाकर उसका आना-जाना होता रहेगा।’

देवी ने होंठ दबाकर कहा – ‘अच्छा अगर वह आता ही रहे, तो क्या हानि है? मेहतर सभी घरों में आया-जाया करते हैं।’

श्याम – ‘अगर मैंने मुन्नू को कभी अपने द्वार पर फिर देखा, तो तुम्हारी कुशल नहीं, इतना समझाए देता हूं।’

यह कहते हुए श्याम किशोर नीचे चले गए, और देवी स्तंभित-सी खड़ी रह गई। तब उसका हृदय इस अपमान, लांछन और अविश्वास के आघात से पीड़ित हो उठा। वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसको सबसे बड़ी चोट जिस से लगी, वह यह थी कि मेरे पति मुझे इतना नीच, इतनी निर्लज्ज समझते है। जो काम वेश्या भी न करेगी, उसका संदेह मुझ पर कर रहे हैं।

श्याम किशोर के आते ही शारदा अपने खिलौने उठाकर भाग गई थी कि कहीं बाबूजी तोड़ न डाले। नीचे जाकर कर वह सोचने लगी कि इन्हें कहां छिपा कर रखूं। वह इसी सोच में थी कि उसकी एक सहेली आंगन में आ गई। शारदा उसे अपने खिलौने दिखाने के लिए आतुर हो गई। इस प्रलोभन को वह किसी तरह न रोक सकी। अभी तो बाबूजी ऊपर हैं, कौन इतनी जल्दी आए जाते हैं। तब तक क्यों न सहेली को अपने खिलौने दिखा दूं? उसने सहेली को बुला लिया और दोनों नए खिलौने देखने में मग्न हो गईं, कि बाबू श्याम किशोर के नीचे आने की भी उन्हें खबर न हुई। श्याम किशोर खिलौने-देखते ही झपटकर शारदा के पास जा पहुंचे और पूछा – ‘तूने यह खिलौने कहां पाए?’

शारदा की घिग्घी बंध गयी। मारे भय के थर-थर कांपने लगी। मुंह से एक शब्द भी न निकला।