Raja Sonam Raghuwanshi Case: इंदौर के राजा और सोनम रघुवंशी के हनीमून पर लगे खून के धब्बों ने यूं तो कई सवाल खड़े किए हैं लेकिन बड़ा सवाल शादी के औचित्य का है। हम खुद को एक ऐसा देश मानते हैं जहां दिल बड़े होते हैं और शादियां उससे भी बड़ी। लेकिन फूलों की बारिश और ड्रोन शॉट्स के नीचे, एक खामोश सच्चाई यह है कि आज भारत में ज़्यादातर लोग प्यार के लिए शादी नहीं करते। वे शादी करते हैं क्योंकि अब ‘समय हो गया’ है। क्योंकि वे शादी की “उम्र के” हो गए हैं। क्योंकि किसी ने कहीं न कहीं, उनके 25 साल के होते ही एक घड़ी चालू कर दी थी और अब उसकी टिक-टिक इतनी तेज़ है कि अनसुनी नहीं की जा सकती।

यह न तो अरेंज मैरिज पर हमला है, न लव मैरिज पर, न ही किसी भी तरह की शादी पर। यह एक आइना है। एक ऐसा आइना जिससे हम बचते हैं, क्योंकि यह हमें कुछ असहज दिखाता है। हमने अब रिश्तों में जुड़ाव की खोज को छोड़ दिया है और “समय हो गया” की सुविधा चुन ली है। ऐसा करके हमने कमिटमेंट के मायने बदल दिए हैं… अब हम किसी इंसान से नहीं, बल्कि एक जीवन की कल्पना से कमिट करते हैं, जो हमने खुद नहीं चुनी, बस हमें सौंपी गई है।

एक समय था, जब प्यार को ताकतवर माना जाता था। ऐसा कुछ जिसके लिए इंतज़ार करना, लड़ना, सही समझा जाता था। लेकिन कुंडली मिलाने, परिवार देखने और “बस एक बार मिलने” की जल्दी में प्यार को पीछे कर दिया गया। अब, प्यार लक्ष्य नहीं है। यह तो एक ऐसा फल है जिसकी उम्मीद की जाती है जब सब कुछ और तय हो जाए। आप किसी से मिलते हैं। वे कुछ जरूरी बातों में खरे उतरते हैं। आपको अंदर से कोई ज़ोरदार भावना महसूस नहीं होती, पर आपको… शांति लगती है। और यही काफी है। क्योंकि अब हम इसे कंपैटिबिलिटी (मेल-जोल) कहते हैं। हम कहते हैं, “वो अच्छा है” या “वो प्यारी है” जैसे बस यही इंसानी जुड़ाव की परिभाषा है।

हम अब यह नहीं पूछते कि हम क्यों शादी कर रहे हैं। हम यह पूछते हैं… कब? और फिर सभी की हां का इंतज़ार करते हैं। माता-पिता, दोस्त, सहकर्मी, यहां तक कि समाज भी। अब तारीख़ दिशा तय करती है, न कि दिल की दिशा। और बात ये है कि ज़्यादातर लोग भ्रम में नहीं हैं… वे जानते हैं। वे जानते हैं कि यह कोई जबरदस्त, आत्मा को झकझोर देने वाला रोमांस नहीं है। पर वे थक चुके हैं। डेटिंग ऐप्स से थक चुके हैं। बातों के अधूरे पड़ावों से थक चुके हैं। इस डर से थक चुके हैं कि वे जिंदगी की किसी दौड़ में पीछे न रह जाएं। तो वे अब यह नहीं पूछते, “क्या यह वही इंसान है जिसके साथ मैं आगे बढ़ना चाहता हूं?” वे पूछते हैं, “क्या मैं इसके साथ जी सकता हूं?”

