आभी जाओ- ये वाक्य पढ़ते ही अमित के होंठ कपकपाएं और आंखें भर आई। उसने अखबार को अपनी मुट्ठी में भींचकर उस पर अपना सिर टिका दिया था। उसकी आंखों के चारों ओर जैसे घना अंधेरा छा गया। अखबार के दूसरे पृष्ठ पर बांयी ओर कोने में लिखा हुआ था- आ भी जाओ। ये मार्मिक संदेश पढ़कर अखबार में उसके मुंह से बहके से शब्द निकले, पापा। आंखों में आंसू बहते सब कुछ जैसे धुंधला-सा गया हो। आगे का पूरा संदेश पढ़े बिना ही अमित समझ गया था कि आगे संदेश में क्या लिखा होगा। प्यारे अमित, तुम अभी जहां कहीं भी हो,आ जाओ। तुम्हारी मम्मी की तबियत खराब है,वे तुम्हें बार-बार याद कर रही हैं,घर आ जाओ। तुमसे कोई कुछ नहीं बोलेगा। तुम्हारे पापा।

दोनों में संवाद कम होने के बाद भी अमित अपने पापा को बखूबी समझ लेता था। उस छोटे से होटल की टेबल पर चेहरे को हाथों से ढंके उसे लगा कि अभी उसे यहां आए मात्र दो-तीन दिन हुए हैं। वह सोच रहा था कि यहां पर उसे रहते मानो दो-तीन साल हो गए हों। बीते दो-तीन दिनों को याद करते एक-एक पल जैसे उसकी आंखों के सामने पूरा घटनाचक्र घूम रहा हो। जैसे कि कुछ दिन पहले की बात हो। उस दिन घर पर रात को सोते समय उसने सुबह जल्दी उठने के लिए घड़ी में सुबह पांच बजे का अलार्म लगाया था। सुबह अलार्म की आवाज से अमित की नींद जल्दी खुल गई। उसके स्कूल का टेस्ट था, उसकी मम्मी भी जाग गई थी। तभी उनके दरवाजे की घंटी बजी। भला इतनी सुबह घर पर कौन आ सकता है, डरते हुए उन्होंने दरवाजा खोला। तब तक अमित और उसके पापा भी दरवाजे पर आ चुके थे। 

दरवाजे पर लंबे-चौड़े चार-पांच आदमी खड़े थे। उन्होंने पापा को कोई कार्ड दिखाया। कार्ड को देखकर उसके पापा के होश उड़ गए, वे बिना कुछ बोले निराश-हताश सोफे पर जाकर बैठ गए थे। उन लोगों ने लॉकर की चाबियां, लाकर अधिकारियों को दी। मैं खड़ा चुपचाप तमाशा देख रहा था, बाद में मुझे अलमारियों के लॉकर खुलने की आवाजें आने लगी थी। सब देखकर वह इतना तो समझ गया था कि इन अधिकारियों ने मेरे पापा की कुछ गलती अवश्य पकड़ी है तभी हमारे पूरे घर की तलाशी ले रहे हैं। दूसरे कमरे से आवाजें आई, अरे सर ये देखिए, इधर तो हर कंपनी के शेयर मौजूद हैं। लॉकरों से तो सोने के जेवर निकल रहे हैं। अरे लगता है इनके सभी बिल फर्जी हैं। इसने न जाने कहां-कहां से नकली बिलों का जुगाड़ किया होगा। यहां तो अलमारियों में नोटों का ढेर लगा है।

ये सभी आवाजें जैसे अमित के कानों में ज़हर-सा घोल रही थी। पापा ने हमेशा ड्राइवरों, नौकरों और अपने तमाम अधीनस्थों पर रौब जमाया है, उनके गरजने मात्र से सबके पसीने छूट जाते थे। सभी जानने वालों में उनकी खास पहचान थी। सभी उनका आदर-सत्कार करते थे और आज किसी हारे सेनापति की तरह सिर झुकाए सोफे पर बैठे थे। पापा की नजरों से डरने वाले अमित को उनसे काफी सहानुभूति हो रही थी। इधर अमित के स्कूल का समय होने पर उसकी मम्मी ने संकोचवश उन अधिकारियों से पूछा कि बेटे का स्कूल में टेस्ट है, क्या वह उसे भेज दे। उन लोगों द्वारा हां करते ही उन्होंने अमित को तैयार करके तुरंत स्कूल भेज दिया।

