बेला चली गई, पर आनंद के मन में एक आग-सी लग गई जिसने उसके मन और मस्तिष्क को अपनी लपेट में ले लिया। उसे बेला की बातों पर विश्वास आ गया। बेला ने हर बात इस ढंग से कही कि उसमें किसी प्रकार की शंका का स्थान न रह जाए। आनंद को रायसाहब पर क्रोध भी आ रहा था, जिन्होंने भेद उससे इसलिए छिपाए रखा कि कहीं वह संध्या से विवाह करने को मना न कर दे। इन्हीं विचारों में उसने कार स्टार्ट कर दी और गाड़ी को तेज गति पर छोड़ दिया।
नीलकंठ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1
दूसरे दिन पौ फटने से पूर्व निशा की गाड़ी में बैठकर संध्या घर लौट गई। रायसाहब और मालकिन ने उसे गले से लगा लिया। वे जानते थे कि अधिक समय तक वह उनसे अलग नहीं रह सकती। उसकी माँ के विषय में उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया।
बालकनी से झांककर जब बेला ने उसे पापा और मम्मी के साथ बैठे चाय पीते देखा तो जल-भुन गई। वह फिर उनके यहाँ क्यों लौट आई? आनंद चाहे उसकी बातों में आ गया हो, पर संभव है कि संध्या के सम्मुख वह फिर पिघल जाए। संध्या की बातों में वह रस था, जो पत्थर हृदय को भी मोम कर दे।
उसे सहसा एक चाल सूझी। एक ही ओर पासा फेंकने से कुछ न बनेगा। उसे दोनों के मन में एक समान आग सुलगानी चाहिए ताकि जब वह भड़क उठे तो बुझाने वाला निकट न आ सके। वह द्वेष और डाह से दांत पीसने लगी।
बाहर बालकनी की सीढ़ियों पर आहट हुई और वह झट से अपने बिस्तर पर उल्टी लेट गई। न जाने उस समय उसकी आँखों से आँसू कैसे छलक पड़े और वह तकिए में मुँह छिपाकर रोने लगी। संध्या दबे पाँव कमरे में आई और उसके पास बैठ गई। थोड़ी देर चुप रहने के पश्चात् अपनी सुकुमार उंगलियां उसकी पीठ पर फेरते हुए बोली-‘बेला, बेला-सवेरा हो गया।’
बेला ने आँसुओं से भीगा चेहरा ऊपर उठाया और बोली-‘दीदी!’ फिर उसकी गोद में सिर छिपा सिसकियाँ लेकर रोने लगी। संध्या ने प्यार से उसके बिखरे बालों को संवारना आरंभ कर दिया। वैसे ही सिर नीचे किए वह कहने लगी-
‘दीदी-दीदी, कहाँ चली गईं थीं। रात भर मैं चिंता में व्याकुल रही। दीदी, मुझे क्षमा कर दो। मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ। मेरी जीभ क्यों न जल गई जब…’
‘अब छोड़ो इन बातों को, देखो तो मैं तुम्हारे पास आ गई, उठो मैं तुम्हारे सुंदर केश संवार दूँ।’ बेला ने धीरे से गर्दन उठाकर ऊपर देखा। संध्या फिर बोली-‘देखो, ये रोती हुई आँखें इस सुुंदर मुखड़े पर शोभा नहीं देतीं। तुम्हारे ये दिन रोने के नहीं हँसने के हैं।’
‘यह यौवन-यह सौंदर्य-ये दिन, न ही आते तो अच्छा था।
आंसू पोंछते हुए वह बोली-
‘ऐसा नहीं कहा करते। यौवन तो जीवन की वासना है।’
‘परंतु बाग में चोर और लुटेरे छिपे बैठे हों तो…’
‘यह आज क्या बहकी-बहकी बातें कर रही हो? कौन चोर है? कौन तुम्हें छूने तक का भी साहस रखता है?’
‘दीदी, तुम्हारा…’
‘हाँ-हाँ, कहो। रुक क्यों गईं?’
‘तुम्हारा आनंद-’
आनंद का नाम होंठों पर आते ही वह सिर से पांव तक कांप गई, जैसे किसी ने अचानक दबी राख में से अंगार कुरेदने आरंभ कर दिए हों। उसने मन को अधिकार में करते हुए पूछा-
‘क्या कहते थे वह?’
‘दीदी पहले वचन दो कि उनसे कुछ न कहोगी।’
‘हाँ-हाँ तुम घबराओ नहीं, आखिर मैं भी तो सुनूँ कि क्या किया उन्होंने।’
‘मुझसे झूठा प्रेम… मुझे कहीं का न रखा।’
‘वह कैसे? तुम रुक-रुककर क्यों कहती हो? मुझमें इतना धैर्य नहीं, सब कह डालो।’
बेला ने तकिए के नीचे से सब तस्वीरें निकालकर उसके हाथ में दे दीं, जो उसने आनंद के संग खंडाला में उतारी थीं। संध्या उन्हें देखकर अवाक्- सी कभी उन तस्वीरों को और कभी बेला के चिंतित मुख को देखने लगती। थोड़ी देर दोनों एक-दूसरे को ऐसे ही देखती रहीं, फिर बेला बोली-
‘हाँ दीदी-यह खंडाला है।’
‘परंतु तुम वहाँ कब गईं?’
