उसने अपना चेहरा घृणा से झटककर दूसरी ओर फेर लिया। इंस्पेक्टर जोशी के दिल को धक्का लगा। परन्तु उसका पेशा-कर्तव्य-धर्म ? वह एक पुलिस इंस्पेक्टर है। उसे इतना भावुक नहीं होना चाहिए। होंठों को चबाते हुए उसने अपने दिल को सख्त किया और फिर न्यायाधीश की ओर देखा। वह अदालत में आकर अपनी कुर्सी पर बैठ रहे थे। कुर्सी पर बैठकर न्यायाधीश ने अपराधी को देखा। कटघरे में बन्द अपराधी बहुत असहाय दृष्टि से अपनी पत्नी को देख रहा था। उसकी आंखों में आंसू थे। उन्हें उस पर दया आई। परन्तु कानून के पास आंखें नहीं होतीं। कानून अन्धा होता है ताकि किसी के आंसू नहीं देख सके। इसलिये न्यायाधीश ने अपना फैसला सुना दिया-मृत्यु दण्ड।
‘‘नहीं।’’ अदालत के कटघरे में खड़ा अपराधी चीख पड़ा। उसकी चीख से अदालत का सारा कमरा गूंज गया। वह चीख-चीखकर कह रहा था, ‘‘मैं निर्दोष हूं। मैंने कोई हत्या नहीं की। मैं निर्दोष हूं।’’
उसकी आवाज के साथ उसके सारे नातेदारों में भी हाहाकार मच गया। सब मिलकर न्याय की दुहाई देने लगे। सभी की दृष्टि में जगदीश निर्दोष था। परन्तु सुधा के होंठों पर मानो ताला पड़ गया था। एक भी शब्द वह नहीं कह सकी। केवल उसके अधर कांपे और फिर उसे चक्कर आ गया था। उसकी छाती पर पहाड़ गिर पड़ा था। उसका होश जाने लगा। उसके पग लड़खड़ाए-और फिर वह वहीं फर्श पर धम्म से गिर पड़ी। अन्तिम बार उसके कानों ने सुना, उसका पति चीख-चीखकर कह रहा था, ‘‘मुझे छोड़ दो-मैंने हत्या नहीं की-मैं निर्दोष हूं।’’
इंस्पेक्टर जोशी ने सुधा की स्थिति देखी, इस प्रकार मानो उसे सुधा की ऐसी स्थिति देखने की आशा थी। मृत्यु दण्ड के बाद उसने हत्यारों की कितनी ही पत्नियों को ऐसी अवस्था में देखा था। फिर भी उसकी आंखें छलक आईं तो अपने आंसुओं को पोंछते हुए वह कमरे से बाहर निकल गया। जाने क्यों एक पल के लिए उसे विचार आया कि इस मुकद्दमे में कहीं भूले-भटके उससे कोई गलती तो नहीं हो गई है ? परन्तु नहीं, उससे कोई गलती नहीं हुई है। उसने जो कुछ देखा था वही रिपोर्ट में लिखा था और अपराधी को उसके अपराध का दण्ड अवश्य मिलना चाहिए, अपराधी चाहे कोई भी हो।
उसके दिल को सन्तोष मिल गया। सुधा को दूसरे दिन शाम को होश आया। बहुत हल्का-सा। तब वह एक अस्पताल में थी। उसकी आंखें खुलीं तो पलकें फाड़-फाड़कर वह इस प्रकार देखने लगी मानो कोई भयानक सपना देखकर उठी थी। उसकी कलाई में ‘सलाइन’ लगी हुई थी। उसके पेट में सख्त दर्द था। सारा शरीर दर्द के कारण टूट रहा था। अचानक उसने अपनी वास्तविकता का आभास किया-उस वास्तविकता का जिससे टकराकर वह इस अवस्था को पहुंची थी, तो उसके कानों में फिर वही चीख गूंजने लगी जो उसने अपने पति के स्वर में अदालत का फैसला होने के बाद सुनी थी। ‘मुझे छोड़ दो मैंने कोई हत्या नहीं की, मैं निर्दोष हूं।’ उसका दिल फटने लगा। तड़पकर रो पड़ने के लिए उसके होंठ थर-थर कांपने लगे। आंखों में आंसू भर-भर आए। शारीरिक तथा मानसिक दर्द असहनीय हो गया तो होंठों पर सिसकी आने से पहले ही वह बेहोश हो गई।