एक ऐसी चीज़ को टिक कर देना जिसमें दिल नहीं हो, उससे एक खालीपन आता है। आप अपनी शादी की तस्वीरों से प्यार कर सकते हैं, गृह-प्रवेश पार्टी से खुश हो सकते हैं, “सेटल हो जाना” भी अच्छा लग सकता है… फिर भी कुछ खाली लग सकता है। वो खालीपन है- मायने का। असली मायना तब आता है जब आप अपने जीवनसाथी की ओर देखते हैं और जानते हैं कि “मैंने तुम्हें चुना… इसलिए नहीं कि मुझे करना था। या इसलिए नहीं कि समय हो गया था। बल्कि इसलिए कि तुम मेरे जीवन को और ज़्यादा ईमानदारी, हिम्मत और खुशी से जीने लायक बनाते हो।” जब हम बस इसलिए शादी करते हैं क्योंकि अब समय हो गया है तो हम उस प्यार को महसूस करने का मौका गंवा देते हैं। ना कि फिल्मी, परीकथा जैसा प्यार… बल्कि वो सच्चा प्यार, जो हमें चुनौती देता है और हमें बेहतर बनाता है।

हमें शादी को ‘सेटल हो जाना’ कहना बंद करना चाहिए क्योंकि सच तो यह है कि हम बस… सेटल कर रहे हैं। यह शादी के ख़िलाफ़ बगावत नहीं है। यह एक चेतावनी है… बिना सोचे समझे शादी करने के ख़िलाफ़। जब हम कहते हैं “सेटल हो रहे हैं” तो हम इसे एक इनाम की तरह दिखाते हैं। जैसे यह बड़ा होने का पुरस्कार है। लेकिन हकीकत ये है कि बहुत लोग बस सेटल कर रहे हैं।सबसे सुरक्षित विकल्प के लिए। जहां सबसे कम संघर्ष हो। जहां सबसे कम पछतावा हो। हम अपने आप से कहते हैं कि हम “शांति” चुन रहे हैं,पर असल में हम हार मान रहे होते हैं। फिर हम इसे “परिपक्वता” कहते हैं जैसे किसी गहरे जुड़ाव की उम्मीद छोड़ देना ही बड़े होने की निशानी हो।

हमने बहुत ज़्यादा तलाक देखे हैं। बहुत सारे दुखी जोड़े देखे हैं जो दिखाते हैं कि सब ठीक है। बहुत सी शादियां देखीं जो एक दिखावा लगती हैं। और अब, हम चुपचाप अपनी उम्मीदें घटा लेते हैं। हम खुद से कहते हैं … प्यार अव्यवहारिक है। बचकाना है। असली नहीं है। हम कहते हैं यह सिर्फ़ किशोरों और फिल्मों के लिए है। लेकिन यह सच नहीं है। असल में जो अव्यवहारिक है, वो है एक ऐसा जीवन चुनना जो डर या थकान से चुना गया हो। जो असली बेवकूफी है… वो है अपने अंदर की आवाज़ को अनसुना करना, जो कहती है “यह वो नहीं है” सिर्फ़ इसलिए कि बाकी सब कहते हैं, “यह वही है”।

आप किसी को भी अपनी टाइमलाइन देने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। आप परंपरा के सामने चुप रहने के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। सबसे जरूरी… आप खुद के साथ ऐसा जीवन बिताने के लिए मजबूर नहीं हैं जो दबाव में चुना गया हो। जब शादी सही लगे, तभी कीजिए या कभी मत कीजिए।पर सिर्फ  इसलिए मत कीजिए क्योंकि “अब समय हो गया है”। क्योंकि सच्चा प्यार घड़ी पर नहीं, हिम्मत पर चलता है। और अगर आप इसमें इंतजार करने या हर उस चीज को छोड़ने की हिम्मत रखते हैं जो प्यार नहीं है तो आपने वो कर लिया जो बहुत से लोग कभी नहीं कर पाते… आपने खुद को चुना। और हर सच्ची प्रेम कहानी की शुरुआत यहीं से होती है।

ढाई दशक से पत्रकारिता में हैं। दैनिक भास्कर, नई दुनिया और जागरण में कई वर्षों तक काम किया। हर हफ्ते 'पहले दिन पहले शो' का अगर कोई रिकॉर्ड होता तो शायद इनके नाम होता। 2001 से अभी तक यह क्रम जारी है और विभिन्न प्लेटफॉर्म के लिए फिल्म समीक्षा...