दुखी मां से अमित भी ज्यादा कुछ नहीं पूछ सका न ही उन्होंने कुछ उसे बताया। बस किसी तरह से तैयार होकर वह घर से निकला। घर के बाहर उसने देखा कि कुछ सरकारी वाहन खड़े हैं, आसपास के पड़ोसी भी कानाफूसी कर रहे हैं। सबको हैरानी के साथ देख नीची गर्दन किए गुमसुम-सा बस स्टॉप की ओर बढ़ा जा रहा था। स्कूल का टेस्ट तो जैसे वह भूल ही गया था, मन में तो जैसे बवाल मचा था। इस अप्रत्याशित घटना को लेकर वह सोचने लगा कि अभी घर पर क्या चल रहा होगा। क्या मेरे पापा ने गलत तरीके से पैसा कमाया है, वैसे मैं पहले सब पर कितना रौब झाड़ता था। स्कूल और कॉलोनी के सब दोस्तों पर खूब खर्चा करता था, उन्हें खूब खिलाता-पिलाता था। अपने पैसे के दम पर सबको नचाता था, सभी दोस्त मुझे सिर-आंखों पर बैठाए रहते थे, फिर मम्मी भी तो अपने सभी रिश्तेदारों में गहनों का खूब प्रदर्शन करती थी। महंगे होटलों में खाना, बर्थडे वगैरह मनाना। सब मेहमानों को रिटर्न गिफ्ट देना वे अपनी शान समझती थीं। हमारे सभी रिश्तेदार हमारी संपन्नता से जलते थे। खासकर हमारी मामी का चेहरा तो ये सब देखकर उतर ही जाता था। पापा भी हमारी सभी फरमाइशों को पूरा करते थे और महंगे परफ्यूम, घडिय़ां तो उन्हें बेहद पसंद थे। अभी जो कुछ घर पर हुआ उसका पता सबको चल जाएगा, फिर आगे क्या होगा। लोग क्या कहेंगे अब तक कॉलोनी और स्कूल के सब दोस्तों को ये बात मालूम हो गई होगी कि हमारे यहां क्या हुआ। जब सब मुझसे इस बारे में बात करेंगे तो उन सबको मैं क्या जवाब दूंगा। सभी बच्चे मुझे हिकारत भरी निगाहों से देखेंगे, मैं अकेला इन सबका सामना कैसे कर पाऊंगा। बस इतना सोचते ही अमित बस स्टैंड का रास्ता छोड़ रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया था।

रेलवे स्टेशन पर उसे जो ट्रेन खड़ी दिखी, उसके डिब्बे में जाकर बैठ गया था। अपनी स्कूल यूनीफार्म में बैग लिए इस लड़केको आसपास बैठे सभी यात्री घूर रहे थे। इनकी घूरती आंखें अमित के दिल में घबराहट पैदा कर रही थी। उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई थी, सुबह के अभी आठ बजे थे अब तक तो मेरे स्कूल में न पहुंचने पर मैसेज पहुंच गए होंगे पापा के मोबाइल पर। उन्होंने मेरी खोज शुरू कर दी होगी। शायद पुलिस को भी खबर कर दी हो। कहीं पुलिस पकड़कर मुझे घर न ले जाए, नहीं अभी मैं घर वापस जाना नहीं चाहता…। सबके बीच अपना मजाक उड़वाने के लिए… नहीं किसी भी कीमत पर नहीं। इन्हीं उधेड़बुन में उसने खिड़की से बाहर देखा तो ट्रेन रुक चुकी थी। वह तेज कदमों के साथ स्टेशन से बाहर निकला तो उस कस्बे के छोटे से होटल में थका-हारा जाकर बैठ गया। भूखा-प्यासा गुम-सुम सा काफी देर तक बैठा रहा था। हर कोई हैरानी से उसे देखता, निकल जाता था।