समीप ही उसकी मां तथा बाबा बैठे हुए थे। सुधा की अवस्था उनसे देखी नहीं गई। मां तो अपनी बेटी का सुहाग लुट जाने के गम में इतना अधिक रोई थी कि उसकी आंखें सूज गई थीं। बाबा बूढ़े थे-तसल्ली के भूखे थे, फिर भी अपनी बेटी को तसल्ली देने पर विवश थे। पुरुष कितना ही निर्बल हो, परन्तु नारी के सामने बड़े से बड़ा दुःख सहन करने की शक्ति अवश्य रखता है। शायद इसीलिए बाबा की जान अटकी हुई थी।
सुधा की अवस्था एक सप्ताह तक ऐसी ही रही-कभी होश में तो कभी बेहोशी के संसार में। होश में आती तो आंखें फाड़कर पुतलियां नचाती हुई पागलों समान इधर-उधर देखने लगती। अर्धबेहोशी में दांत पीसती हुई बड़बड़ाने लगती, ‘‘पापी, नीच, चंडाल-मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूंगी। तेरे कारण ही मेरे पति को मृत्युदण्ड मिला है। कमीना, नीच इंस्पेक्टर का बच्चा…’’ और भी बहुत कुछ कहती, परन्तु उसके शब्द होंठों में खोकर रह जाते। सुधा को इतना बड़ा सदमा पहुंचा था कि डाक्टर परेशान हो उठे। डाक्टर को सन्देह हुआ कि कहीं पूर्णतया होश आने पर सुधा अपनी स्मृति न खो दे। सुधा को आहार में ग्लूकोज देकर जीवित रखा जा रहा था।
सप्ताह के अन्त में रात आरम्भ होने के बाद सुधा को पूर्णतया होश आया तो उसको शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा कम थी। ऐसा लगता था मानो सदमे का दहाड़ता हुआ सागर दिल के अन्दर खामोश हो गया है। उसने आंखें खोलीं तो सामने क्षितिज पर चन्द्रमा बहुत खामोशी के साथ उसे खिड़की द्वारा देख रहा था-उसी के समान वह भी बहुत उदास था। बाहर वातावरण शायद भीगा-भीगा था। शबनम के आंसुओं से तर। सहसा उसके कानों के बिल्कुल समीप आकर एक नन्ही-सी चीख उभरी, बहुत प्यारी-सी चीख, अपने अन्दर शान्ति की मिठास लिए हुए। उसने बड़ी कठिनाई से गर्दन घुमाकर देखा। उसके समीप नन्ही-सी जान लेटी रो रही थी।
उसे सख्त आश्चर्य हुआ। उसकी स्मृति की अनुपस्थिति में जाने कब इस बच्चे ने जन्म लिया था ? परन्तु उसके मन की शान्ति ने उसे बता दिया कि यह बच्चा उसी का है। उसे शारीरिक पीड़ा से भी मुक्ति मिल गई थी। एक नर्स ने लपककर बच्चे के मुंह में दूध की बोतल लगा दी। बच्चा चुप हो गया। सुधा बहुत कमजोर थी इसलिए बच्चे को दूध नहीं पिला सकती थी। फिर भी उसने ‘सलाइन’ लगे हाथ को बिना हिलाए दूसरी ओर बड़ी कठिनाई के साथ थोड़ी-सी करवट बदली और बच्चे को चूम लिया। फिर नर्स के हाथ से बोतल लेकर वह खुद बच्चे को दूध पिलाने लगी। अब यह बच्चा ही उसके लिये सब कुछ था-उसकी आत्मा-उसका जीवन-उसके पति की एकमात्र निशानी थी यह जिसे वह एक पल भी जुदा नहीं कर सकती थी। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। होंठ भी सी लिये। अपने पति के बारे में कुछ जानने का वह साहस नहीं कर सकी।