‘पूना जाते समय, मैं क्या जानूँ वह भी दादर से उसी गाड़ी में जा बैठे। हँसते-खेलते उन्होंने मुझे पागल-सा कर दिया और मेरे ना करने पर भी मुझे एक दिन के लिए खंडाला में उतारकर ठहरने के लिए विवश कर दिया और क्षणिक भावनाओं के आवेश में मैंने अपना सब कुछ लुटा दिया।
‘हाँ दीदी, मैंने अपना सब कुछ लुटा दिया। दीदी मैं बिलकुल निर्दोष हूँ। मेरी अच्छी दीदी मुझे क्षमा कर दो।’ वह घुटनों के बल वहीं बैठ गई और संध्या के दहकते हुए सीने से लिपटकर रोने लगी-चंद क्षणों के लिए उसे अनुभव हुआ मानो उसने अपना सिर अंगारों पर रख दिया हो।
संध्या यह सुनकर पागल-सी हो गई, जैसे किसी ने बाण मारकर एक ही निशाने में उसका दिल बेध डाला हो। वह बेला से कहे भी तो क्या-उसकी बातों ने उसे प्रेम और ईर्ष्या की उस पतली धार पर ला खड़ा किया, जहाँ वह कहीं की न रही। वह बेला को सांत्वना देती हुई बोली-
‘पगली रो मत। अच्छा किया, जो तूने मन की दशा मुझसे कह डाली। तब ही, जब से वह खंडाला से लौटा है, कुछ खोया-खोया रहता है। यदि वह भी अपने मन की बात मुझसे कह देता तो मैं तुम दोनों के जीवन की प्रसन्नता के लिए सब कुछ त्याग देती।’
‘नहीं दीदी, ऐसा न कहो, दोष तो सब मेरा था। मैं स्वयं ही अंधी हो गई थी, दंड मुझे ही मिलना चाहिए। पापा से कहकर मुझे दिल्ली वापस भेज दो, मैं बंबई एक दिन भी रहना नहीं चाहती।’
‘पागल मत बनो। मझधार में आकर चप्पू छोड़ दिया तो सब डूब जाएँगे। धैर्य रखो, आनंद तुम्हारा ही रहेगा।’ यह कहते हुए दो आँसू मोतियों की भांति उसकी आँखों की कोरों में आ ठहरे। वह धीमे स्वर में बोली-‘क्या वह यहाँ आए थे?’
‘हाँ दीदी, रात को पापा से बहुत देर तक बातें करते रहे।’
‘तुमसे नहीं मिले?’
‘केवल जाते समय इतना ही कहा-‘बेला, तुम्हें धीरज से काम लेना चाहिए-यदि विवाह हुआ तो तुम्हीं से होगा। मैं न जानता था कि तुम्हारी दीदी किसी वेश्या की लड़की है।’
‘वेश्या!’ जैसे नींद में वह चिल्ला उठी हो-‘बेला वह सच कहते हैं। अब तक तो मैं उसकी न थी, अब उसी वेश्या की होकर रहूँगी-कह देना उससे-और यह भी कह देना कि मेरी माँ तो जैसी भी है, परंतु तुमसे अच्छी है।’ यह कहते हुए उसने गले से अपना हार उतारा और उस पर खुदे नीलकंठ को देखने लगी, फिर उसे बेला के हाथ में देते हुए बोली-

‘संभालकर रखना, कहीं मेरी भांति इसे खो न देना-पक्षी जो ठहरा-किसी समय हाथों से निकलकर उड़ सकता है।’ यह कहकर वह लंबे डग भरती हुई बाहर चली गई। बेला इतना भी न पूछ सकी कि वह कहाँ जा रही है। संध्या के चले जाने के पश्चात् बेला ने वह हार अपनी मुट्ठी में ले लिया और स्वयं ही कहने लगी-‘संध्या कहती है कि पक्षी किसी समय भी उड़ सकता है, परंतु वह नहीं जानती कि वह अब बेला के हाथ में है, जो उसके पंख काटकर रख देगी।’
थोड़े समय पश्चात् घर में शोर उठा कि न जाने अचानक संध्या कहाँ चली गई। नौकर, मालकिन, रेनु, यहाँ तक कि बेला मौन रही। कोई पापा को न बता सका कि उनकी लाड़ली अचानक कहाँ चली गई।
केवल बेला अपने मन में गुदगुदी का आनंद ले रही थी।
नीलकंठ-भाग-11 दिनांक 7 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