उस छोटे से होटल के मालिक बाबू खां उसे ऐसे उदास काफी देर से देख रहे थे। उन्हें पूरा माजरा समझते देर न लगी, वे धीरे से उसके पास आकर सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, बेटा, तुम्हें क्या परेशानी है। इस तरह से परेशान क्यों बैठे हो? उनके सहानुभूति भरे स्पर्श से वह पसीज उठा और रोते हुए अमित ने अपनी पूरी आप-बीति सुनाई। बाबू खां ने पूरी बात ध्यान से सुनने के बाद उसे चाय-नाश्ता कराया और कहा कि बेटा अभी जो हो गया सो हो गया। अभी तुम सच-सच बताओ, तुम्हे आगे क्या करना है।

बाबू खां के अपनेपन ने अमित का भरोसा जीत लिया था। मासूमियत के साथ हिम्मत करके वह उनसे बोला कि उसे अपने होटल में चार-पांच दिन रुकने दें, उसके बारे में किसी को कुछ बताएं नहीं, प्लीज। बाबू खां इस बच्चे की मासूमियत भरी बातें सुनकर मानने को मजबूर हो गए। वे अपने तजुर्बे, उम्र की परिपक्वता के कारण उन्हें यह अहसास हो गया था कि इस किशोर की नादानी और गलत फैसले उसके भावी जीवन को बर्बाद कर सकते हैं। फिर इस बुढ़ापे में उनका अपना अकेलापन भी शायद पिछली ऐसी किसी गलती का भारी पश्चाताप कर रहा था। फिर वे अमित के दर्द को समझकर और उसका कहा मानकर स्वयं की ही किसी आत्मग्लानि से भी उबरने का प्रयास कर रहे थे।

बाबू खां की पूरी दुनिया ही जैसे उनका ये छोटा-सा होटल थी। एक गुदड़ी और कुछ कपड़े बस यही उनका अपना निजी था। रात को होटल बंद होने के बाद बचा भोजन खाकर बेंच पर सो जाते थे। अमित ने भी इधर मन बनाकर होटल में रुकने का इरादा कर लिया था। आरंभ में वह होटल के झूठे कप-गिलास धोने लगा था। हालांकि इस काम में उसके हाथ-पैर ठंडे पानी में कांपने लगे थे। ऐसा करते देख बाबू खां ने अमित से कहा कि वह यह सब छोड़े और उनकी कुर्सी संभाले और उसे होटल का पूरा हिसाब-किताब समझाकर होटल चलाने के तौर-तरीके बताए।

एक दिन रात को होटल बंद करने के बाद उन्होंने अमित को संग खाने को बुलाया, फिर उसका उदास चेहरा देखकर वे सोचने लगे कि कहीं अमित को अपने होटल में शरण देकर कोई गलती तो नहीं की। वे दो-तीन दिनों से उसे इसी हालत में देख रहे थे। इससे उनका मन उन्हें काफी कचोट रहा था। फिर उन्होंने अपने खुदा को याद करके सब उसकी मर्जी पर ही छोड़ दिया था। अमित भी उदास रहकर न कुछ खा-पी रहा था, न ढंग से होटल में रह पा रहा था।

एक दिन बाबू खां ने कहा कि मैं देख रहा हूं कि तुम यहां काफी परेशान रहते हो। बता दो, मैं बाहर शहर सामान लेने जा रहा हूं, तुम्हारे लिए भी कुछ लेता आऊंगा। अमित ने भारी मन से कहा, बाबा ला सको तो मुझे एक पोस्टकार्ड ला देना। इसके बाद बाबू खां शहर निकल गए। शाम को जब शहर से सामान लेकर लौटे तो अमित के हाथ में पोस्टकार्ड थमाकर उसके सिर पर स्नेह भरा हाथ फेरते हुए बोले, बेटा तुमने इस नाजुक उम्र में बहुत कुछ सह लिया, अब देरी मत करो।

काफी देर तक सोचने के बाद अमित ने पोस्टकार्ड पर लिखना शुरू किया, प्यारे डैडी, बस मैं अभी लौट आना चाहता हूं। आप लोगों के बिना मेरा एक-एक पल बिताना मुश्किल हो गया है। एक विनती है आपसे, बहुत छोटा होकर बड़ी मांग कर रहा हूं। पापा आप अपनी पहले वाली ईमानदारी की राह पर लौट आओ। मैं भी जल्दी ही आप सबके पास जल्द ही लौट आऊंगा। आपका बेटा- अमित।

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