उसे होश में आया देखकर उसकी मां उसके समीप स्टूल लाकर बैठ गई। बेटी के सिर पर हाथ फेरने लगी तो बेटी के गम का लावा आंसुओं में पिघलकर बहने लगा। आंसू बह जाएं तो दिल को बहुत शान्ति मिल जाती है। परन्तु सुधा जानती थी कि उसे वह शांति कभी नहीं मिल सकती जो वह खो चुकी है।
कुछ पल बाद सुधा ने आंखें खोलीं। उसका बच्चा सो गया था। उसने बोतल वहीं एक किनारे रख दी। आराम से सीधे लेटकर उसने गर्दन घुमाते हुए इधर-उधर देखा, मानो बाबा तथा मां के अतिरिक्त उसे अपनी समीप कुछ और लोगों को भी देखने की आशा थी। उसे निराशा मिली तो उसने आश्चर्य से अपने बाबा को देखा।
‘‘तेरे ससुराल वालों से हमारा नाता सदा के लिए टूट गया है बेटी।’’ उसके बाबा ने उसकी दृष्टि समझकर कहा। उनका स्वर भीगा हुआ था, ‘‘तेरी अवस्था इतनी गंभीर थी कि तुझे तुरन्त कचहरी से अस्पताल लाना पड़ा। तेरे पास तेरी मां को छोड़कर जब मैं तेरे पति के अन्तिम संस्कार में सम्मिलित होने गया तो उन लोगों ने मुझे कुत्ता समझकर दुतकारते हुए वापस भेज दिया, कहने लगे कि…कि…’’ बाबा से आगे नहीं कहते बना तो वह आंसुओं से रो पड़े।
सुधा ने खामोश होकर अपनी आंखें बंद कर लीं। ऐसा समय देखने की वह उसी दिन से आशा लगाए हुए थी जिस दिन उसने अदालत में न्यायाधीश के सामने सरकारी वकील को बयान देते हुए कह दिया था कि उसका पति रुपये न चुराने की बात केवल मजाक में कहता था। उसका पति बच जाता तो बात अलग होती। उसकी पलकें बन्द थीं, फिर भी आंखों में आंसू आ गए। पलकों के किनारे हटाकर यह आंसू बाहर निकले और कनपटी से होते हुए कानों के गढ़े में एकत्र होने लगे।

कुछ पल बाद मां ने उसे बताया कि पिछले दिनों उसकी अवस्था गम्भीर रही। आज जब तीन घण्टे पहले उसने एक बच्चे को जन्म दिया तब जाकर उसकी अवस्था में कुछ सुधार आया है। डाक्टर ने बच्चा उत्पन्न होने के बाद अवस्था संतोषजनक बताते हुए कहा कि अब वह शीघ्र ही अपने घर जा सकेगी। अपने घर ? वह घर जिसकी ड्योढ़ी पर पग रखते हुए उसने सोचा था कि अब यहां से उसकी लाश ही निकलेगी ? अब तो वह आत्महत्या भी नहीं कर सकती। इस बच्चे के लिए उसे जीना है जो उसके पति की अन्तिम निशानी है। इसे उसने अपनी कोख से जन्मा है। इस बच्चे में उसके पति की आत्मा बसी है। यही उसका संसार है-उसके दिल का सन्तोष। इसे वह पढ़ाएगी- लिखाएगी-और एक दिन बहुत ऊंचे व्यक्तित्व का मालिक बनाएगी। उसी प्रकार लेटे-लेटे वह एक हाथ द्वारा बच्चे के सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी।

