यह कहते-कहते अहल्या की आंखें सजल हो गयीं! चक्रधर से अब जब्त न हो सका। उन्होंने संक्षेप में सारी बातें कह सुनाई और अन्त में प्रयाग उतर जाने का प्रस्ताव किया। अहल्या ने गर्व से कहा–अपना घर रहते प्रयाग क्यों उतरें? मैं घर चलूंगी। वे कितने ही नाराज हों, हैं तो हमारे सता-पिता! आप इन […]
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मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 10
आगरे के हिन्दुओं और मुसलमानों में आये दिन जूतियां चलती रहती थी। जरा-जरा-सी बात पर दोनों दलों के सिर फिर जमा हो जाते और दो-चार के अंग-भंग हो जाते। कहीं बनिये की डण्डी मार दी और मुसलमानों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिन्दू का घड़ा छू लिया और […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 9
हुक्काम के इशारों पर नाचने वाले गुरुसेवकसिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इल्जाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मण्डल में सनसनी फैल गयी। गुरुसेवक से ऐसे फैसले की किसी को आशा न थी। फैसला क्या था, मान-पत्र था, जिसका एक-एक शब्द वात्सल्य के रस में सराबोर था। मनोरमा नॉवेल भाग एक […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 8
चक्रधर को जेल में पहुंचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह नयी दुनिया में आ गये। उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघकर छोड़ देते। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी पैरों से ठुकरा देता, और परिश्रम इतना करना पड़ता था […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 7
संध्या हो गयी है। ऐसी उमस है कि सांस लेना कठिन है, और जेल की कोठरियों में यह उमस और भी असह्य हो गई है। एक भी खिड़की नहीं, एक भी जंगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरन्तर गान कानों के परदे फाड़े डालता है। यहीं एक कोठरी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 6
राजा-यह आप क्या कहते हैं? मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर एक मजदूर को इच्छा-पूर्ण भोजन दिया जाय। क्यों दीवान साहब, क्या बात है? हरसेवक-धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में न आइए। यह सारी आग इन्हीं की लगायी हुई है। मुंशी-दीनबन्धु, यह लड़का बिलकुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया, […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 5
मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जगे, कार्तिक लगते ही एक ओर राजभवन की मरम्मत होने लगी, दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियां शुरू हुई। मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1 राजा साहब ताकीद करते रहते थे कि प्रजा पर जरा भी सख्ती न होने […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 4
विशालसिंह-हंसकर नहीं कहता। डांटता हूं, फटकारता हूं। वसुमती-डांटते होंगे, मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हंसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 3
चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुंच चुकी थी। उनके मित्र और अन्य लोग उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो रहे थे। जब वह पांचवें दिन घर पहुंचे, तो लोग मिलने और बधाई देने आ पहुंचे। नगर का सभ्य-समाज मुक्तकंठ से उनकी तारीफ कर रहा था। यद्यपि चक्रधर गम्भीर आदमी थे; पर अपनी कीर्ति […]
मनोरमा – मुंशी प्रेमचंद भाग – 1
मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा-क्यों? क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जाएगी? चक्र-मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है। आजाद रहना चाहता हूं। वज्र-आजाद रहना था तो एम.ए. क्यों पास किया? उस दिन से पिता और पुत्र में आये-दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजी बार-बार झुंझलाते और उसे कामचोर, घमण्डी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते […]
